भारत-उदय-05
भारतीय विदेश-नीति की सबसे बड़ी परीक्षा अपने पड़ोसी देशों के साथ अच्छे रिश्ते कायम करने में है. दुर्भाग्य से अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम कुछ इस प्रकार घूमा है कि दक्षिण एशिया की घड़ी की सूइयाँ अटकी रह गई हैं. भारत ने दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय एकीकरण की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ‘नेबरहुड फर्स्ट नीति’ को अपनाया है. ‘नेबरहुड फर्स्ट’ का अर्थ अपने पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देने से है.
इस उदार दृष्टिकोण के बावजूद दक्षिण एशिया दुनिया के उन क्षेत्रों में शामिल है, जहाँ क्षेत्रीय-सहयोग सबसे कम है. हम आसियान के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट कर सकते हैं, पर दक्षिण एशिया में उससे कहीं कमतर समझौता भी पाकिस्तान से नहीं कर सकते. 1985 में बना दक्षिण एशिया सहयोग संगठन (दक्षेस) आज ठंडा पड़ा है. इसकी सबसे बड़ी वजह है कश्मीर.
चीन-फैक्टर
हमारी विदेश-नीति के सामने दक्षिण एशिया में
चीनी-प्रभाव का सामना करने की दूसरी बड़ी चुनौती है. यह चुनौती खासतौर से हिंद
महासागर क्षेत्र में चीनी गतिविधियों के बरक्स है. हमारे सबसे अच्छे रिश्ते इस समय
बांग्लादेश के साथ हैं. इसके पीछे बड़ा कारण है वहाँ अवामी लीग की सरकार और शेख
हसीना का नेतृत्व. वहाँ पाकिस्तान और चीन समर्थक और भारत-विरोधी प्रवृत्तियाँ भी
हैं.
2024 में बांग्लादेश में भी चुनाव हैं. चुनाव काफी
कुछ भविष्य के सहयोग की दिशा तय करेंगे. भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में चीन
बड़ा फैक्टर है. बांग्लादेश पर ही, बल्कि दक्षिण एशिया के
सभी देशों पर यह बात लागू होती है.
नकारात्मक-छवि
दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है.
शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है. मालदीव और
बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिन्दू-देश के रूप में देखता है. पाकिस्तान की पूरी
व्यवस्था ही ऐसा मानती है.
इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में
मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं. श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी
हिन्दू-व्यवस्था माना जाता है. हिन्दू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती
हैं. वहाँ मधेशियों को, श्रीलंका में तमिलों को और बांग्लादेश में हिन्दुओं
को भारत-हितैषी माना जाता है.
चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और
इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है. पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी
भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है. इस बात का प्रचार किया जाता है कि इस
इलाके में फ्री-ट्रेड से फायदा भारत को होगा.
भारतीय डिप्लोमेसी देर से जागी है. बहरहाल
चीन-पाकिस्तान रिश्तों को हम बदल नहीं सकते, पर नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका
और मालदीव से सुधार सकते हैं. मालदीव में इस समय जो सरकार है, उसके भारत के साथ
अच्छे रिश्ते हैं. वहीं नेपाल और श्रीलंका में भी सरकारें भी अब भारत-विरोधी नहीं
हैं.
भारतीय-प्रयास
इस साल फरवरी में विदेश राज्यमंत्री राजकुमार रंजन
सिंह ने संसद में बताया कि नेबरहुड फर्स्ट नीति के अंतर्गत भारत का अपने पड़ोसी
देशों के साथ व्यापार 2017-18 में 27.9 अरब डॉलर का था, जो 2021-22 में बढ़कर 41.6
अरब डॉलर हो गया.
भारत का दृढ़ मत है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास
तबतक नहीं हो सकेगा, जबतक कि उसके पड़ोस की अर्थव्यवस्थाओं का विकास नहीं होगा. दूसरे
शब्दों में हम ऐसा नहीं मानते कि हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ती चली जाए और पड़ोसी
देशों की अर्थव्यवस्थाएं कमज़ोर होती जाएं.
स्थिर और सुरक्षित माहौल में निरंतर संधारणीय आर्थिक
विकास हमारा अंतिम ध्येय है. इसकी अभिव्यक्ति भारत के ‘सागर’ (सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल इन द रीजन) अभियान में
होती है, जो अंततः देश की ‘समुद्री नीति’ है.
वैक्सीन-डिप्लोमेसी
हिंद-प्रशांत भारत की ‘स्ट्रैटजिक’ स्पेस है. फिर भी इसमें सबसे बड़ी भूमिका दक्षिण एशिया
के देशों की है. कोविड-19 महामारी के दौरान भारत ने
अपनी मानवीय भूमिका निभाते हुए पाकिस्तान के अलावा सभी पड़ोसी देशों के वैक्सीन की
सहायता दी.
हमारी
नौसेना वे नवंबर 2020 में सागर-1 के मार्फत कोमोरोस, मैडागास्कर, मालदीव और मॉरिशस
तक, फिर दिसंबर 2020 में सागर-2 के मार्फत जिबूती, इरीट्रिया, सूडान और दक्षिणी
सूडान तक मदद पहुँचाई गई. सितंबर 2021 में सागर-3 के मार्फत नौसेना के पोतों ने
वियतनाम को सहायता पहुँचाई. सागर-4 के अंतर्गत इंडोनेशिया, थाईलैंड और वियतनाम को
तथा सागर-5 के अंतर्गत अकालग्रस्त मोजाम्बीक को खाद्य सामग्री भेजी गई.
पाकिस्तान को चीन से पाँच लाख खुराकें वैक्सीन की मिली
थीं, पर वहाँ लोग चीनी वैक्सीन से संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने माँग की कि हमें भारत
से वैक्सीन माँगनी चाहिए. पाकिस्तान के औषधि नियामक ने सबसे पहले भारत के सीरम
इंस्टीट्यूट की वैक्सीन को स्वीकृति दी भी थी. बाद में विश्व स्वास्थ्य संगठन के
मार्फत उन्हें भारतीय वैक्सीन मिली भी थी. फिर भी भारत की हर पहल, हर प्रस्ताव पर सिर्फ विरोध करने की पाकिस्तानी आदत बदली नहीं है.
अज़ली-दुश्मन
पाकिस्तान में भारत को
अज़ली-दुश्मन माना जाता है. हमसे दुश्मनी निभाने के लिए उसने चीन की मदद करने का
कोई भी मौका खोया नहीं. पाकिस्तान और चीन के जिस आर्थिक गलियारे सीपैक की चर्चा इन
दिनों है, उसकी परिकल्पना 1950 के दशक में ही कर ली गई थी.
उस समय चीन के सबल नहीं होने के
कारण इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका. अलबत्ता 1962 की लड़ाई के एक साल बाद
ही पाकिस्तान ने कश्मीर में शक्सगम घाटी की 5,189 किमी जमीन चीन को सौंप दी. इसका
मतलब यह कि हमारे सामने अब एक नहीं, दो शत्रुओं से एकसाथ
सामना करने की चुनौती है.
दक्षेस पिछड़ा क्यों?
यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि तमाम तरह की दक्षताओं
के बावजूद दक्षिण एशिया को दुनिया के पिछड़े देशों में क्यों शुमार किया जाता है. दक्षेस
विफल क्यों हुआ? 2020 में जब
महामारी का प्रकोप शुरू हुआ, तब भारत की पहल पर सार्क देशों की
पहली बैठक मार्च में हुई, जिसमें मिलकर इस आपदा का सामना
करने की बातें हुईं. उस सम्मेलन में भी पाकिस्तानी प्रतिनिधि कश्मीर का उल्लेख
करने से नहीं चूके.
बावजूद राजनीतिक अवरोधों के हमारी तरफ से सद्भाव और
सहयोग में कमी नहीं रही. कारोबारी रिश्ते बेहतर बनाने के प्रयास भी हुए, पर
पाकिस्तान ने भारत को ‘तरज़ीही देश’ का दर्जा नहीं दिया, जो विश्व व्यापार संगठन की एक शर्त
थी.
2005 के बाद से भारतीय वैज्ञानिक अपने पड़ोसी देशों
के वैज्ञानिकों को मौसम की भविष्यवाणियों से जुड़ा प्रशिक्षण भी दे रहे हैं. अक्तूबर
2014 में भारतीय मौसम दफ्तर ने समुद्री तूफान नीलोफर के बारे में पाकिस्तान को समय
से जानकारियाँ देकर नुकसान से बचाया था. भारत ने दक्षिण एशिया उपग्रह की पेशकश की,
पाकिस्तान ने इनकार कर दिया.
स्वागत से शुरुआत
मोदी सरकार ने 2014 में शुरुआत पड़ोस के आठ
शासनाध्यक्षों के स्वागत के साथ की थी. पर दक्षिण एशिया में सहयोग का उत्साहवर्धक
माहौल नहीं बना. नवंबर, 2014 में काठमांडू के दक्षेस शिखर सम्मेलन में पहली
ठोकर लगी. उस सम्मेलन में दक्षेस देशों के मोटर वाहन और रेल संपर्क समझौते पर
सहमति नहीं बनी, जबकि पाकिस्तान को छोड़ सभी देश इसके लिए
तैयार थे. दक्षेस देशों का बिजली का ग्रिड बनाने पर पाकिस्तान सहमत हो गया था,
पर उस दिशा में भी कुछ हो नहीं पाया.
काठमांडू के बाद दक्षेस का अगला शिखर सम्मेलन नवंबर, 2016 में पाकिस्तान में होना था. भारत, बांग्लादेश
और कुछ अन्य देशों के बहिष्कार के कारण वह शिखर सम्मेलन नहीं हो पाया और उसके बाद
से गाड़ी जहाँ की तहाँ रुकी पड़ी है.
माइनस पाकिस्तान
इसके बाद भारतीय राजनय में बदलाव आया. ‘माइनस
पाकिस्तान’ अवधारणा बनी. दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के रास्ते खोजने शुरू हुए.
फरवरी 2019 में पुलवामा और बालाकोट की घटनाओं के बाद और फिर जम्मू-कश्मीर में
अनुच्छेद 370 के निष्क्रिय होने के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट
अपने उच्चतम स्तर पर है.
काठमांडू सम्मेलन के बाद से भारत ने ‘माइनस
पाकिस्तान’ अवधारणा पर काम करना शुरू कर दिया और दक्षेस से बाहर जाकर सहयोग के
रास्ते खोजने शुरू हुए. शुरुआत 15 जून 2015 को थिंपू में हुए बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल मोटर
वेहिकल एग्रीमेंट (बीबीआईएन) से हुई.
भारत साउथ एशिया सब रीजनल इकोनॉमिक को-ऑपरेशन संगठन
में शामिल हुआ. इसमें भारत के अलावा बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका सदस्य हैं. इसी तरह बे ऑफ
बंगाल इनीशिएटिव फॉर टेक्नीकल एंड इकोनॉमिक कोऑपरेशन (बिमस्टेक) में भारत के अलावा
बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका
के अलावा म्यांमार तथा थाईलैंड भी हैं.
मौके गँवाए
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण
एशिया के देशों के साथ भारत का व्यापार उसके सकल विदेशी व्यापार का 4 फीसदी से भी
कम है. यह स्थिति अस्सी के दशक से है. जबकि इस दौरान चीन ने इस इलाके में अपने
निर्यात में 546 फीसदी की वृद्धि की है. सन 2005 में इस इलाके के देशों में उसका
निर्यात 8 अरब डॉलर का था, जो 2018 में 52 अरब डॉलर हो गया था.
दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे कम जुड़ाव वाला
(इंटीग्रेटेड) क्षेत्र है. कुछ साल पहले श्रीलंका में हुई सार्क चैम्बर ऑफ कॉमर्स
एंड इंडस्ट्री की बैठक में कहा गया कि दक्षिण एशिया में कनेक्टिविटी न होने के
कारण व्यापार सम्भावनाओं के 72 फीसदी मौके गँवा दिए जाते हैं.
इस इलाके के देशों के बीच 65 से 100 अरब डॉलर तक का
व्यापार हो सकता है. ये देश परम्परा से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं. यह क्षेत्र
बड़ी आसानी से एक आर्थिक ज़ोन के रूप में काम कर सकता है. पर इसकी परंपरागत कनेक्टिविटी
राजनीतिक कारणों से खत्म हो गई है. यह जुड़ाव आज भी सम्भव है, पर धुरी के बगैर यह जुड़ाव सम्भव नहीं. यह धुरी भारत ही हो सकता है,
चीन नहीं.
आसियान से जुड़ते तार
भारत आसियान का डायलॉग पार्टनर है. हम मीकांग-गंगा
सहयोग समूह में भी शामिल हैं, जिसमें भारत के अलावा म्यांमार,
थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया
और लाओस सदस्य हैं. मीकांग-गंगा सहयोग समूह इंफ्रास्ट्रक्चर, खासतौर पर हाईवे निर्माण और व्यापार के लिहाज से महत्वपूर्ण साबित हो सकता
है.
परिवहन लागत कम होने से भारत की सम्पूर्ण दक्षिण
एशिया के साथ कनेक्टिविटी बढ़ सकती है. आकर्षक विचार होने के बावजूद इस समूह की
गतिविधियाँ बहुत धीमी हैं, पर सम्भावनाएं काफी बड़ी हैं. म्यांमार से होकर
दक्षिण पूर्व एशिया के देशों को जोड़ने वाली दो बड़ी हाइवे परियोजनाओं पर काम चल
रहा है, जिनमें जापान और चीन की भागीदारी भी है.
म्यांमार की भूमिका
ऐतिहासिक कारणों से म्यांमार दक्षिण के बजाय दक्षिण
पूर्व एशिया का हिस्सा बन गया है, पर वह दोनों के बीच है. दुनिया की दो
सबसे तेज गति से विकसित होती अर्थ-व्यवस्थाएं उसकी पड़ोसी हैं. भारत के साथ उसकी
1700 किलोमीटर लंबी और चीन के साथ 2000 किलोमीटर लंबी सीमा है.
उसके पास खनिज तेल है, पर तेलशोधन की
व्यवस्था नहीं है. भारत इसमें मदद कर सकता है. भारत-म्यांमार-थाईलैंड को जोड़ने
वाले 3200 किलोमीटर लम्बे हाईवे के निर्माण का काम चल रहा है. गुवाहाटी से शुरू
होकर यह रास्ता बैंकॉक तक जाएगा. अंततः यह परियोजना एशियन हाईवे की परिकल्पना को
साकार करेगी.
भविष्य में भारत से कम्बोडिया-लाओस तक प्रस्तावित
राजमार्ग भी म्यांमार से होकर गुजरेगा. एक रास्ता दक्षिण चीन से कोलकाता तक लाने
की योजना है. म्यांमार की राजनीतिक व्यवस्था में आंग सान सू ची सबसे महत्वपूर्ण
नेता बनकर उभरी थीं, पर दो साल पहले सेना ने उनका तख्ता-पलट करके फिर से जेल में
डाल दिया है.
संरा में बदमज़गी
हर साल संयुक्त राष्ट्र महासभा के हाशिए पर दक्षेस
देशों के विदेशमंत्रियों की एक बैठक हुआ करती थी. पिछले दो साल से यह बैठक नहीं हो
रही है. हर साल पिछले साल की तुलना में कड़वाहट ज्यादा होती है.
महासभा का 78वाँ सत्र इस साल आज यानी 5 सितंबर को शुरू
हो रहा है. 19 सितंबर से सालाना चर्चा शुरू होगी, जिसमें सभी देशों के नेता बयान
देंगे. बयान तो होंगे, दक्षेस की बैठक होगी या नहीं होगी, पता नहीं. पिछले कुछ
वर्षों में पाकिस्तान के बयानों में बहुत ज्यादा तल्खी है.
यह तल्खी अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद
370 की वापसी के बाद नाटकीयता की हद को भी पार कर गई. उस साल पाकिस्तान के तत्कालीन
प्रधानमंत्री इमरान खान ने तैश, आवेश और धमकियों की झड़ी लगा दी.
उन्होंने धमकी दी कि कर्फ्यू हटने पर कश्मीर में खून-खराबा होगा. एटम बम का
इस्तेमाल भी हो सकता है वगैरह-वगैरह.
आवाज़
द वॉयस में 5 सितंबर,
2023 को प्रकाशित
अगले अंक में पढ़ें इस श्रृंखला का छठा लेख:
भारत क्या एक दशक में सुपर-पावर बनेगा?
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