तीन हिंदी भाषी राज्यों में जीत के बाद बीजेपी ने बड़ी तेजी से लोकसभा चुनाव की रणनीतियों पर काम शुरू कर दिया है। तीन राज्यों के नए मुख्यमंत्रियों के चयन से यह बात साफ हो गई है कि पार्टी ने लोकसभा चुनाव ही नहीं, उसके बाद की राजनीति पर भी विचार शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों के कयासों को ग़लत साबित करते हुए बीजेपी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में न सिर्फ जीत हासिल की, बल्कि नए मुख्यमंत्रियों के रूप में तीन नए चेहरों को आगे बढ़ाकर चौंकाया है। संभवतः पार्टी का आशय है कि हमारे यहाँ व्यक्ति से ज्यादा संगठन का महत्व है। हम नेता बना सकते हैं।
तीनों राज्यों में बीजेपी की सफलता के पीछे अनेक कारण हैं। मजबूत नेतृत्व,
संगठन-क्षमता, संसाधन, सांस्कृतिक-आधार और कल्याणकारी योजनाएं वगैरह-वगैरह। इनमें ‘शुक्रिया मोदीजी’ को भी जोड़
लीजिए। यानी मुसलमान वोटरों को खींचने के प्रयासों में भी उसे आंशिक सफलता मिलती
नज़र आ रही है।
राजस्थान में पहली बार विधायक बने भजनलाल शर्मा, मध्य प्रदेश में मोहन यादव और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय के नामों की दूर तक चर्चा नहीं थी। इनका नाम नहीं था, पर पार्टी अब इनके सहारे नएपन का आभास देगी। उसे कितनी सफलता मिलेगी, यह तो मई 2024 में ही पता लगेगा, पर इतना साफ है कि पार्टी ‘पुरानेपन’ को भुलाना और ‘नएपन’ को अपनाना चाहती है। पुराने नेताओं का कोई ‘हैंगओवर’ अब नहीं है। दूसरी तरफ पार्टी को इस बात का भरोसा भी है कि वह लोकसभा चुनाव आसानी से जीत जाएगी। उसने ‘इंडी’ गठबंधन या ‘इंडिया’ को चुनौती के रूप में लिया ही नहीं।
क्षेत्रीय-क्षत्रप
पार्टी ने तपे-तपाए अनुभवी नेताओं के बजाय नए
चेहरों पर दाँव सोच-समझकर लगाया है। लगता नहीं कि उन्हें किनारे किया जाएगा। कुछ
पर्यवेक्षक मानते हैं कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व क्षेत्रीय-क्षत्रपों को पनपने
देना नहीं चाहता। रमन सिंह, शिवराज सिंह चौहान और
वसुंधरा राजे का अपना आभामंडल है। संगठन के भीतर इनका समर्थक-वर्ग भी है। इन्हें
यों ही अकेला छोड़ा नहीं जा सकता, बल्कि उनके रसूख के मुताबिक कोई जिम्मेदारी इन्हें
भी मिलेगी। इन तीन के अलावा ज्योतिरादित्य सिंधिया भी हैं। देखना होगा कि पार्टी
ने इन वरिष्ठ नेताओं को किस प्रकार समझाया है, उसकी योजना क्या है वगैरह। इन
नेताओं की जरूरत लोकसभा चुनाव में भी होगी। यह भी लगता है कि शिवराज चौहान और
वसुंधरा राजे को केंद्र में कोई जिम्मेदारी मिलेगी। वे पहले भी केंद्र में रह चुके
है।
2024 के चुनाव के बाद बीजेपी को मोदी के बाद के
नेतृत्व पर भी विचार करना है। केंद्रीय स्तर पर भले ही एक या दो नेता बहुत बलशाली
हों, पर इतने बड़े आकार की पार्टियों की सफलता के पीछे संगठनात्मक सामर्थ्य भी
होती है। किसी न किसी स्तर पर सामूहिक नेतृत्व और पूरे संगठन की भूमिका इसमें
होगी। बीजेपी की धुरी इस समय नरेंद्र मोदी हैं, वैसे ही जैसे कांग्रेस में ‘परिवार’ है, पर दोनों पार्टियों की कार्य-पद्धतियाँ और
कार्य-संस्कृतियाँ अलग हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पार्टी का अपने समर्थकों
और वोटरों से कनेक्ट है, जिसकी कांग्रेस में कमी दिखाई पड़ रही है।
संभावनाएं
बनाम झगड़े
लोकसभा चुनाव होने तक इन तीनों राज्यों की नई सरकारों
को बड़े स्तर पर नया काम करने का समय नहीं मिलेगा, पर नए नेता नई संभावनाओं के साथ
सामने आएंगे, जबकि ‘इंडिया’ गठबंधन में पुराने झगड़े फिर से खड़े हो सकते हैं। होंगे या नहीं पता
नहीं, पर इतना साफ है कि गठबंधन की धुरी नहीं है, नई राजनीति का कोई सूत्र नहीं
है। इसलिए जो भी है उसके बिखरने का खतरा लगातार बना रहेगा। गठबंधन के पास जीत का
कोई सूत्र या मंत्र नहीं है, केवल एक मनोकामना है कि बीजेपी को कैसे भी अपदस्थ
किया जाए।
राज्यों के चुनावों में स्थानीय नेतृत्व की
प्रतिष्ठा और राज्य से जुड़े मसले भी होते हैं, पर लोकसभा चुनाव में मोदी का ‘जादू’ काम करेगा। लगता है कि विधानसभा
चुनावों में भी ‘मोदी की गारंटी’ ने काम किया
है। भाजपा ने छत्तीसगढ़ के अपने घोषणापत्र को 'मोदी की गारंटी' नाम दिया। मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29, राजस्थान में 25,
छत्तीसगढ़ में 11, तेलंगाना में 17 और मिज़ोरम में एक
सीट है। इन सीटों को जोड़ दिया जाए तो इनका योग 83 हो जाता है।
इन परिणामों के निहितार्थ और 2024 के चुनावों पर
पड़ने वाले असर के लिहाज से देखने के लिए यह समझना जरूरी है कि बीजेपी की इस
असाधारण सफलता के पीछे के कारण क्या हैं।
‘इंडिया’ गठबंधन ऐसे
वक्त बना, जब इन राज्यों में विधानसभा होने वाले थे। राहुल गांधी की ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ और
मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्षता सौंपने के बाद आश्वस्त गांधी-नेहरू परिवार को लगता
था कि इन तीन में कम से कम दो राज्य और तेलंगाना उसकी झोली में होंगे। इससे ‘इंडिया’ गठबंधन के भीतर सौदेबाजी
की उसकी सामर्थ्य बेहतर हो जाएगी। इस वजह से पार्टी गठबंधन में सीटों के बँटवारे
के सवाल को टालती जा रही थी, पर ममता बनर्जी ने न केवल बंगाल बल्कि असम की सीटों
पर दावा पेश कर दिया। उधर चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ
बदमज़गी पैदा हो गई।
2018 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी इन तीनों
हिंदी भाषी राज्यों में हार गई थी। बावजूद इसके बीजेपी को 2019 के चुनावों में
भारी सफलता मिली थी। इसबार तो तीनों राज्यों में उसकी सरकारें है, जिसका मानसिक
लाभ उसके कार्यकर्ताओं को मिलेगा। इस लिहाज से वह पहले की तुलना में बेहतर स्थिति
में है। फर्क केवल यह है कि इसबार मुकाबला ‘इंडी या
इंडिया’ गठबंधन से होगा, जो पिछली बार नहीं था। क्या
वास्तव में मुकाबला होगा? फिलहाल लगता है कि मुकाबला होने के पहले ही ‘इंडी’ गठबंधन
अंतर्विरोधों का शिकार हो गया है।
नया ‘लाभार्थी’ वर्ग
तीन राज्यों में बीजेपी की सफलता को विश्लेषक
अपने-तरीके से समझने की कोशिश कर रहे हैं, पर निर्विवाद रूप से दो बातों की ओर सभी
का इशारा है। पहला कारण है नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर वोटर का भरोसा और दूसरे
कल्याणकारी योजनाओं के कारण बना एक नया ‘लाभार्थी’ वर्ग। यह वर्ग धर्मों, जातियों, समुदायों और
क्षेत्रों से ऊपर है। इस लिहाज से यह घोषणाओं की जीत है, पर कांग्रेस की पराजय के
पीछे ‘एंटी इनकंबैंसी’ और आपसी
खींचतान का हाथ भी है।
लोकलुभावन घोषणाओं की छत्तीसगढ़, राजस्थान और
तेलंगाना में भी कमी नहीं थी, पर वहाँ ‘एंटी इनकंबैंसी’ हावी रही और मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान की सरकार ने
जनता के बीच अपनी जगह बनाकर रखी। और पहले से कहीं बड़ी सफलता हासिल की। इन सब
बातों के पीछे बीजेपी की संगठनात्मक-क्षमता का भी हाथ रहा होगा और सामाजिक नैरेटिव
की भूमिका भी रही होगी। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़
और राजस्थान में बीजेपी की सरकारें बनने जा रही हैं, बल्कि यह भी है कि तेलंगाना
में उसने वोट प्रतिशत पहले की तुलना में दुगना और सीटों की संख्या आठ गुना बढ़ा ली
है। हिंदी भाषी राज्यों में उसने वोट प्रतिशत और सीटों दोनों लिहाज से जबर्दस्त
सफलता हासिल की है।
इस लोकप्रियता के पीछे स्त्रियों की बहुत बड़ी
भूमिका है, जिनमें मुस्लिम महिलाएं शामिल हैं। महिलाएं जब स्वयं को एक वर्ग के रूप
में देखती हैं, तब वे इस बात की अनदेखी नहीं करतीं कि उन्हें मिल रहे लाभ धार्मिक
या जातीय आधार पर नहीं हैं, बल्कि इंसान के रूप में हैं। युवा, किसान और गरीब इन
तीन वर्गों के केंद्र में भी स्त्रियाँ हैं। देश की आधी आबादी की राजनीतिक-चेतना
इस रूप में प्रस्फुटित हो रही है। ध्यान दें, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। यह 2014
से चल रहा है। तब यह अपेक्षाकृत अदृश्य थी, अब मुखर हो रही है।
लाड़ली बहना
मध्य प्रदेश में बीजेपी की इसबार जीत के पीछे ‘लाड़ली
बहना’ योजना का हाथ बताया जा रहा है। मार्च, 2023 में शुरू की गई इस योजना के तहत मध्य प्रदेश सरकार
राज्य की स्थायी निवासी महिलाओं को आर्थिक स्वावलंबन, उनकी सेहत और
पोषण में सुधार और परिवार में ज्यादा मजबूत स्थिति बना पाने में मदद करने के लिए
हर महीने 1,250 रुपये देती है।
यह रकम हर महीने की 10
तारीख तक दी जाती है। पहले इस योजना में 1,000 रुपये दिए
जाते थे, फिर इसे बढ़ाकर 1,250 रुपये या
15,000 रुपये सालाना कर दिया गया। कहा जा रहा
है कि यह रकम 3000 रुपये तक की जा सकती है। राज्य में कुल 5.6 करोड़ मतदाताओं में
2.72 करोड़ महिलाएं हैं। लोकलुभावन योजनाएं देश के ज्यादातर राज्यों में शुरू
हो गई हैं, पर केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से लागू हुई ऐसी ज्यादातर
योजनाएं स्त्रियों को लक्ष्य करके तैयार की गई हैं।
आधार का विस्तार
भारतीय जनता पार्टी के लिए यह समय अपने आधार के
विस्तार का है। हालांकि वह राष्ट्रीय स्तर पर सत्तारूढ़ पार्टी है, पर उसका यह
स्वरूप मुख्यतः उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, असम, हरियाणा, मध्य प्रदेश और
राजस्थान के सहारे है, जिन्हें उसके ‘कोर राज्य’
मान सकते हैं। मध्य प्रदेश और राजस्थान से मिले इसबार के परिणामों ने इस बात की
पुष्टि की है। इनके अलावा महाराष्ट्र, बंगाल और बिहार जैसे राज्यों में उसकी आंशिक
उपस्थिति है। ‘कोर राज्यों’ में भी उसे चुनौती देने के प्रयास हो
रहे हैं।
2014 के बाद उड़ीसा, बंगाल,
आंध्र, तमिलनाडु, तेलंगाना,
झारखंड में हुए चुनावों में बीजेपी को सफलता नहीं मिली है। अलबत्ता
बंगाल में उसके दूसरे नंबर की पार्टी बन जाने को बड़ी सफलता माना जा सकता है। वहीं
कर्नाटक में कांग्रेस की वापसी हुई और केरल में हिन्दू मतदाता ने अभी तक सीपीएम का
दामन थाम रखा है। अब हो रहे पाँच राज्यों के चुनाव में बीजेपी की चुनाव-मशीनरी के
संचालन और ‘इंडिया’ गठबंधन के
बरक्स राजनीतिक मोर्चाबंदी की परीक्षा भी होगी।
दूरगामी राजनीति के लिहाज से ओडिशा, आंध्र,
कर्नाटक और तेलंगाना ऐसे राज्य हैं, जहाँ बीजेपी को जरूरत पड़ने पर गठबंधन सहयोगी की
तलाश होगी। कर्नाटक में बीजेपी ने एचडी देवेगौडा की जेडीएस को इसी रिजर्व स्थिति
में रखा है। तेलंगाना में कांग्रेस और बीआरएस के सीधे मुकाबले के कारण बीजेपी के
पास 2024 के चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर बीआरएस के साथ गठबंधन का रास्ता खुला हुआ
है। वहीं आम आदमी पार्टी ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस के वोट काटने के कारण
प्रकारांतर से बीजेपी का रास्ता आसान करती जा रही है।
‘इंडिया’ के अंतर्विरोध
उत्तर के राज्यों में कांग्रेस की पराजय के बाद
उद्धव ठाकरे की शिवसेना के नेता संजय राउत ने कहा, मेरी
स्पष्ट राय है कि मध्य प्रदेश का चुनाव ‘इंडिया’ गठबंधन तहत लड़ा जाना चाहिए था।
अगर कुछ सीटें गठबंधन दलों के साथ साझा की जातीं तो कांग्रेस का प्रदर्शन कहीं
बेहतर होता। जेडीयू के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा कि चुनावों में विपक्षी
‘इंडिया’ गठबंधन गायब था। ऐसी बातें कुछ और लोगों ने भी कही हैं।
पिछले एक-डेढ़ साल में कांग्रेस ने
मल्लिकार्जुन खरगे को अध्यक्ष के पद पर चुनकर नेतृत्व से जुड़े अपने असमंजस को दूर
किया, वहीं राहुल गांधी ने ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ के माध्यम से अपने आपको राष्ट्रीय राजनीति में वापस
लाने में सफलता हासिल की है। इस साल पार्टी ने क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर ‘इंडिया’ गठबंधन बनाने में सफलता भी हासिल कर ली, पर यह फिलहाल अधूरी
है। गठबंधन 2024 के चुनाव के दौरान सीटों के बँटवारे के फॉर्मूले को तैयार नहीं कर
पाया है। उत्तर भारत के तीन राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद अब गठबंधन के भीतर
उसकी आवाज़ पहले के मुकाबले कमज़ोर हो जाएगी।
उत्तर प्रदेश की भूमिका
राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर प्रदेश की भूमिका
सबसे बड़ी है। वजह है लोकसभा में उसकी 80 सीटें। इसबार मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी
कांग्रेस के साथ गठबंधन चाहती थी। कांग्रेस ने उसे एक भी सीट नहीं दी। इसके बाद
समाजवादी पार्टी ने अपने प्रत्याशी भी मैदान में उतारे। अखिलेश यादव और उनकी पत्नी
डिंपल यादव ने चुनाव-प्रचार में भी काफी समय लगाया। इन बातों से सपा ने गठबंधन के
भीतर अपनी उपस्थिति मज़बूत कर ली है। सपा के अलावा जदयू ने भी मध्य प्रदेश में
अपने उम्मीदवार उतार कर ‘इंडिया’ गठबंधन के सामने खतरे का निशान खड़ा
कर दिया। इन दोनों को सफलता नहीं मिली, पर दोनों कांग्रेस-विरोधी नैरेटिव बनाने
में एक हद तक सफल जरूर हो गए हैं।
जातीय जनगणना से लेकर आरक्षण के मुद्दे पर अखिलेश,
भाजपा के साथ कांग्रेस को भी दोषी बता रहे हैं। हालांकि कांग्रेस की तरफ से सपा के
खिलाफ बयानबाज़ी नहीं हुई है, पर भीतर ही भीतर सुलगती चिंगारियों को महसूस किया जा
सकता है। माना जा सकता है कि अखिलेश यादव की बातें भविष्य के मोल-तोल की पृष्ठभूमि
तैयार कर रही हैं। वे कह रहे हैं कि प्रदेश में गठबंधन हुआ तो भी उनकी पार्टी 65
सीटों पर चुनाव लड़ेगी। वहीं, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय भी
सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कह रहे हैं। रालोद भी 12 सीटों पर चुनाव लड़ने
की ताल ठोक रही है।
लोकसभा चुनाव में सीटों के बँटवारे के फॉर्मूले
को लेकर बातें ठहरी हुई हैं। हो भी रही होंगी, तो वे नेपथ्य में हैं। मुंबई की
बैठक के बाद से गठबंधन ‘इंडिया’ की औपचारिक बैठक नहीं हुई है। इन
पंक्तियों के प्रकाशन तक 19 दिसंबर की प्रस्तावित बैठक हो गई होगी। अब खबरें इस
आशय की भी आ रही हैं कि 2024 के चुनाव के बाद का ‘पोस्ट-पोल
गठबंधन’ ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। असमंजस केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं है। बंगाल, असम, पंजाब, गुजरात
और महाराष्ट्र में भी है।
सीटों का बँटवारा
‘इंडिया’ गठबंधन के सामने सबसे बड़ा सवाल सीटों
के बँटवारे का है। इसका गठन ही बँटवारे के राजनीतिक लाभ की संकल्पना पर हुआ है और विधानसभा
के इन चुनावों के पहले कांग्रेस पार्टी सीटों के बँटवारे के सवाल को ही टालती रही
थी। वस्तुतः कांग्रेस अपनी वापसी के लिए और क्षेत्रीय-क्षत्रप अपने अस्तित्व की
रक्षा के लिए एकसाथ आए हैं। कांग्रेस को लगता था कि विधानसभा चुनावों में उसे
सफलता मिलेगी, जिसके सहारे वह सौदेबाजी में दूसरे दलों पर भारी पड़ेगी। पर अब लगता
है कि उसकी ज़मीन कमज़ोर हो गई है। तीन राज्यों में मिली हार ने सौदेबाज़ी की उसकी
ताकत को कम कर दिया है। गठबंधन को बनाए रखने के लिए उसे त्याग करना ही होगा।
परिणाम होगा, चुनावोत्तर राजनीति में उसका और कमज़ोर होकर उभरना।
इन चुनावों के ठीक पहले समाजवादी पार्टी के साथ
उसकी जैसी कहासुनी हुई, उसके दुष्परिणाम भी अब सामने आएंगे। इस गठबंधन का काफी
श्रेय गैर-कांग्रेसी दलों को जाता है। इसमें तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता
बनर्जी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल और
बीआरएस के चंद्रशेखर राव की भूमिका थी। इसमें कांग्रेस के प्रवेश के बाद
अंतर्विरोध बढ़ गए।
गैर-कांग्रेसी दलों की दृष्टि यह है कि जिन
राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं, वहाँ कांग्रेस उनके पीछे रहे और जहाँ
कांग्रेस मजबूत है, वहाँ दूसरे दल उसका साथ दें, तो सफलता मिलेगी। पर ऐसा लगता है
कि ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ के बाद
कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा है। कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों के आपसी
अंतर्विरोध हैं। इन दलों का ज्यादातर
विकास कांग्रेस की ज़मीन पर और कांग्रेस की कीमत पर हुआ है। कांग्रेस की ताकत
बढ़ने का मतलब है, इनका क्षीण होना। आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से पिछले साल
गुजरात में कांग्रेस को नुकसान पहुँचाया, वह स्पष्ट है।
गठबंधन के बाकी दलों ने कांग्रेस से दूरी बनाना
तो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा
चुनाव के वक्त से ही शुरू कर दिया था, जब कांग्रेस ने
किसी भी क्षेत्रीय दल के साथ सीट शेयर करने से मना कर दिया था। नतीजे आने के बाद कांग्रेस
ने 6 दिसंबर को इंडिया गठबंधन की बैठक बुलाई तो कई क्षेत्रीय दलों ने इसमें शामिल
होने से मना कर दिया। अब धीरज साहू प्रकरण भी गठबंधन के दलों को कांग्रेस से दूर
करेगा। यह प्रकरण लोकसभा चुनाव के समय जोर पकड़ेगा और क्षेत्रीय-दल इससे बचना
चाहेंगे। धीरज साहू इस मामले में अभी तक मीडिया के सामने नहीं आए हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनसे पूछताछ में कई बड़े चेहरे उजागर होंगे।
नरेंद्र मोदी लगातार कांग्रेस पर हमलावर हैं। दो बार लोक सभा चुनाव हारने के बाद
भी धीरज साहू को राज्यसभा भेजने पर सवाल पूछे जा रहे हैं। इस प्रसंग की आँच से
अन्य दल बचना चाहते हैं।
विचारधारा
असली सवाल विचारधारा
या नैरेटिव से जुड़े हैं। देश की सांस्कृतिक-पृष्ठभूमि का विश्लेषण करने में
कांग्रेस-दृष्टि में दोष हैं। दूसरी तरफ बीजेपी के राष्ट्रवाद
के राजनीतिक-दायरे में सैद्धांतिक-विस्तार की प्रचुर-संभावनाएं हैं। विधानसभा
चुनावों के दौरान तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे ने सनातन धर्म को
लेकर जो बातें कहीं, उसकी नकारात्मकता कांग्रेस के खाते में आई। दूसरी तरफ
बीजेपी को परास्त करने की रणनीति ने धार्मिक और जातीय-ध्रुवीकरण का सहारा लिया,
जिसका लाभ मिलने के बजाय नुकसान हो रहा है।
दूसरी तरफ मुसलमानों के प्रगतिशील तबके को आगे
लाने या संकीर्ण बातों की आलोचना करने से कांग्रेस पार्टी बचती रही है। यह बात
1985 में शाहबानो मामले में स्पष्ट हो गई थी। तेलंगाना में भ्रष्टाचार और निरंकुश
शासन के विरोध में खड़े होने के कारण उसे जीत मिली है, धार्मिक-ध्रुवीकरण के कारण
नहीं।
मुस्लिम महिलाएं
जिस समय चुनाव परिणाम आ रहे थे, भाजपा
राष्ट्रीय प्रवक्ता सैयद ज़फ़र इस्लाम ने एक समाचार एजेंसी से कहा कि मध्य प्रदेश
में मुस्लिम महिलाओं ने भाजपा के पक्ष में जबरदस्त वोट किया है। प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने मुस्लिम महिलाओं के लिए जो काम किया है, उसका
नतीजा अब सामने आ रहा है और मुस्लिम महिलाओं ने बढ़-चढ़कर भाजपा को वोट किया है।
इस बयान के पीछे अतिरंजना हो सकती है, पर आंशिक
सच्चाई भी है। बीजेपी भी मुसलमानों के साथ जुड़ने की कोशिश कर रही है। उसने इसके
लिए महिलाओं की मदद ली है। लोकसभा के पिछले दो चुनावों में भी बीजेपी को
राष्ट्रीय-स्तर पर मुसलमानों के बीच से करीब 9 फीसदी वोट मिले थे और अब पार्टी की
कोशिश है कि अगले साल यह बढ़कर 16-17 प्रतिशत तक पहुँच जाए। पार्टी के कार्यकर्ता
देश के 65 ऐसे लोकसभा क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, जहाँ मुस्लिम आबादी 30 फीसदी
से ज्यादा है।
‘शुक्रिया मोदी जी’
देश के 22 राज्यों में ‘शुक्रिया
मोदी जी’ अभियान चल रहा है। अभियान के तहत प्रत्येक
जिले में अल्पसंख्यक मोर्चा की पांच-पांच महिलाओं की टीम बनाई गई है। यह टीम हर
मंडल में उन मुस्लिम महिलाओं को तलाश रही हैं, जो
मोदी सरकार की प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना,
सौभाग्य योजना, आयुष्मान भारत योजना, इज्जत घर या अन्य योजना की लाभार्थी हैं।
इन योजनाओं सहित तीन तलाक खत्म करने और राजनीति
में महिलाओं को आरक्षण देने के निर्णय के लिए ‘शुक्रिया मोदी जी’ पत्र के साथ उन लाभार्थियों के नाम, हस्ताक्षर
और फोन नंबर भेजे जा रहे हैं। उन पत्रों का पूरा लेखा-जोखा तैयार करते हुए एक डेटा
भी तैयार होता जा रहा है। बेशक इसकी वजह से कोई बड़ी क्रांति नहीं हो, पर एक धीमे
बदलाव की शुरुआत हो चुकी है।
भाजपा की नजरें अल्पसंख्यक वर्ग के उन सभी सदस्यों
पर है, जो सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ले रहे
हैं और जिनके जीवन में कुछ मुश्किलें कम हुई हैं। भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा ने
देशभर में मुस्लिम वर्ग के बीच 'मोदी मित्र' बनाना
शुरू किया। फिर सूफी संवाद शुरू किया और अब देश के 22
राज्यों में 'शुक्रिया मोदी जी' अभियान
चलाया जा रहा है।
'मोदी मित्र' अभियान
हाल में समाचार एजेंसी रायटर्स ने इस विषय पर
एक बड़ी रिपोर्ट जारी की, तो बहुत से लोगों का ध्यान इस तरफ गया कि 25,000 से
ज्यादा मुसलमान 'मोदी मित्र'
अभियान को सफल बनाने में जुटे हैं। इस साल अगस्त में नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी
के लोगों से कहा कि रक्षा बंधन के त्योहार के दौरान वे ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम
महिलाओं तक पहुँचें और उनसे राखी बँधवाएं। तीन तलाक पर पाबंदी लगाने के फैसले से
मुस्लिम महिलाओं में सुरक्षा की भावना बढ़ी है।
अपने संवाद-कार्यक्रम ‘मन की बात’ में उन्होंने
कहा कि 4,000 से ज्यादा मुस्लिम महिलाओं का ‘महरम’ के बिना हज करना एक ‘बड़ा
क्रांतिकारी बदलाव’ है। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार द्वारा हज नीति में किए गए
बदलावों की वजह से अब ज्यादा लोगों को हज पर जाने का मौका मिल रहा है।
अब एक नज़र इसबार के चुनाव-परिणामों
पर डालें
मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश में बीजेपी ने 230 में से 163 सीटों
पर जीत दर्ज की है। वहीं कांग्रेस को 66 सीटें मिली हैं। दिमनी से केंद्रीय मंत्री
नरेंद्र सिंह तोमर, नरसिंहपुर से केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद
पटेल, मऊगंज से प्रदीप पटेल, कालापीपल
से घनश्याम चंद्रवंशी, नेपानगर से मंजू राजेंद्र दादू और
रतलाम से चेतन कश्यप ने जीत दर्ज की है। वहीं शिवराज सरकार के एक दर्जन मंत्रियों
को हार का सामना करना पड़ा है। दूसरी ओर कांग्रेस के भी कई दिग्गज चुनाव हार गए
है। हारने वालों में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह,
पूर्व मंत्री जीतू पटवारी, सज्जन सिंह
वर्मा, पीसी शर्मा शामिल हैं। 2018 के चुनाव में इस
राज्य में कांग्रेस ने 230 में से 114 सीटें जीती थीं। शिवराज सिंह चौहान की सरकार
लगातार तीन बार सत्ता में रहने के बाद 109 पर सिमट गई। पर कुछ समय बाद ही
ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस का ग्वालियर-चंबल किला टूटकर
बीजेपी से जा मिला और शिवराज फिर से मुख्यमंत्री बन गए।
राजस्थान
बीजेपी ने राज्य में 115 सीटें जीतकर स्पष्ट
बहुमत पा लिया है। वहीं सत्ता में काबिज रही कांग्रेस पार्टी केवल 69 सीटें ही
जीतने में कामयाब रही। वहीं भारत आदिवासी पार्टी पहली बार राज्य में चुनाव लड़ी और
तीन सीटों पर जीत दर्ज की। राज्य में 200 में से 199 सीटों पर चुनाव हुआ था। एक
सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी के निधन हो जाने के कारण चुनाव टल गया है। 2018 में भी
199 सीटों पर चुनाव हुए थे।
छत्तीसगढ़
पहले माना जा रहा था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस
को आसानी से जीत मिल जाएगी, और एक्ज़िट पोल भी इसी तरफ इशारा कर रहे थे, पर सबसे
इसबार बड़ा आश्चर्य छत्तीसगढ़ में ही हुआ है। छत्तीसगढ़ में नक्सली उपस्थिति के
कारण चुनाव दो चरणों में हुआ है। पहले चरण में 20 सीटों पर 7 नवंबर को और शेष पर
25 को। कांग्रेस ने 90 में से 75 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य रखा था, पर मिलीं
35। बीजेपी को 54 सीटों पर जीत मिली। इसके साथ ही 5 साल बाद भाजपा ने प्रदेश की
सत्ता में वापसी की है। भाजपा ने यहां 2003 से 2018 तक लगातार 15 वर्षों तक राज
किया था, पर 2018 के चुनाव में उसे पराजय का सामना करना पड़ा। इसबार के चुनाव में
अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित 10 में से कांग्रेस को छह और भाजपा को चार
सीटें मिलीं। अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित 29 में से भाजपा को 16,
कांग्रेस 12 और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को एक सीट मिली।
तेलंगाना
तेलंगाना विधानसभा में कुल 119 सीटें हैं। 2018
में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में बीआरएस (तब टीआरएस) ने 46.9 प्रतिशत वोट लेकर 88
सीटों पर जीत हासिल की थी। तब कांग्रेस 28.4 प्रतिशत वोटों लेकर सिर्फ़ 19 सीटें
जीत पाई थी। इसबार कहानी बदल गई और बीआरएस की हार हो गई। 119 सदस्यीय राज्य
विधानसभा में कांग्रेस ने 64 सीटें जीती हैं, जबकि बीआरएस को 39 सीटों पर विजय
मिली। बीजेपी को 8 और एएमआईएम को 7 सीटें मिलीं।
मिज़ोरम
मिजोरम में 1987 के बाद से कभी कांग्रेस तो कभी
मिज़ो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) की सरकारें बनती रही हैं। इस बार राज्य पूर्व आईपीएस
लालदुहोमा के नेतृत्व में बने नए राजनीतिक दल ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट (ज़ीपीएम) को बहुमत
प्राप्त हुआ है। एमएनएफ के ज़ोरमथंगा अपनी सरकार को बचाने में नाकामयाब रहे। ज़ोरम
पीपुल्स मूवमेंट को 27 सीटों पर जीत मिली है। विधानसभा की 40 सीटों के लिए इसबार ज़ोरमथंगा
के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ नेशनल फ्रंट (एमएनएफ), ज़ोरम
पीपुल्स मूवमेंट (ज़ीपीएम) और कांग्रेस के बीच त्रिकोणीय मुकाबला था। 1987 में
राज्य का दर्जा प्राप्त करने के बाद से मिज़ोरम में परंपरागत रूप से दो-दलीय
प्रणाली थी, जिसमें कांग्रेस और एमएनएफ दो पार्टियां थीं,
लेकिन अब यहाँ की राजनीति में बदलाव आ चुका है। 2018 में हुए
विधानसभा चुनाव में बड़ा उलटफेर हुआ। मिज़ो नेशनल फ्रंट ने दस साल से काबिज़
कांग्रेस को हराकर राज्य की कमान संभाली, वहीं ज़ोरम पीपुल्स
मूवमेंट ने प्रमुख विपक्षी दल के रूप में अपनी जगह बनाई। मिज़ो नेशनल फ्रंट
(एमएनएफ) ने 26 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया। ज़ोरम पीपुल्स उम्मीदवारों ने
निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा और उन्हें छह सीटें मिलीं और कांग्रेस को पाँच।
इसबार के चुनाव में मिज़ो नेशनल फ्रंट और ज़ोरम पीपुल्स मूवमेंट और कांग्रेस ने
सभी 40 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। भाजपा ने 2018 के चुनावों में 39 सीटों पर
चुनाव लड़ा और एक सीट जीती थी। इसबार उसने 23 उम्मीदवारों को उतारा।
परिणाम एक नज़र में
राजस्थान 200 |
2018 सीटें (वोट प्रतिशत) |
2223 (वोट प्रतिशत) |
|
|
|
कांग्रेस |
100
(39.3) |
69
(39.53) |
भाजपा |
73
(38.8) |
115
(41.69) |
अन्य |
27 |
15 |
|
|
|
मध्य प्रदेश 230 |
|
|
|
|
|
कांग्रेस |
114 (40.9) |
66
(40.4) |
भाजपा |
109
(41.02) |
163
(48.55) |
अन्य |
07 |
01 |
|
|
|
छत्तीसगढ़ 90 |
|
|
|
|
|
कांग्रेस |
68
(43) |
35
(42.23) |
भाजपा |
15(33) |
54
(46.27) |
अन्य |
07 |
01 |
|
|
|
तेलंगाना 119 |
|
|
|
|
|
कांग्रेस |
19(28.4) |
64
(39.40) |
बीआरएस |
88(46.9) |
39
(37.35) |
भाजपा |
01(07) |
08
(13.9) |
एएमआईएम |
07(2.7) |
07
(2.22) |
|
|
|
मिजोरम 40 |
|
|
|
|
|
मिज़ो
नेशनल फ्रंट |
26(37.7) |
10
(35.1) |
ज़ोरम
पीपुल्स मूवमेंट |
08(22.9) |
27
(37.9) |
कांग्रेस
|
05(30) |
01
(20.8) |
भाजपा |
01(8.1) |
02
(5.1) |
भारत वार्ता में प्रकाशित
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