पृष्ठ

Tuesday, August 15, 2023

चंद्रयान पर सवार साइंस-टेक्नोलॉजी की सफलताएं


आजादी के सपने-06

चंद्रयान-3 ने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश कर लिया है. अब वह धीरे-धीरे निकटतम कक्षा में उतरता जा रहा है और सब ठीक रहा, तो 23 या 24 अगस्त को चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट-लैंडिंग करेगा. यह अभियान अपने विज्ञान-सम्मत कार्यों के अलावा दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने का काम करेगा.

चंद्रयान-3 के अलावा भारत इस साल सूर्य के अध्ययन के लिए अंतरिक्ष अभियान भेजने जा रहा है. आदित्य-एल1 भारत का पहला सौर अभियान है. यह यान सूरज पर नहीं जाएगा, बल्कि धरती से 15 लाख किलोमीटर की दूरी से सूर्य का अध्ययन करेगा. एल1 या लॉन्ग रेंज पॉइंट धरती और सूर्य के बीच वह जगह है जहां से सूरज को बग़ैर किसी ग्रहण के अवरोध के देखा जा सकता है. इसके कुछ समय बाद ही हम गगनयान मिशन के परीक्षणों की खबरें सुनेंगे. पहले मानव रहित परीक्षण होंगे और उसके बाद तीन अंतरिक्ष-यात्रियों के साथ वास्तविक उड़ान होगी.

एटमी शक्ति से चलने वाली भारतीय पनडुब्बी अरिहंत नौसेना के बेड़े में शामिल हो चुकी है. नए राजमार्गों का दौर शुरू हो चुका है. दिल्ली-मेरठ हाईस्पीड ट्रेन के साथ एक नया दौर शुरू होगा, जिसका समापन बुलेट ट्रेनों के साथ होगा. तबतक प्रायः सभी बड़े शहरों में मेट्रो ट्रेन चलने लगेंगी. देश की ज्ञान-आधारित संस्थाओं को जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हाईस्पीड नेशनल नॉलेज नेटवर्क काम करने लगा है. इसके साथ सफलताओं की एक लंबी सूची है.

‘टॉप तीन’

जनवरी 2017 में तिरुपति में 104वीं भारतीय साइंस कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत 2030 तकनीकी विकास के मामले में दुनिया के ‘टॉप तीन’ देशों में शामिल होगा. देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम को ही केंद्र बनाकर चलें, तो ‘टॉप तीन’ तो ‘टॉप चार’ या ‘टॉप पाँच’ में अपने आपको शामिल कर सकते हैं, पर विज्ञान और तकनीक का विकास केवल अंतरिक्ष-कार्यक्रम तक सीमित नहीं होता.

व्यावहारिक नजरिए से अभी हम शिखर देशों में शामिल नहीं हैं. विश्व क्या एशिया में जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ताइवान, इसरायल और सिंगापुर के विज्ञान का स्तर हमसे बेहतर नहीं तो, कमतर भी नहीं है. वैज्ञानिक अनुसंधान पर हमारे कुल खर्च से चार गुना ज्यादा चीन करता है और अमेरिका 75 गुना. फिर भी इसरो के वैज्ञानिकों को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने मंगलयान और चंद्रयान जैसे कार्यक्रम बहुत कम लागत पर तैयार करके दिखाया है.

नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन में ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कही कि कल के विशेषज्ञ पैदा करने के लिए हमें आज अपने लोगों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर निवेश करना होगा. आज हमारे पास 23 आईआईटी और 31 एनआईटी हैं. तीन हजार से ज्यादा दूसरे इंजीनियरी कॉलेज, पॉलीटेक्नीक और स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर एंड प्लानिंग हैं. इनसे पढ़कर करीब पाँच लाख इंजीनियर हर साल बाहर निकल रहे हैं.

नए भारत के बिल्डिंग ब्लॉक

प्रधानमंत्री ने हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय के शताब्दी समापन समारोह में कहा, आज पूरे देश में विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का निर्माण हो रहा है. पिछले कुछ वर्षों में आईआईटी, आईआईएम, एनआईटी, एम्स जैसे शैक्षणिक संस्थानों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ये संस्थान नए भारत के बिल्डिंग ब्लॉक है.

आधुनिक विज्ञान की क्रांति यूरोप में जिस दौर में हुई उसे ‘एज ऑफ डिसकवरी’ कहते हैं. ज्ञान-विज्ञान आधारित इस क्रांति के साथ भी भारत का सम्पर्क एशिया के किसी दूसरे समाज के मुकाबले सबसे पहले हुआ. जगदीश चन्द्र बोस को आधुनिक भारत का पहला प्रतिष्ठित वैज्ञानिक मान सकते हैं. उन्हें भौतिकी, जीवविज्ञान, वनस्पति विज्ञान तथा पुरातत्व का गहरा ज्ञान था. वे देश के पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने एक अमेरिकन पेटेंट प्राप्त किया.

जगदीश चन्द्र बोस के साथ प्रफुल्ल चन्द्र राय भी हुए, जिन्होंने देश की पहली फार्मास्युटिकल कम्पनी बनाई. सन 1928 में सर सीवी रामन को जब नोबेल पुरस्कार मिला तो यूरोप और अमेरिका की सीमा पहली बार टूटी थी.

पहल के बावजूद

सन 1945 में जब मुम्बई में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई थी तब विचार यही था कि आधुनिक भारत विज्ञान और तकनीक के सहारे उसी तरह आगे बढ़ेगा जैसे यूरोप बढ़ा. पर ऐसा हुआ नहीं. अमेरिका और यूरोप की बात छोड़िए हम चीन से काफी पीछे चले गए हैं.

इंडियन साइंस एसोसिएशन सन 1914 से काम कर रही है. जनवरी, 2013  में कोलकाता में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के साथ इसका शताब्दी-वर्ष शुरू हुआ. उसके एक साल पहले भुवनेश्वर में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि हम विज्ञान और तकनीक में चीन से पिछड़ गए हैं.

विसंगतियाँ

जनवरी 2008 में जब टाटा की नैनो पहली बार दुनिया के सामने पेश की गई तब वह एक क्रांति थी. जिस देश में सुई भी नहीं बन रही थी उसने दुनिया की सबसे कम लागत वाली कार तैयार करके दिखा दी. दूसरी ओर 2013 में उत्तराखंड में और इस साल हिमाचल प्रदेश में वर्षा और बाढ़ से जुड़ी त्रासदी को हमने देखा.

दोनों बातें बता रही हैं कि हम सब कुछ करने में समर्थ हैं, काम इतना बड़ा है कि खामियाँ रह जाती हैं. फिर भी हिमालयी आपदाओं ने हमारी विज्ञान-दृष्टि पर सवाल उठाए हैं. दोनों बातें वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से जुड़ी हैं. दोनों की विसंगतियों पर हमें ध्यान देना चाहिए.

इनोवेशन का महत्व

अमेरिका की प्रगति के पीछे है इनोवेशन यानी नवोन्मेष. पिछले दो सौ साल में अमेरिकी व्यवस्था इन्हीं बातों के सहारे बढ़ी. अमेरिका ने सारी दुनिया के विशेषज्ञों को अपने यहाँ बुलाया. हालांकि यूरोप ने दुनिया को बड़े वैज्ञानिक दिए, पर संकट काल में यूरोप के वैज्ञानिक भी अमेरिका चले गए.

अलेक्जेंडर ग्राहम बैल, चार्ल्स स्टाइनमेट्ज़, व्लादिमीर ज्वोरीकिन, निकोला टेस्ला, अल्बर्ट आइंस्टीन और एर्निको फर्मी जैसे वैज्ञानिक अपने देश छोड़कर वहाँ गए. उस समाज में तमाम खामियाँ हैं, पर वहाँ मेरिट और काम का सम्मान है. दुनिया के आधे नोबेल पुरस्कार अमेरिका के लोगों को मिले हैं.

हमारी उपलब्धियाँ

विज्ञान और वैज्ञानिकता पूरे समाज में होती है. सीवी रामन, रामानुजम, होमी भाभा और विक्रम साराभाई जैसे कई नाम हम खोज सकते हैं. पर व्यक्तिगत उपलब्धियों के मुकाबले असली कसौटी पूरा समाज होता है.

पिछले 76 वर्षों में भारत ने भी सफलताएं हासिल की हैं. हरित क्रांति, अंतरिक्ष कार्यक्रम, एटमी ऊर्जा कार्यक्रम, दुग्ध क्रांति, दूरसंचार और सॉफ्टवेयर उद्योग इनमें शामिल हैं. सफलता के बुनियादी आधार हैं आर्थिक प्रतियोगी व्यवस्था, विज्ञान, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था, उपभोक्ता की चेतना और काम का माहौल.

2012 भुवनेश्वर में राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि हम विज्ञान और तकनीक में चीन से पिछड़ गए हैं. हमारे सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी पैसा भी विज्ञान और तकनीक में नहीं लगता. हमारी तुलना में दक्षिण कोरिया कहीं आगे है जो जीडीपी की 4 फीसदी से ज्यादा राशि अनुसंधान पर खर्च करता है.

विज्ञान-दृष्टि

बेशक विज्ञान और तकनीक से जुड़े तमाम कार्यक्रमों में हम सफलता के झंडे गाड़ेंगे, पर केवल उनसे ही हम दुनिया के टॉप तीन में शामिल नहीं हो जाएंगे. सबसे महत्वपूर्ण है वह विज्ञान-दृष्टि जो हमें आगे ले जाएगी. उसके लिए अंधविश्वासों के अंधियारे से बाहर निकलना होगा. दूसरी ओर अपनी शिक्षा के स्तर को वैश्विक स्तर पर ले जाना होगा.

कुछ लोग विज्ञान को तकनीक का समानार्थी मानने की भूल करते हैं. विज्ञान वस्तुतः प्रकृति को जानने–समझने की पद्धति है. वह हमें नैतिक और मानवीय बनाता है. नरेंद्र मोदी ने तिरुपति में कहा, ‘जिस उभरते भारत को हम देख रहे हैं उसका रास्ता साइंस की मदद से ही हम पार कर सकते हैं.’ उन्होंने सच कहा, पर हमें इस बात को ज़मीन पर उतारना होगा.

आईआईटी-क्रांति

भारतीय विज्ञान की संरचना पर एक नज़र डालें. स्वतंत्रता के बाद भारतीय नेतृत्व ने उच्च-शिक्षा में विज्ञान और तकनीक पर ध्यान दिया. इसके लिए चालीस के उत्तरार्ध में विद्वानों और उद्यमियों की एक 22 सदस्यीय समिति ने अमेरिका के मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के तर्ज पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) खोलने का सुझाव दिया.

18 अगस्त 1951 को शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में पहले देश के पहले आईआईटी का उद्घाटन किया. इसके बाद पचास और साठ के दशक में बॉम्बे, मद्रास और दिल्ली के आईआईटी खुले. इनके अलावा रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज (आरईसी) खोले गए, जिन्हें अब हम नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) कहते हैं.

पचास और साठ के दशक में भाभा रिसर्च सेंटर, परमाणु ऊर्जा आयोग, इनकोस्पार (जिसका बाद में नाम इसरो हो गया), डीआरडीओ और तमाम वैज्ञानिक संस्थाओं का जन्म हुआ. नाभिकीय ऊर्जा से जुड़े अनुसंधान हालांकि हमारे यहाँ कापी पहले शुरू हो गया था, पर राजनीतिक कारणों से हमने नाभिकीय परीक्षण करने में देरी की. बहरहाल 18 मई, 1974 को भारत ने नाभिकीय परीक्षण भी कर लिया.

1981 में भारत ने अंटार्कटिक कार्यक्रम शुरू किया और गोवा से पहला अभियान दल रवाना किया. वहाँ दक्षिण गंगोत्री नाम से एक बेस स्टेशन तैयार किया. तबसे अब तक लगातार भारतीय अभियान दल वहाँ जा रहे हैं और इस समय वहाँ भारत के तीन बेस स्टेशन हैं: दक्षिण गंगोत्री, मैत्री और भारती.

साइंस पॉलिसी

भारत ने 1958 में अपनी साइंस पॉलिसी की घोषणा की. उसके बाद 1983 में टेक्नोलॉजी पॉलिसी, फिर 2003 में साइंस एंड टेक्नोलॉजी पॉलिसी घोषित की, 2013 में साइंस, टेक्नोलॉजी एंड इनोवेशन पॉलिसी की घोषणा की. इसके बाद 2022 में पाँचवीं साइंस, टेक्नोलॉजी एंड इनोवेशन पॉलिसी का निर्माण किया. वस्तुतः परिस्थितियाँ तेजी से बदल रहीं हैं और संरचनात्मक बदलाव बहुत तेजी से हो रहे हैं.

पिछले दो दशक में भारतीय-विज्ञान का रास्ता काफी व्यापक हो गया है. 2000 से 2015 के बीच देश में वैज्ञानिक शोधपत्रों की संख्या चार गुना बढ़ी है. कुल संख्या में हमारे वैज्ञानिकों ने रूस और फ्रांस को भी पीछे छोड़ दिया है. पर चीन और ब्राजील से तैयार होने वाले शोधपत्रों की संख्या और ज्यादा है. संख्या से ज्यादा महत्व गुणवत्ता का है.

अभी हमारे शोधपत्रों का उल्लेख उतना नहीं होता, जितने की अपेक्षा है. फिर भी यह कम संतोष की बात नहीं है कि 2022 के ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में हमारी रैंक 40वीं है, जो 2018 में 81 वीं थी. साथ में यह भी देखें कि चीन का रैंक 11 और सिंगापुर का 7 है. बहरहाल तेजी से यह अंतर कम हो रहा है.

विज्ञान की उपयोगिता

हाल में गुजरात में आया बिपरजॉय (या विपर्यय) तूफान हज़ारों की जान लेता, पर मौसम विज्ञानियों को अंतरिक्ष में घूम रहे उपग्रहों की मदद से सही समय पर सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया. अक्टूबर 1999 में ओडिशा में आए ऐसे ही एक तूफान में 10 हजार से ज्यादा लोग मरे थे.

अंतरिक्ष-अनुसंधान के साथ जुड़ी अनेक तकनीकों का इस्तेमाल चिकित्सा, परिवहन, संचार यहाँ तक कि सुरक्षा में होता है. विज्ञान की खोज की सीढ़ियों की तरह  है. हम जितनी ऊँची सीढ़ी से शुरुआत करेंगे, उतना अच्छा. इन खोजों को बंद करने से सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को तेजी मिल जाए, तो फिर क्या कहना

बेंगलुरु शहर देश की टेक्नोलॉजिकल राजधानी की शक्ल लेता जा रहा है. वहाँ इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के अलावा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, बायोटेक्नोलॉजी, एयरोस्पेस, नाभिकीय ऊर्जा, ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग, कंप्यूटर साइंस और मेडिकल साइंस से जुड़ी अनेक संस्थाएं काम कर रही हैं. ऐसे हब हमें और चाहिए.

आर्टेमिस समझौता

नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा के दौरान भारत के आर्टेमिस समझौते में शामिल होने की घोषणा हुई थी. इसके तहत नासा और इसरो अब ह्यूस्टन, टेक्सास के जॉनसन स्पेस सेंटर से प्रशिक्षित भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को 2024 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भेजने के लिए कार्य करेंगे.

आर्टेमिस समझौता संस्थापक देशों ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इटली, जापान, लक्ज़ेम्बर्ग, संयुक्त अरब अमीरात और यूनाइटेड किंगडम के साथ अमेरिकी विदेश विभाग और नासा ने वर्ष 2020 में किया था. इसका उद्देश्य चंद्रमा, मंगल, धूमकेतुओं, क्षुद्रग्रहों तथा बाहरी अंतरिक्ष का अध्ययन करना है.

इस कार्यक्रम के तहत, आर्टेमिस-1 अंतरिक्ष यान पिछले साल चांद पर जाकर वापस लौटा था. भविष्य के आर्टेमिस अभियान के तहत नासा 2026 तक इंसानों को चांद पर उतारने की योजना पर काम कर रहा है.

अगले अंक में पढ़ें: आंतरिक और वाह्य सुरक्षा की चुनौतियाँ

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

 

 

 

 

No comments:

Post a Comment