भारत के 26 प्रमुख विरोधी-दलों ने 18 जुलाई को बेंगलुरु में ‘नए गठबंधन इंडिया’ की बुनियाद रखते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव का एक तरह से बिगुल बजा दिया है। उसी रोज दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में 38 दलों ने शिरकत करके जवाबी बिगुल बजाया। इन दोनों बैठकों का प्रतीकात्मक महत्व ही था, क्योंकि इसके फौरन बाद 20 जुलाई से संसद का सत्र होने के कारण दोनों पक्ष राजनीतिक गतिविधियों में लग गए। मणिपुर में चल रही हिंसक गतिविधियों के बीच एक भयावह वीडियो के वायरल होने के बाद राजनीतिक टकराव और तीखा हो गया, और फिलहाल दोनों पक्ष अपनी एकता के पैतरों को आजमा रहे हैं।
‘नए गठबंधन इंडिया’ और पुराने गठबंधन ‘एनडीए’ की इन बैठकों में संख्याओं के प्रदर्शन के पीछे भी कुछ कारण
खोजे जा सकते हैं। विरोधी-एकता की पटना बैठक में 15 पार्टियाँ शामिल हुईं थीं। एक
सोलहवीं पार्टी भी थी, जिसके नेता जयंत चौधरी किसी वजह से उस बैठक में नहीं आ पाए
थे। वे बेंगलुरु में शामिल हुए। बेंगलुरु में जो 16 नई पार्टियाँ आईं, उनमें कोई
नई प्रभावशाली पार्टी नहीं थी। तीन तो वाममोर्चा के घटक थे। कुछ तमिल पार्टियाँ
थीं, जो कांग्रेस के साथ पहले से गठबंधन में हैं। उधर एनडीए में भी कोई खास नयापन
नहीं था। बिहार और उत्तर प्रदेश से जीतन राम मांझी, ओम प्रकाश राजभर चिराग पासवान
और उपेंद्र कुशवाहा के शामिल होने से यह संख्या बढ़ी हुई लगती है। इसके अलावा
पूर्वोत्तर की अनेक छोटी-छोटी पार्टियाँ हैं, जिनकी लोकसभा में उपस्थिति नहीं है।
दोनों के संशय
इन दोनों बैठकों
से एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों गठबंधनों के भीतर असुरक्षा का भाव है।
कांग्रेस पार्टी दस साल सत्ता से बाहर रहने के कारण ‘जल बिन मछली’ बनी हुई है। छोटे
क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं जाग रही हैं कि शायद उन्हें कुछ मिल जाए।
बीजेपी के बढ़ते प्रभाव और ईडी वगैरह के दबाव के कारण इन्हें अस्तित्व का संकट भी
नज़र आ रहा है।
दूसरी तरफ यह भी लगता है कि बीजेपी ने 2019 में ‘पीक’ हासिल कर लिया था। क्या अब ढलान है? इस ढलान से तभी बच सकते हैं, जब नए क्षेत्रों में प्रभाव बढ़े। बीजेपी-समर्थक चाहते है कि उसके एजेंडा को जल्द से जल्द हासिल करने के लिए कम से कम इसबार तो सरकार बननी ही चाहिए। यह एजेंडा एक तरफ हिंदुत्व से जुड़ा है, वहीं राष्ट्रीय-एकता और वैश्विक-मंच पर महाशक्ति के रूप में उभरने पर। उन्हें यह भी दिखाई पड़ रहा है कि पार्टी की ताकत इस समय नरेंद्र मोदी है, पर उसके बाद क्या?
फेंस-सिटर
विरोधी-एकता का यह
चरण पूरा होने के बाद अब एक नज़र उन पार्टियों पर डालना भी जरूरी है, जो इनमें से
किसी में शामिल नहीं हुई हैं। इनमें बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल, आंध्र की
वाईएसआर कांग्रेस और तेदेपा, तेलंगाना की बीआरएस, कर्नाटक की जेडीएस और पंजाब का
अकाली दल प्रमुख हैं। इन दलों का अलग रहना ‘गठबंधन इंडिया’ के लिए मुश्किलें
पैदा करेगा। संभव है कि इन दलों में से कुछ को अपने साथ लाने का प्रयास यह गठबंधन
करे।
दूसरी ओर संभव यह भी है कि सीटों के बँटवारे की बातें होने पर कुछ पार्टियाँ
गठबंधन को छोड़ दें। अभी कई प्रकार के गणित भविष्य के गर्भ में हैं। इन पार्टियों
की अलग रहने की रणनीति के पीछे कई तरह के कारण हैं। एक, इनका अपने आप में इतना
प्रभाव है कि उन्हें किसी की मदद की जरूरत नहीं। दूसरे, इनका वोटर किसी दूसरे के
साथ गठबंधन को पसंद नहीं करता। तीसरे, ये पार्टियाँ इंतजार करेंगी कि केंद्र में
कौन शक्तिशाली बनकर उभरता है। उसके बाद ‘पोस्ट-पोल गठबंधन’ करेंगी। बीजेपी का प्लान ‘बी’ भी यही है कि किसी
वजह से उनके सदस्यों की संख्या 250 या उससे नीचे रह गई, तो उसे कुछ सहयोगियों की
जरूरत होगी। इस लिहाज से इन पार्टियों का लग खड़े होकर देखना भी समझ में आता
है।
राहुल-ममता
जुगलबंदी
बेंगलुरु की बैठक
में गठबंधन का नाम ‘इंडियन
नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस’ (संक्षेप में इंडिया) रखा गया और बहुत सी बातों पर सहमति व्यक्त की गई। खासतौर
से इस बैठक में आम आदमी पार्टी के आने से विरोधी-एकता के रास्ते में खड़ी एक
विसंगति दूर तो हुई है, पर व्यावहारिक सवाल बचे हुए हैं। बताया जाता है कि इस
गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखने का आइडिया राहुल गांधी का था,
जिसे ममता बनर्जी का जबर्दस्त समर्थन मिला। इस जुगलबंदी को लेकर पर्यवेक्षकों को
कुछ हैरत है। दूसरी तरफ इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की स्थानीय इकाइयाँ ‘आप’ और तृणमूल से दूरी
बनाकर चल रही हैं। क्या पार्टी
हाईकमान ने अपनी स्थानीय इकाइयों को किनारे कर दिया है?
एक तबका यह भी मान
रहा है कि बेंगलुरु का शो कांग्रेस का था। यानी धीरे-धीरे कांग्रेस इस एकता के
केंद्र में आती जा रही है। वह तमाम विवादास्पद प्रश्नों के कालीन के नीचे डालती जा
रही है, ताकि एकता बनाने में आसानी हो। मसलन उसने इसके नेतृत्व या प्रधानमंत्री पद
के प्रत्याशी जैसे विषय पर बात नहीं करने का मन बना लिया है। मल्लिकार्जुन खरगे ने
तो यहाँ तक कहा है कि कांग्रेस की दिलचस्पी प्रधानमंत्री पद को लेकर नहीं है। वामपंथी
दलों के नेता इस बात से खुश हैं कि यह मूल रूप से विचारधारा की लड़ाई है। कांग्रेस
इस गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन उसका रवैया बहुत नरम रहा है।
असली काम अब
गठबंधन की अगली
बैठक अब अगस्त के दूसरे सप्ताह में मुंबई में होगी, जिसकी मेजबानी उद्धव ठाकरे की
शिवसेना करेगी। मुंबई में संभवतः विरोधी दलों के इस गठबंधन की पहली रैली भी होगी
और गठबंधन के संयोजक या कनवीनर के नाम की घोषणा भी की जा सकती है। इस दौरान बातचीत
के अनौपचारिक दौर चलते रहेंगे, क्योंकि एक बड़ा काम अभी बाकी है। वह है इस गठबंधन
का राजनीतिक नैरेटिव या विचारधारा का छत्र तैयार करना, जिसके नीचे सब खड़े होंगे।
सबसे बड़ा काम उस
गणित को तैयार करने का है, जिसके आधार पर चुनाव में बीजेपी के प्रत्याशियों से ‘वन-टु-वन’ का मुकाबला किया
जा सकेगा। यानी कि यहाँ तक विरोधी एकता मंथर गति से चल रही है, पर असली सवाल गणित
और केमिस्ट्री के उठेंगे। मसलन हालांकि बाहर-बाहर काफी एकता नज़र आई, पर वाम मोर्चे को कांग्रेस और ममता
बनर्जी की दोस्ती को लेकर संदेह हो सकता है।
बैठक के ठीक पहले 17
जुलाई को सीताराम येचुरी ने कहा था कि कांग्रेस और वाम दल मिलकर बीजेपी का और
बंगाल में टीएमसी का मुकाबला करेंगे। इसे लेकर ममता नाराज नज़र आईं। लालू यादव ने
येचुरी से कहा कि इस किस्म के बयान देने से बचें। उन्होंने भगवंत सिंह मान को
सुझाव दिया कि वे कांग्रेस की आलोचना वाले बयानों पर रोक लगाएं। साथ ही कांग्रेस
के नेतृत्व से कहा कि वे बंगाल की यूनिट के नेताओं से कहें कि वे ममता के खिलाफ
बोलना बंद करें।
साझा कार्यक्रम
बेंगलुरु की
मीटिंग के बाद कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि मुंबई की अगली मीटिंग में इस गठबंधन के
ग्यारह सदस्यों की समन्वय समिति बनाई जाएगी और मुंबई में ही गठबंधन का संयोजक तय
किया जाएगा। दिल्ली में एक ‘सचिवालय’ बनाने का फैसला भी किया गया है। चुनाव अभियान चलाने
और अलग-अलग विषयों की उप-समितियों के कामकाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए इसकी
जरूरत होगी। इस समन्वय समिति
और उप-समितियों के सदस्यों के नाम अभी घोषित नहीं हुए हैं। इन्हें 2024 के चुनाव
का साझा कार्यक्रम और प्रचार के बिंदुओं को तैयार करना है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि
यह एकता लोकसभा चुनाव के लिए है या राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना
राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी काम करेगी।
मीडिया रिपोर्टों
के अनुसार इस नाम का सुझाव राहुल गांधी का था, पर उन्होंने पार्टी के महासचिव केसी
वेणुगोपाल को यह काम सौंपा कि वे ममता बनर्जी से उसे ‘क्लियर’ करा लें। ममता ने बात मान ली। बताते हैं कि उनका सुझाव था कि ‘एन’ अक्षर ‘नेशनल’ के बजाय ‘न्यू’ के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसके बाद ‘डी’ को लेकर
चर्चा हुई कि यह ‘डेमोक्रेटिक’ है या ‘डेवलपमेंटल’।
कुछ नेताओं ने आपस में बैठकर उस सामूहिक संकल्प को अंतिम रूप दिया, जो बैठक के बाद
जारी किया गया।
नाम पर बहस
औपचारिक बैठक में
सबसे पहले मल्लिकार्जुन खरगे का वक्तव्य हुआ। उसके बाद ममता बनर्जी ने गठबंधन के नाम
का प्रस्ताव किया। नीतीश कुमार ने सवाल किया कि किसी गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ कैसे हो सकता है? शुरू में सीताराम
येचुरी, डी राजा और जी देवराजन को भी कुछ संदेह था। इनके बीच फिर विचार-विमर्श
हुआ।
येचुरी ने अंग्रेजी अक्षर ‘वी’ विक्ट्री फॉर
इंडिया या ‘वी (हम) फॉर इंडिया’ का सुझाव दिया। पर दूसरे नेताओं को लगा कि यह गठबंधन का
नाम नहीं कैम्पेन का नाम लगता है। कुछ दूसरे नामों का प्रस्ताव भी हुआ। मसलन ‘पीपुल्स एलायंस फॉर इंडिया’और ‘प्रोग्रेसिव
पीपुल्स एलायंस फॉर इंडिया’। पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने
सुझाव दिया कि ‘भारत जोड़ो’ के तर्ज पर
‘भारत जोड़ो एलायंस’ भी रखा जा सकता है। उद्धव ठाकरे ने कहा
कि नाम के साथ हिंदी का सूत्र
वाक्य (टैगलाइन) भी जोड़ना चाहिए।
सूत्रों के अनुसार अरविंद केजरीवाल का कहना था कि नाम से ज्यादा महत्वपूर्ण है
सीट शेयरिंग का मसला। येचुरी ने भी कहा कि मसला सीट शेयरिंग का ही सबसे प्रमुख है।
खासतौर से बंगाल और केरल में। अलबत्ता देखना होगा कि कांग्रेस पार्टी कितनी उदार
होती है। खरगे और राहुल गांधी दोनों ने बैठक में कहा कि हमारी आकांक्षा
प्रधानमंत्री पद को लेने की नहीं है। हमारी पार्टी दूसरे दलों को ज्यादा से ज्यादा
जगह देने की कोशिश करेगी।
मोदी की
प्रतिक्रिया
बहरहाल नरेंद्र
मोदी ने गठबंधन के नाम और काम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी है। उन्होंने सबसे
पहले इंडिया और भारत के अंतर पर जोर दिया है। उन्होंने कहा, उनका न्यूनतम साझा
कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) अपने परिवारों के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ाना है।
लोकतंत्र का मतलब है ‘जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए’,लेकिन इन वंशवादी पार्टियों का मंत्र है
‘परिवार का, परिवार द्वारा,
परिवार के लिए’। उनके लिए उनका परिवार
पहले है और देश कुछ भी नहीं है।
इसके जवाब में
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने एनडीए की बैठक के संदर्भ में कहा कि एनडीए
के टुकड़े-टुकड़े हो गए थे। अब घबराकर उसे फिर से एकजुट किया जा रहा है। उन्होंने
यह भी कहा कि कई राज्यों में हमारे बीच मतभेद हैं, लेकिन फ़िलहाल हमने उन मुद्दों
को पीछे रख दिया है और अभी हमारे लिए देश को बचाना प्राथमिकता है।
भ्रामक गणित
यह गणित उतना
स्पष्ट नहीं है जितना विरोधी दल सोचते हैं। भाजपा को बहुमत तक पहुंचाने में कुछ ही
राज्यों का हाथ है। उन राज्यों में विरोधी-एकता से बहुत कम फर्क पड़ेगा। समाजवादी
पार्टी (सपा) ने उत्तर प्रदेश में सभी प्रकार के गठबंधनों की कोशिश की है, और भाजपा ने 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में राज्य में जीत हासिल की है। बीजेपी ने एनडीए के 38
दलों की बात कही जरूर है, पर उनमें से ज्यादातर पूर्वोत्तर के छोटे-छोटे दल हैं,
जिनके पास लोकसभा की सीटें नहीं हैं।
2019 के आम चुनाव
में एनडीए ने 543 सीटों पर
चुनाव लड़ा। इनमें से 437
सीटें भाजपा ने अपने दम पर लड़ी। उनके पास 303 सांसद थे, जो एनडीए का सबसे बड़ा हिस्सा है। अन्य सहयोगियों में से, प्रमुख साझीदार–जेडीयू, शिवसेना और शिरोमणि
अकाली दल, सभी अलग हो गए हैं। भाजपा का विचार है कि एनडीए को राष्ट्रीय-शक्ति के
रूप में पेश किया जाए न कि हिंदी पट्टी की पार्टी के रूप में।
देवेगौड़ा-गुजराल
संभावना
विरोधी एकता में
क्षेत्रीय दलों के उत्साह के पीछे के कारणों को समझने की कशिश भी करनी चाहिए।
क्षेत्रीय-राजनेताओं को लगता है कि इस गठबंधन के सहारे उन्हें सीटें मिलेंगी, जो
अकेले लड़ने पर संभव नहीं। और कहीं विरोधी-दलों की सरकार बनी, तो उन्हें केंद्रीय
सत्ता में हिस्सा मिलेगा। गठबंधन में कई दलों के महत्वाकांक्षी नेता हैं। उनके
सामने गुजराल और देवेगौड़ा वाली परिस्थिति रखी जा रही है। उन्हें लगता है कि चुनाव
के बाद कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है। कई पार्टियां ईडी और आयकर छापों से परेशान
हैं। उन्हें छापों, गिरफ़्तारी
वगैरह का डर है। उन्हें लगता है कि बीजेपी तीसरी बार जीती, तो उनके अस्तित्व को बचाना
और भी मुश्किल हो जाएगा।
पहली नजर में लगता
है कि विरोधी-एकता के लिए कांग्रेस त्याग कर रही है। पर यह फिलहाल टैक्टिकल है। कांग्रेस
ऐसी त्यागी पार्टी नहीं है। उसे समझ में आता है कि यदि वह इस गठजोड़ में सबसे
ताकतवर पार्टी के रूप में उभरी, तो स्वाभाविक रूप से नेतृत्व उसे ही मिलेगा।
फिलहाल वह चाहती है कि विपक्षी दलों के मन में कांग्रेस को लेकर डर कम हो। कांग्रेस
यह भी नहीं चाहती कि चुनाव ‘मोदी बनाम राहुल गांधी’ हो, क्योंकि
इसमें खतरा है। उसे मोदी की लोकप्रियता का आभास है। बजाय व्यक्ति और व्यक्तित्वों
के मुकाबले के कांग्रेस चाहती है कि यह चुनाव मुद्दों पर हो। गठबंधन के नाम पर गौर
करें, जिसके पहले दो शब्द ‘इंडियन नेशनल’ कांग्रेस के नाम से मिलते हैं। फिलहाल इस
गठबंधन के सूत्रधारों को भी लग रहा है कि यह ‘शो’ तो कांग्रेस के नाम रहा।
भारत-वार्ता के
जुलाई 2023 अंक में प्रकाशित
अच्छा विश्लेषण हैं,संदर्भपरक है
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