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Tuesday, August 29, 2023

गठबंधन ‘इंडिया’ की मुंबई बैठक के मुद्दे


हाल में बने नए राजनीतिक गठबंधन इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस) की इस हफ्ते मुंबई में होने वाली तीसरी बैठक एक तरफ इसके राजनीतिक विचार को स्पष्ट करने और संगठनात्मक आधार को मजबूत करने का काम करेगी, वहीं इसके अंतर्विरोध भी खुलेंगे। 31 अगस्त और 1 सितंबर को दो दिन चलने वाली इस महाबैठक में गठबंधन के लोगो को लॉन्च करने की योजना भी है। गठबंधन के नाम के बाद इस गतिविधि का महत्व प्रचारात्मक ज्यादा है। ज्यादा बड़ा काम अभी तक नेपथ्य में ही है। वह है उस गणित की रूपरेखा, जिसपर यह गठबंधन खड़ा होने वाला है।

दो महत्वपूर्ण सवालों के जवाब भी इस बैठक में मिलेंगे। क्या यह गठबंधन राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में होने वाले विधानसभा चुनावों में एक होकर उतरेगा या यह गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव के लिए बन रहा है? दूसरे चुनाव में अलग-अलग चुनाव-चिह्नों के साथ इसकी एकरूपता किस प्रकार से व्यक्त होगी? कुछ पहेलियाँ और हैं। मसलन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के रिश्ते। क्या आम आदमी पार्टी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में उतरेगी? अकेले या कांग्रेस के सहयोगी दल के रूप में? क्या लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी गुजरात में उसे सीटें देगी? ऐसे ही सवाल बंगाल की राजनीति को लेकर हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी खुद पहेली बनी हुई है।

इस तीसरी बैठक के आयोजक शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे हैं। बताया जा रहा है कि इस बैठक में कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे शामिल होंगे। इस बात की संभावना है कि इस बैठक में 27-28 दल तक शामिल हो सकते हैं। संभवतः पूर्वोत्तर के कुछ नए दल इस गठबंधन में शामिल होने की घोषणा करें। मुंबई में गठबंधन के कुछ पदाधिकारियों के नाम सामने आएंगे। संभवतः राष्ट्रीय-संयोजकों के रूप में दो नामों की घोषणा होगी। संयोजन या समन्वय समिति के रूप में कुछ और नामों की घोषणा भी की जा सकती है। इसके अलावा गठबंधन की राजनीतिक विचारधारा का प्रारूप भी सामने आने की आशा है।

बैठक में सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों के अलावा अनेक पूर्व मुख्यमंत्रियों के शामिल होने की संभावना है। इस लिहाज से यह बड़ा आयोजन होगा। बैठक से पहले एनसीपी के नेता शरद पवार और उद्धव ठाकरे के बीच इस सिलसिले में बैठक भी हुई है। संसद के मानसून सत्र के दौरान गठबंधन ने जाति जनगणना, मणिपुर हिंसा से लेकर राज्यपालों और एलजी की भूमिका यानी संघ-राज्य संबंधों जैसे मुद्दों पर केंद्र सरकार को घेरा था। देखना होगा कि इनके अलावा इस गठबंधन की झोली में और क्या है।

2024 के चुनाव की तुलना 1971, 1977 और 1989 के चुनावों से की जा सकती है, जब विरोधी दलों ने किसी न किसी रूप में गठबंधन किए थे। 1971 में विपक्षी गठबंधन ने एक मजबूत प्रधानमंत्री को हराने की कोशिश की थी, पर हरा नहीं पाया। 1977 और 1989 में उसने जीत हासिल की, पर वह ज्यादा समय तक टिका नहीं। क्यों नहीं टिका और आज की परिस्थितियाँ क्या उपरोक्त तीनों अवसरों से अलग हैं, इन बातों पर भी विचार करना चाहिए। 1971 में विरोधी दलों का नारा था: इंदिरा हटाओ। इंदिरा गांधी ने इसके मुकाबले में गरीबी हटाओ का नारा दिया था। वह नारा ज्यादा आकर्षक साबित हुआ।

देखना यह है कि इस समय विरोधी दल क्या मोदी हटाओ नारे के साथ चुनाव में उतरेंगे या किसी सकारात्मक कार्यक्रम को लेकर आएंगे। मोदी हटाओ का एक अर्थ यह भी है कि देश को अब भावी नेता चाहिए। सच है कि मोदी की उम्र भी हो चली है। आज नहीं तो कल देश को नए नेता की जरूरत होगी। बीजेपी और विरोधी दलों के भीतर से वैकल्पिक नेता उभरते हुए दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। पर विकल्प तभी सामने आता है, जब जरूरत पड़ती है। लाल बहादुर शास्त्री को कितने लोगों ने भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखा था? इंदिरा गांधी को कितने लोगों ने नेहरू का उत्तराधिकारी माना था? उन दिनों सबसे बड़ा सवाल ही यही होता था कि आफ्टर नेहरू हू?

अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। अलबत्ता विरोधी दलों ने सांप्रदायिकता, नेतृत्व की निरंकुशता, अहंकार और संस्थाओं के दुरुपयोग जैसी कुछ बुनियादी बातों की ओर ध्यान खींचने की कोशिश की है। उन्हें बताना होगा कि मोदी को हटाने की उनकी बात पर मतदाता यकीन क्यों करें और इस गठबंधन के एक बने रहने की गारंटी क्या है। यह गठबंधन निजी आरोपों को महत्व देगा या वैचारिक आधार पर चुनाव में उतरेगा? ऐसा है, तो वह वैचारिक आधार क्या है? उसका आर्थिक-दर्शन क्या है?

उन्हें यह भी देखना होगा कि मतदाताओं का कौन सा वर्ग मोदी या बीजेपी का समर्थक है और कौन सा वर्ग ऐसा है, जो अपेक्षाकृत खामोश है और जिसे अपनी तरफ खींचा जा सकता है। विरोधी दल जीत की उम्मीद कर रहे हैं, तो उन्हें केवल सरकार की आलोचना से आगे बढ़ना होगा और एक बेहतर विकल्प के रूप में खुद को पेश करना होगा। यह काम आसान नहीं है। सायास या अनायास वे मोदी के खिलाफ किसी एक चेहरे को उतारने की स्थिति में नहीं हैं। फिर भी कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कहना शुरू कर दिया है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना चाहिए।

बहुत से स्वतंत्र पर्यवेक्षक भी मानते हैं कि राहुल गांधी परिपक्व राजनेता के रूप में उभर कर आए हैं और उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में सामने आना चाहिए। क्या कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व भी ऐसा मानता है? क्या इंडिया के सहयोगी दल भी इसे स्वीकार करेंगे? प्रत्यक्षतः कांग्रेस पार्टी इस गठबंधन की धुरी है, और धुरी बने रहने की कोशिश में वह ऐसी गतिविधियों से बच रही है, जिससे ऐसा न लगे कि वह बड़े भाई की भूमिका में है। पर ऐसा भी लगता है कि कांग्रेस को मजबूत बनाए बगैर बीजेपी को हटाना संभव नहीं होगा। विडंबना यह है कि 1991 के बाद से कांग्रेस केवल 2009 में 200 की संख्या पार कर पाई है। अब तो उसके सामने 100 पार करने की चुनौती है।

कोई जरूरी नहीं कि कांग्रेस हमेशा इसी दायरे में सीमित रहे। पर इस पार्टी की दिक्कत यह है कि वह जैसे ही अपना वर्चस्व स्थापित करने की कशिश करेगी, सहयोगी दलों के क्षेत्रीय क्षत्रप प्रतिस्पर्धा में आ जाएंगे। क्षेत्रीय दलों के ताकतवर नेताओं के कारण गठबंधन की बातें एक स्वर से कहना मुश्किल काम है। विरोधी दलों के पास संसाधन भी सत्तारूढ़ दल की तुलना में कम हैं। बेशक जब हालात अनुकूल हों और जनता के बीच किसी बात की लहर हो, तब संसाधनों की कमी कोई मायने नहीं रखती। पर क्या इस समय ऐसा है?  मतदाता क्या महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मसलों को लेकर सरकार से नाराज है?

भारतीय जनता पार्टी राम-मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता, ट्रिपल तलाक जैसे मसलों के अलावा गरीबों को मुफ्त अनाज, उज्ज्वला, जनधन, नल से जल, स्वच्छ भारत जैसे कार्यक्रमों के अलावा वैश्विक स्तर पर भारत का कद बढ़ने से लेकर चंद्रयान और गगनयान के मुद्दों पर चुनाव लड़ेगी। डिजिटल अर्थव्यवस्था, वंदे भारत, बुलेट ट्रेन, राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत को दुनिया की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने का संकल्प वोटर को लुभाएगा या नहीं?

इन बातों का जवाब कांग्रेस पार्टी ने पिछले दिनों कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनाव में दिया है। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और पंजाब में वैकल्पिक लोक-लुभावन कार्यक्रम दिए हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के चुनाव में ऐसे कार्यक्रमों की झड़ी लगेगी। देखना है कि गठबंधन इंडिया किस प्रकार के वायदे लेकर आएगा। बहरहाल गठबंधन इंडिया की बैठक में खुले तौर पर इन विषयों पर बातें भले ही नहीं हो, पर भीतरी तौर पर जरूर हो रही होंगी। और नहीं हो रही हैं, तो होनी चाहिए।

 

1 comment:

  1. Anonymous5:19 PM

    विकल्प बनने के लिए अभी और मंथन करना पड़ेगा जब तक क्रीम सतह पर न दिखने लगे.... कहीं ऐसा न हो कि क्षेत्रीय दल मिलकर कांग्रेस को हांसिए पर न ला दें क्योंकि कांग्रेस के पास नेतृत्व की कभी अब भी बनी हुई है...

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