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Wednesday, August 23, 2023

पाकिस्तान में राजनीतिक-संशय और बढ़ता कट्टरपंथ


पाकिस्तानी राजनीति चुनाव की ओर बढ़ चली है. चुनाव-संचालन के लिए नए प्रधानमंत्री की नियुक्ति हो गई है और तैयारियाँ चल रही हैं. अब सवाल है कि क्या वहाँ स्थिर असैनिक-सरकार और लोकतंत्र सफलता के साथ चलेगा?  कार्यवाहक सरकार बनते ही जो सबसे पहली घटना हुई है, उससे अंदेशा कम होने के बजाय बढ़ा है.

गत 9 अगस्त को भंग होने के पहले संसद ने कई कानूनों, उनमें संशोधनों और निर्णयों को पास किया था. इनमें आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम और आर्मी एक्ट (संशोधन) भी था. ये दोनों कानून लागू हो चुके हैं और अब अचानक राष्ट्रपति डॉ आरिफ़ अल्वी ने कहा है कि मैंने इन दोनों पर दस्तख़त ही नहीं किए हैं.

कानून बने

दूसरी तरफ कार्यवाहक क़ानून मंत्री ने कहा है कि ये दोनों बिल अब क़ानून की शक्ल ले चुके हैं और इनको नोटिफाई भी कर दिया गया है. इतनी बड़ी विसंगति कैसे संभव है?  सोशल मीडिया जारी बयान में आरिफ़ अल्वी ने कहा है, मैं अल्लाह को गवाह मानकर कहता हूं कि मैंने दोनों पर दस्तख़त नहीं किए. मैं इन क़ानूनों से सहमत नहीं था.

हैरत इस बात की है कि देश के राष्ट्रपति को नहीं पता कि इन कानूनों को नोटिफाई कर दिया गया है. और अब वे ट्विटर के माध्यम से बता रहे हैं कि मैंने दस्तखत नहीं किए हैं. ऐसा लगता है कि कोई शक्ति पूरी व्यवस्था को अपारदर्शी बनाकर रखना चाहती है. अखबार डॉन ने अपने संपादकीय में लिखा है कि डॉन ने अपने संपादकीय में लिखा है कि जब भी हमने राष्ट्रपति कार्यालय से पता करने का प्रयास किया, किसी ने स्पष्ट नहीं किया कि कितने विधेयकों पर दस्तखत कर दिए गए हैं.  

देश के संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार संसद से पास होने के बाद राष्ट्रपति के पास दो विकल्प होते हैं-या तो वे उस बिल को स्वीकार करें या दस दिन के भीतर उसे अपनी टिप्पणी के साथ संसद को वापस भेज दें. दस दिन तक यदि वे बिल को लेकर कोई विकल्प नहीं चुनते हैं तो वह अपने आप ही क़ानून बन जाता है.

राष्ट्रपति का कहना है कि मैंने अपने स्टाफ़ से कहा था कि वे बिना दस्तख़त वाले बिलों को निर्धारित समय-सीमा के अंदर वापस कर दें ताकि वे निष्प्रभावी हो जाएं. क़ानून मंत्रालय का कहना है कि स्टाफ़ का बहाना बनाए बिना उन्हें बिलों पर हुई देरी की ज़िम्मेदारी ख़ुद क़बूल करनी चाहिए. इस बीच राष्ट्रपति ने अपने सचिव को हटा दिया है.

वापस क्यों नहीं किया?

कार्यवाहक सूचना मंत्री मुर्तज़ा सोलंगी ने कहा कि राष्ट्रपति ने जो आपत्ति प्रकट की है, वही आपत्ति उन बिलों पर लगाकर वे वापस भेज सकते थे, जैसाकि इसके पहले भी उन्होंने किया है. वर्तमान राष्ट्रपति इमरान खान के मुखर समर्थक हैं. इसका मतलब है कि देश में कार्यवाहक सरकार बनने के बाद भी राजनीतिक-खींचतान जारी रहेगी. संभावना इस बात की भी है कि यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट के पास जाए.

संवैधानिक-संस्थाओं का आपसी टकराव भी देखने में आ रहा है. इस साल के शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और चुनाव आयोग को आदेश दिया था कि 14 मई तक पंजाब में चुनाव करा लिए जाएं. सरकार और आयोग दोनों ने ही अदालत के आदेशों को नहीं माना. हालांकि अब देश तैयार है, पर चुनाव आयोग कह रहा है कि जरूरी नहीं कि 90 दिन के भीतर चुनाव हो जाएं.

जड़ांवाला हिंसा

प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर संशय चल ही रहा था कि अचानक धार्मिक कट्टरपंथ ने सिर उठाना शुरू कर दिया है. फैसलाबाद शहर के जड़ांवाला उपनगरीय इलाके में पवित्र कुरान के अपमान की बात फैलने के बाद गत 16 अगस्त को सैकड़ों की भीड़ ने ईसाई इलाके पर हमला बोल दिया. इस हमले में 21 चर्च पूरी तरह से जल गए और कई घर तबाह हो गए.

रिपोर्ट के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा नुकसान ईसा नगरी के इलाक़े में हुआ, जहां 40 मकान और तीन चर्च जलाए गए, जबकि मुहल्ला चमड़ा मंडी में भी दो चर्च और 29 मकान नज़र-ए-आतिश किए गए. इस किस्म की हिंसा का यह पहला मामला नहीं है. पिछले कुछ महीनों में अहमदियों, हिंदुओं और अब ईसाइयों की किसी न किसी रूप में प्रताड़ना की खबरें आई हैं.

इस घटना के बाद पाकिस्तान में बढ़ते कट्टरपंथ को लेकर एकबार फिर से चिंता प्रकट की जा रही है. दिसंबर 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए हमले के बाद देश में काफी लोगों को लगा कि हम गलत रास्ते पर जा रहे हैं, कुछ करना चाहिए. आतंकवाद की चुनौती से निपटने के लिए नेशनल एक्शन प्लान (एनएपी) बनाया गया, तहरीके तालिबान पाकिस्तान के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की गई, पैग़ामे पाकिस्तान जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए, पर देश अब भी तय नहीं कर पाया है कि उसे किस रास्ते पर जाना है.

कट्टरपंथ का खेल

पिछले 76 साल का अनुभव है कि पाकिस्तानी-व्यवस्था कट्टरता के खेल में बड़े जोखिम मोल लेने लगी है. दाँव जब उल्टे पड़ते हैं, तो दोष दूसरों के मत्थे मढ़ती है. देश में एक तबका है, जो मानता है कि ऐसे अपराधों पर फौरन सजा मिलनी चाहिए, पर हत्यारों को हीरो बना दिया जाता है. उनपर फूल मालाएं चढ़ाई जाती हैं. उन्हें फाँसी की सजा मिल जाए, तो उनकी कब्र को तीर्थ का रूप दे दिया जाता है. 

इस्लामाबाद स्थित सेंटर फॉर रिसर्च एंड सिक्योरिटी स्टडीज़ के अनुसार स्वतंत्रता के बाद से पाकिस्तान में ईशनिंदा के मामलों में 89 पाकिस्तानी नागरिकों की हत्या हो चुकी है. इनमें 18 महिलाएं थीं. इसके अलावा 1,415 मामलों में ईशनिंदा के आरोप लगाए गए हैं. पिछले एक-दो दशकों में इन मामलों की संख्या बढ़ी है. देश के उच्चतम न्यायालय, सिविल सोसायटी ग्रुपों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस बढ़ती हिंसा पर चिंता व्यक्त की है.

इन खबरों के साथ जिस बात को रेखांकित किया जाता है, वह यह कि अधिकारी ऐसे मामलों में तेजी से कार्रवाई नहीं करते और पुलिस, मूक-दर्शक बनकर देखती रहती है. देश में ईशनिंदा एक संवेदनशील मुद्दा है, जहां इस्लाम या इस्लामी हस्तियों का अपमान करने वाले किसी भी व्यक्ति को मौत की सजा दी जा सकती है.

कानून का दुरुपयोग

इस्लाम के अपमान की अफवाहें अक्सर गैर-मुसलमानों को ठिकाने लगाने के लिए फैलाई जाती हैं. कई बार निजी रंजिश में भी ऐसा किया जाता है, जिसमें मुसलमान भी शिकार होते हैं. गुंडागर्दी और पैसे की वसूली के लिए भी इस हथियार का सहारा लिया जाता है. एक तरफ कट्टरपंथियों का दबाव है, वहीं इस तरह के कानूनों का फायदा उठाने वाली ताकतें भी सक्रिय हैं.  

जड़ांवाला हिंसा की अमेरिका तथा दूसरे पश्चिमी देशों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई है. इसे देखते हुए पाकिस्तान सरकार ने दंगों की उच्च स्तरीय जांच का आदेश दिया है और सभी क्षतिग्रस्त चर्चों और अल्पसंख्यक ईसाइयों के घरों को ठीक करने का वादा किया. इस सिलसिले में 600 संदिग्धों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है और 135 लोगों को गिरफ्तार किया गया है.

दबती सरकार

गिरफ्तार लोगों में कट्टरपंथी समूह तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के सदस्य भी शामिल हैं. इस संगठन के सामने पिछले कुछ वर्षों में सरकार बार-बार झुकती रही है. वैश्विक आलोचना के बाद भी देश के राजनेताओं, सरकारों और अफसरों ने इस दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया, उल्टे हाल में देश की संसद भंग होने के कुछ समय पहले एक कानून को पास किया गया है, जिसमें प्रतिष्ठित इस्लामिक व्यक्तित्वों के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणियाँ करने पर मुकर्रर सज़ा बढ़ा दी गई है.

ऐसा संभवतः पश्चिमी देशों में मुसलमानों के खिलाफ बढ़ती कट्टरता को देखते हुए भी किया गया, पर इस कदम का लाभ पाकिस्तान के कट्टरपंथी उठा रहे हैं और निर्दोषों को निशाना बनाने लगे हैं. पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता को जिस तरह से हवा दी जाती है, उससे इस्लाम के मानवीय और सकारात्मक पक्ष की अनदेखी हो जाती है. ऐसा तब है, जब बड़ी संख्या में इस्लामिक देश उदारता, शांति और सद्भाव को बढ़ाने की हिमायत कर रहे हैं. 

मनमानी व्याख्या

पाकिस्तान संभवतः धर्म के आधार पर बना एकमात्र देश है. उसकी संविधान सभा में 12 मार्च, 1948 को पास किए गए 'ऑब्जेक्टिव रिज़ोल्यूशन' ने इस बात पर पक्की मुहर लगा दी थी. इस संकल्प में कहा गया है कि पाकिस्तान की संवैधानिक व्यवस्था पूरी तरह से पश्चिमी-लोकतंत्र पर आधारित नहीं होगी, बल्कि उसकी बुनियाद में इस्लामिक लोकतांत्रिक-विचारधारा होगी.

यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ देश की वैचारिक बुनियाद है. देश का संविधान भले ही समय से तैयार नहीं हो पाया, पर उसके सैद्धांतिक-आधार को सबने स्वीकार किया. यह आधार 1973 के संविधान में भी बरकरार रहा. यह संविधान तब बना, जब ज़ुल्फिकार अली भुट्टो राष्ट्रपति थे.

भुट्टो इस्लामी समाजवाद का नारा देकर सत्ता में आए थे. उनके कुछ सहयोगी चाहते थे कि नया संविधान समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद पर बनाया जाए, लेकिन उन्होंने संविधान की बुनियाद में इस्लाम को स्थापित किया. 

1973 के संविधान में संसदीय-प्रणाली की व्यवस्था की गई थी और भुट्टो देश के प्रधानमंत्री बने. उन्होंने सितंबर 1974 में संविधान का संशोधन करके अहमदियों को 'ग़ैर मुस्लिम अल्पसंख्यक' क़रार दिया. पाकिस्तान के राजनेता शुक्रवार के साप्ताहिक अवकाश को लेकर भी कई तरह के प्रयोग करते रहे हैं.

प्रियांथा कुमारा

पाकिस्तान में ईशनिंदा को लेकर छोटी-मोटी घटनाएं तो होती ही रहती हैं, पर शुक्रवार 3 दिसंबर, 2021 को सियालकोट में जब उन्मादी भीड़ ने श्रीलंका के एक नागरिक की बर्बर तरीके से पीट-पीट कर हत्या कर दी और बाद में उसके शव में आग लगा दी, तो फिर देश की बदनामी हुई. प्रियांथा कुमारा नाम के श्रीलंकाई नागरिक ईसाई थे और सियालकोट ज़िले में वज़ीराबाद रोड स्थित एक परिधान फैक्ट्री राजको इंडस्ट्रीज़ में मैनेजर के तौर पर पिछले नौ साल से काम कर रहे थे.

2010 में पाकिस्तान की एक अदालत ने आसिया नोरीन नाम की एक ईसाई महिला को ईशनिंदा के आरोप में मौत की सजा दी, तो पश्चिमी देशों में इसे लेकर प्रतिक्रिया हुई. अंततः 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने उसे बरी कर दिया, पर उसे छोड़ा नहीं जा सकता था, क्योंकि डर था कि भीड़ उसे मार डालेगी.

पश्चिमी दबाव के ही कारण उसे गुपचुप तरीके से कनाडा भेजा गया. अप्रेल 2017 में ऐसी ही एक भीड़ ने अब्दुल वली खान विवि, मर्दान के छात्र मशाल खान पर इंटरनेट पर ईशनिंदा से जुड़ी सामग्री के प्रकाशन का आरोप लगाकर हत्या कर दी. इस मामले में कम से कम 61 लोगों पर हत्या में शामिल होने के आरोप लगे. इनमें से एक को मौत की सजा दी गई, पाँच को उम्रकैद और 24 को चार साल की कैद.

नवंबर 2020 में पेशावर हाईकोर्ट ने मुख्य अभियुक्त की मौत की सजा को कम करके उसे उम्रकैद में बदल दिया. एक तरफ हत्यारों की सजा कम होती है, दूसरी तरफ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जुनैद हफीज़ का मामला है, जिन्हें अदालत ने मौत की सजा सुनाई.

नवंबर 2014 में कोट राधा किशन के एक ईंट भट्ठे में एक भीड़ ने शमा और शहज़ाद मसीह नामक एक ईसाई दम्पति को पवित्र कुरान की अवमानना का आरोप लगाकर जलाकर मार डाला. नवंबर 2020 में एक बैंक मैनेजर को सिक्योरिटी गार्ड ने गोली मार दी, क्योंकि उसे लगा कि उसने ईशनिंदा की है. अप्रेल 2021 में दो ईसाई नर्सों को ईशनिंदा के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि भीड़ ने उनपर आरोप लगाया था. इन घटनाओं की लंबी सूची है.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

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