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Wednesday, October 18, 2023

दोतरफा समझदारी से हो सकता है फलस्तीन समस्या का समाधान


आसार इस बात के हैं कि गत 7 अक्तूबर से गज़ा पट्टी में शुरू हुई लड़ाई का दूसरा मोर्चा लेबनॉन में भी खुल सकता है. इसराइली सेना और हिज़्बुल्ला के बीच झड़पें चल भी रही हैं. लड़ाई थम भी जाए, पर समस्या बनी रहेगी. पिछली एक सदी या उससे कुछ ज्यादा समय से फ़लस्तीन की समस्या इतिहास की सबसे जटिल समस्याओं में से एक के रूप में उभर कर आई है.

ज़रूरत इस बात की है कि दुनिया इसके स्थायी समाधान के बारे में विचार करे. पहले राष्ट्र संघ, फिर संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के हस्तक्षेपों के बावजूद समस्या सुलझी नहीं है. जब भी समाधान का रास्ता दिखाई पड़ता है, कहीं न कहीं से व्यवधान पैदा हो जाता है.

समाधान क्या है?

अमेरिकी-पहल पर अरब देशों और इसराइल के बीच जिस समझौते की बातें इन दिनों हो रही हैं, क्या उसमें फलस्तीन के समाधान की भी कोई व्यवस्था है? ऐसा संभव नहीं है कि फलस्तीन की अनदेखी करके ऐसा कोई समझौता हो जाए. फिलहाल समझौते की कोशिश को धक्का लगा है, फिर भी सवाल है कि फलस्तीन की समस्या का समाधान क्या संभव है? संभव है, तो उस समाधान की दिशा क्या होगी?

दो तरह के समाधान संभव हैं. एक, गज़ा, इसराइल और पश्चिमी किनारे को मिलाकर एक ऐसा देश (वन स्टेट सॉल्यूशन) बने जिसमें फलस्तीनी और यहूदी दोनों मिलकर रहें और दोनों की मिली-जुली सरकार हो. सिद्धांततः यह आदर्श स्थिति है, पर इस समाधान के साथ दर्जनों किंतु-परंतु हैं. किसका शासन होगा, क्या अलग-अलग स्वायत्त इलाके होंगे, यरुसलम का क्या होगा वगैरह.

दूसरा है टू स्टेट समाधान  यानी एक देश इसराइल और दूसरा फलस्तीन. यह कमोबेश 1947 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव जैसा ही है, जिसमें यरुसलम को स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय नगर बनना था. इसराइल ने 1948 में हुए पहले युद्ध में शहर के पश्चिमी हिस्से पर कब्जा कर लिया. पूर्वी हिस्सा जॉर्डन के अधीन रहा. 1967 की लड़ाई में इसराइल ने पूर्वी यरुसलम पर भी कब्जा कर लिया. इसके बाद उसने अपनी बस्तियाँ पूर्वी यरूशलम में बसा दीं. इसी हिस्से में हरम-अस-शरीफ स्थित है, जिसमें अल-अक़्सा मस्जिद भी है. यहीं पर डोम ऑफ द रॉक (कुब्बत अल-सख़रा) है. इसी परिसर में यहूदियों का टेंपल माउंट स्थित है.

शांति का रोडमैप

समाधान तभी संभव है, जब इस इलाके का जनमत इसके पक्ष में हो और बाहरी ताकतें उससे सहमत हों. यानी कि आमराय बने. अन्यथा एक पक्ष समझौते का प्रयास करेगा, तो दूसरा उसमें अड़ंगा लगा देगा, जैसाकि अबतक होता आया है. 1993 के ओस्लो समझौते के बाद लगता था कि समाधान का छोर मिल गया है. वह फलस्तीनी प्राधिकरण की स्थापना से जुड़ा था.

पिछले तीस वर्षों में स्थितियाँ बिगड़ती चली गई. इसके पीछे एक तरफ इसराइली उग्र-राष्ट्रवाद और दूसरी तरफ फलस्तीनियों के बीच पनपे सशस्त्र-संगठन हमास की भूमिका है, जबकि समझौतों के लिए मध्यमार्गी विचारों की जरूरत होती है.

ओस्लो समझौते के बाद पश्चिम एशिया में शांति को लेकर उत्साह इतना बढ़ा कि 2002 में अमेरिका के विदेश विभाग के अधिकारी डोनाल्ड ब्लोम ने शांति का रोडमैप भी तैयार कर दिया, जिसमें अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, रूस और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका थी. 24 जून, 2002 को राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा, इसराइल के साथ-साथ एक स्वतंत्र फलस्तीन की स्थापना होनी चाहिए.

14 नवंबर को बुश प्रशासन ने उसका एक मसौदा जारी किया, जिसका अंतिम पाठ 30 अप्रेल, 2003 को जारी किया गया. 9/11 के बाद 2001 में जॉर्ज बुश के आतंकवाद के खिलाफ युद्ध के तहत शुरू हुई, यह परियोजना अपने पहले चरण में ही दम तोड़ गई और फिर दुबारा किसी ने उसका ज़िक्र नहीं किया.

लगभग उसी समय फलस्तीनियों का दूसरा इंतिफादाचल रहा था, जिसमें दोनों तरफ से हिंसा हो रही थी. उस दौर में इसराइली सेना ने फलस्तीनियों का जबर्दस्त दमन किया. जिन इलाकों का प्रशासन फलस्तीनी प्राधिकरण को मिलना चाहिए था, उन सब पर इसराइली सेना ने कब्जा कर लिया और रामल्ला में राष्ट्रपति यासर अरफात की वस्तुतः घेराबंदी कर दी.

बदलते नक्शे

1947 में फलस्तीन में इसराइल की स्थापना से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के फैसले की पूर्व संध्या पर, इस इलाके में करीब साढ़े 13 लाख फलस्तीनी अरब और लगभग साढ़े छह लाख यहूदी निवास कर रहे थे. यहूदियों के पास फलस्तीन की करीब छह फीसदी ज़मीन थी.

संरा महासभा ने जो नक्शा जारी किया था, उसमें यहूदी राज्य को करीब 56 फीसदी ज़मीन दी गई थी. 14 मई 1948 को इसराइल ने इस प्रस्ताव को मानते हुए अपनी स्थापना की घोषणा कर दी. फलस्तीनियों और पड़ोसी अरब देशों ने संयुक्त राष्ट्र के विभाजन प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया और उन्होंने इसराइल के इस नए राज्य पर हमला कर दिया, पर वे हार गए.

इसके बाद से इसराइल का नक्शा बदलता ही गया है. 1948 की हार के बाद आधे फ़लस्तीनी (लगभग साढ़े सात लाख) अपने ही देश के अंदर और बाहर शरणार्थी बन गए. आज उनकी संख्या तीस लाख से अधिक है. उन्हें अपने पुराने घरों में लौटने की कोई उम्मीद नहीं है, और ऐसा भी नहीं है कि पड़ोसी अरब देश उन्हें अपने नागरिक बना लें. वे इन देशों में शरणार्थी के रूप में रहते हैं.

निरंतर लड़ाई

1948 में अपनी हार के बाद, अरब देशों ने इसराइल के खिलाफ युद्ध जारी रखा और वे लगातार हारते रहे. इसराइल अपना अधिकार क्षेत्र बढ़ाता रहा. अंततः, समझौते की संभावना बनी 1978 में, जब मिस्र के साथ कैंप डेविड समझौता हुआ. इसकी परिणति 1993-95 के इसराइल और फलस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) के ओस्लो समझौते के रूप में हुई.

उम्मीद थी कि ओस्लो समझौते की बिना पर जो फलस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण (अथॉरिटी) बनेगा वही फलस्तीनी राष्ट्र बन जाएगा. पर ऐसा हुआ नहीं. एक तरफ इसराइल ने नए इलाकों में बस्तियाँ बनाना जारी रखा वहीं फलस्तीनी अथॉरिटी सफल साबित नहीं हुई.

इसराइल के साथ हुए समझौते के कारण यर्दन नदी के पश्चिमी किनारे पर फलस्तीनी प्राधिकरण (अथॉरिटी) का नियंत्रण पीएलओ के हाथ में आ गया. फिर भी फलस्तीनियों का आंदोलन (इंतिफादा) चलता रहा. पहला इंतिफादा 1987 में शुरू हुआ और 1993 में खत्म. इसके बाद 2000 में शुरू हुआ इंतिफादा पहले से कहीं ज्यादा खूनी था और चार साल तक चला.

इंतिफादा के दबाव में 2005 में इसराइल ने गज़ा पट्टी को भी छोड़ दिया. इस प्रकार गज़ा का प्रशासन भी अथॉरिटी के नियंत्रण में आ गया. पर इस दौरान फतह ग्रुप के प्रतिस्पर्धी के रूप में फलस्तीनियों का एक और समूह हमास खड़ा हो गया, जो हथियारबंद है.

हमास की स्थापना

हमास की स्थापना हालांकि 1987 में हो गई थी, पर उसे लोकप्रियता तब मिली, जब फतह ग्रुप अलोकप्रिय होने लगा. उसकी अलोकप्रियता के तमाम कारण थे. उसे इसराइल के प्रति नरम माना गया. फलस्तीनी प्राधिकरण सरकारी भ्रष्टाचार का शिकार भी हो गया. 2004 में यासर अरफात के निधन के बाद फतह गुट के पास करिश्माई नेतृत्व नहीं बचा. 

एक जमाने तक अरफात का गुट ही फलस्तीनियों का सर्वमान्य गुट था. उसने ही इसराइलियों के साथ समझौता किया था. पर प्रकारांतर से आक्रामक हमस गुट बड़ी तेजी से उभर कर आया, जिसने फतह पर इसराइल से साठगाँठ का आरोप लगाया.

फलस्तीनी प्राधिकरण

1994 में फलस्तीन राष्ट्रीय प्राधिकरण बना. मूलतः यह पाँच साल के लिए अंतरिम व्यवस्था थी, जिसे अंततः पूर्ण देश के रूप में तैयार होना था. उसके आगे वह प्रक्रिया नहीं बढ़ पाई. फलस्तीन को मुख्यधारा में लाने के प्रयास ऑस्लो समझौते के पहले से शुरू हो गए थे. अमेरिका ने फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र गैर-सदस्य पर्यवेक्षक देश के रूप में स्वीकार कर लिया था.

आज जॉर्डन नदी का पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र फतह के नियंत्रण में है और गज़ा पट्टी पर हमस का कब्जा है. फलस्तीनी प्राधिकरण का प्रभाव पश्चिमी किनारे तक सीमित है. 2006 में फलस्तीनी संसद के और 2008 में राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए थे. तब से स्थिति जस की तस है. फलस्तीन को पूरे देश का दर्जा देने की प्रक्रिया रुकी हुई है.

औपचारिक रूप से महमूद अब्बास फलस्तीन के राष्ट्रपति हैं, जिनके पास यासर अरफात की विरासत है. बावजूद इसके उनपर हमास और इसराइल के हमले होते हैं. मध्यमार्गी तबका कमजोर है. फलस्तीनी अथॉरिटी में जबर्दस्त भ्रष्टाचार है और हमास-नियंत्रित ग़ज़ा पट्टी में जीवन अराजक है.

अपनी तरफ से गज़ा की सीमा को मिस्र ने बंद कर रखा है. जबकि मिस्र फलस्तीनियों का हिमायती होता था. मिस्र ने ऐसा इसलिए किया, ताकि हमास की संस्कृति मिस्र में भी पहुँच जाए. दूसरी तरफ राजनीतिक संकटों के बावजूद  अब भी फलस्तीनियों और इसराइलियों के बीच मध्यस्थ की भूमिका मिस्र निभाता है.

एकता की कोशिशें

सवाल है कि इसराइल के साथ कभी कोई समझौता हुआ भी तो किसके नेतृत्व में होगा? अप्रेल 2014 में दोनों गुटों के बीच एकता का समझौता हुआ. हमास और फतह अस्थायी एकता सरकार गठित करने और चुनाव कराने की सहमति पर पहुंच गए थे और दोनों पक्षों ने दशकों पुरानी रंजिश खत्म करने की घोषणा की थी. यह सहमति मिस्र की मध्यस्थता में हासिल हुई थी.

बैठक में तय हुआ था कि सीमित जनादेश के साथ अस्थायी सरकार बनेगी, चुनाव की तारीख तय होगी. मिस्र इसके बाद सभी फलस्तीनी गुटों की काहिरा में एक बैठक बुलाएगा जिसमें सुलह समझौते पर हस्ताक्षर किए जाएंगे.

ऐसा हुआ नहीं, पर एकता प्रयासों की बैठकें होती रहीं. नवीनतम बैठक 13 अक्तूबर, 2022 को अल्जीयर्स में हुई थी, जिसमें फतह और हमास सहित फलस्तीनियों के 14 संगठनों ने राष्ट्रपति पद और संसद के चुनाव एक साल के भीतर कराने का फैसला किया था.

हमास का असर

2014 में महमूद अब्बास के एकता-प्रयास को इसराइल ने पसंद नहीं किया. उस समय भी इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू थे. उन्होंने आक्रोश के साथ कहा था कि अब्बास इसराइल के साथ शांति या हमस से दोस्ती में से किसी एक को चुनें.

नेतन्याहू ने यह भी कहा कि इस प्रकार के समझौते से हमास के लिए पश्चिमी तट पर भी नियंत्रण स्थापित करने का रास्ता साफ होगा जहाँ फलस्तीनी प्राधिकरण का मुख्यालय है. ऐसा हो भी रहा है. पश्चिमी किनारे पर हमास का प्रभाव बढ़ रहा है.

इसराइल चाहता था कि फतह गुट ग़ज़ा में सुरक्षा की जिम्मेदारी ले, जहाँ से हमास रॉकेट के वार करता है. एक बार को स्थिति नियंत्रण में हो तो पूर्ण फलस्तीन की स्थापना पर आगे बातचीत की जाए. फतह ने इसराइल को और इसराइल ने फलस्तीन को स्वीकार कर लिया है. जरूरी है कि इस विचार को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाया जाए.

अरब रुख में बदलाव

वर्तमान टकराव मई 2021 के टकराव का ही अगला रूप है. उस समय हमास ने इसराइल पर रॉकेटों से वार तभी किए थे. उस समय भी लग रहा था कि पश्चिम एशिया में स्थायी शांति के आसार पैदा हो रहे हैं. अरब देशों का इसराइल के प्रति कठोर रुख बदलने लगा था. तीन देशों ने उसे मान्यता दे दी थी और संभावना इस बात की थी कि सऊदी अरब भी उसे स्वीकार कर लेगा.

हिंसा से इस प्रक्रिया को धक्का लगा और अब उन अरब देशों को इसराइल से रिश्ते सुधारने में दिक्कत होगी, जिन्होंने हाल में इसराइल के साथ रिश्ते बनाए हैं. मई. 2021 के पहले हफ्ते में इसराइली सुरक्षा बलों ने यरुसलम के दमिश्क गेट पर फलस्तीनियों को जमा होने से रोका, जिसके कारण हिंसा भड़की.

अरब-इसराइल रिश्ते

अरब-इसराइल संबंध-सुधार के संकेत नवंबर, 2017 में तब मिले थे, जब इस आशय की खबरें आईं कि अरब देशों और इसराइल के बीच गुपचुप बातचीत चल रही है. 13-14 फरवरी 2019 को पोलैंड की राजधानी वॉरसा में अमेरिका की पहल पर पश्चिम एशिया सम्मेलन हुआ.

इसके बाद यह बात खुलकर सामने आ गई कि खाड़ी के देश इसराइल के साथ रिश्ते बेहतर बना रहे हैं. इस सम्मेलन में खासतौर से सऊदी अरब, यूएई और ओमान के प्रतिनिधियों की उपस्थिति थी. फिर 13 अगस्त, 2020 को अमेरिकी मध्यस्थता में अब्राहमिक समझौते की घोषणा हुई.

इसराइल और यूएई के साथ बाद में इसमें बहरीन भी शामिल हो गया. संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रपति शेख ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद ने 29 अगस्त को 48 साल पुराने 'इसराइल बहिष्कार क़ानून' को खत्म करने की घोषणा की, तो किसी को हैरत नहीं हुई.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

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