जैसा कि अंदेशा था, संसद के मॉनसून सत्र का पहला हफ्ता शोरगुल और हंगामे की भेंट रहा। इस हंगामे या शोरगुल को क्या मानें, गैर-संसदीय या संसदीय? लंबे अरसे से संसद का हंगामा संसदीय-परंपराओं में शामिल हो गया है और उसे ही संसदीय-कर्म मान लिया गया है। शायद ही कोई इस बात पर ध्यान देता हो कि इस दौरान कौन से विधेयक किस तरह पास हुए, उनपर चर्चा में क्या बातें सामने आईं और सरकार ने उनका क्या जवाब दिया वगैरह। एक ज़माने में अखबारों में संसदीय प्रश्नोत्तर पर लंबे आइटम प्रकाशित हुआ करते थे। अब हंगामे का सबसे पहला शिकार प्रश्नोत्तर होते हैं। आने वाले हफ्तों की तस्वीर भी कुछ ऐसी ही रहने की संभावना है। पीआरएस की वैबसाइट के अनुसार इस सत्र में अभी तक लोकसभा की उत्पादकता 15 प्रतिशत और राज्यसभा की 33 प्रतिशत रही। शुक्रवार को दोनों सदनों में हंगामा रहा और उसी माहौल में लोकसभा से तीन विधेयकों को भी पारित करवा लिया गया। इस हफ्ते कुल आठ विधेयक पास हुए हैं। गुरुवार को जन विश्वास बिल पास हुआ, जिससे कारोबारियों पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इससे कई कानूनों में बदलाव होगा और छोटी गड़बड़ी के मामले में सजा को कम कर दिया जाएगा। पर अब सारा ध्यान अविश्वास-प्रस्ताव पर केंद्रित होगा, जिसे इस हफ्ते कांग्रेस की ओर से रखा गया है। कहना मुश्किल है कि यह चर्चा विरोधी दलों के पक्ष में जाएगी या उनके पक्ष को कमज़ोर करेगी।
काले-काले कपड़े
गुरुवार और शुक्रवार को विरोधी गठबंधन ‘इंडियन
नेशनल डेवलपमेंटल इनक्लूसिव एलायंस (इंडिया)’ से
जुड़े सांसद मणिपुर मुद्दे पर सरकार के विरोध में काले कपड़े पहनकर संसद पहुंचे थे।
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने कहा कि काले कपड़े पहनने के पीछे विचार ये है कि देश
में अंधेरा है तो हमारे कपड़ों में भी अंधेरा होना चाहिए। राज्यसभा में सदन के
नेता पीयूष गोयल ने कहा कि ये काले कपड़े पहनने वाले लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि
देश की बढ़ती हुई ताकत आज क्या है? इनका वर्तमान, भूत
और भविष्य काला है, लेकिन हमें उम्मीद है कि उनकी जिंदगी
में भी रोशनी आएगी। इस शोरगुल के बीच आम आदमी पार्टी के संजय सिंह की सदस्यता भी
इस हफ्ते निलंबित कर दी गई। उन्हें पिछले सोमवार को हंगामा करने और आसन के
निर्देशों का उल्लंघन करने के लिए वर्तमान मानसून सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित
कर दिया गया था। निलंबन के बाद से संजय सिंह संसद परिसर में लगातार धरने पर बैठ
गए। नेता विरोधी दल मल्लिकार्जुन खरगे भी कुछ देर धरना स्थल पर बैठे और उनसे रात
के समय धरना नहीं देने की अपील की। अब वे केवल दिन में ही धरने पर बैठ रहे हैं।
अविश्वास प्रस्ताव
प्रकटतः हंगामे के पीछे मुद्दा मणिपुर में पिछले तीन महीने से जारी जातीय हिंसा है, लेकिन असली वजह सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच का टकराव है, जिसमें संसद के भीतर संजीदगी के साथ कही गई बातों का अब कोई मतलब रह नहीं गया है। विपक्ष ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाकर इसे राजनीतिक मुद्दा बना दिया है। ऐसा ही सोलहवीं लोकसभा के मॉनसून-सत्र में हुआ था। उस प्रस्ताव के समर्थन में 126 वोट पड़े थे और उसके खिलाफ 325 सांसदों ने मत दिया था। वर्तमान सदन में सत्ताधारी पक्ष के पास 331 और ‘इंडिया’ नाम के गठबंधन में शामिल दलों के पास 144 सांसद है। बीआरएस के नौ सांसद भी सरकार के खिलाफ वोट करेंगे, क्योंकि बीआरएस ने अलग से नोटिस दिया है। विपक्ष चाहता है कि इस पर तत्काल चर्चा हो, उसके बाद ही सदन में कोई भी विधायी कार्य हो। जब तक अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती, तब तक सरकार को नीतिगत मामलों से जुड़ा कोई भी प्रस्ताव या विधेयक सदन में नहीं लाना चाहिए। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने चुनौती दी कि विपक्ष के पास संख्या बल है तो उसे विधेयकों को पारित होने से रोककर दिखाना चाहिए।
राहुल का गले लगाना
जुलाई, 2018 में मोदी
सरकार के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाया था। अविश्वास
प्रस्ताव पर बहस के दौरान राहुल गांधी अपना भाषण ख़त्म करने के बाद पीएम मोदी की
सीट की तरफ बढ़े और अचानक उन्हें गले लगा लिया। राहुल गांधी की झप्पी और बाद में
आँख मारना, चर्चा का विषय बना था। बहरहाल इसबार राहुल
गांधी सदन में नहीं होंगे। टीवी कवरेज शुरू होने के बाद से संसदीय-कार्यवाही में
नाटकीयता और हल्कापन आया है। स्वतंत्रता के बाद से देश में 28 अविश्वास प्रस्ताव
लाए गए हैं। इसबार का 28वाँ है। इनमें से केवल एक सफल हुआ है। 1979 में मोरारजी
देसाई की सरकार अविश्वास प्रस्ताव से गिरी थी। 1963 में पहला अविश्वास प्रस्ताव
आचार्य जेबी कृपालानी लाए थे। उसपर चार दिन तक बहस चली थी। बहस के जवाब में पंडित
नेहरू ने कहा, ‘अविश्वास प्रस्ताव का लक्ष्य सरकार को
हटाना और उसकी जगह सरकार बनाने का होना चाहिए। वर्तमान स्थितियों में ऐसा संभव
नहीं लगता। हालांकि यह बहस रोचक थी, पर निरर्थक थी।’
संसद की उपादेयता
सरकार ने जानकारी दी है कि अविश्वास प्रस्ताव
पर बहस के पहले दिल्ली अध्यादेश की जगह लेने वाले विधेयक को अगले हफ्ते लोकसभा में
पेश किया जाएगा। केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री मेघवाल ने अगले हफ्ते संसद में
होने वाले कामों के बारे में सदन को सूचना देते हुए यह जानकारी दी। विरोधी दल मणिपुर
मामले पर चर्चा के बजाय नरेंद्र मोदी के बयान पर जोर दे रहे हैं। यह वैचारिक
विसंगति है। वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि जब तक अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया
पूरी नहीं हो जाती, कोई और कामकाज सदन में नहीं होना चाहिए।
व्यावहारिक सत्य यह है कि सरकार गिरने वाली नहीं है। तब संसदीय-कर्म को रोकने की
जरूरत क्या है? संसद चलेगी तभी विपक्ष अपनी बात रख सकता है,
सरकार की आलोचना कर सकता है और देश के सामने सरकार की नाकामियों का
विवरण दे सकता है। अडाणी-प्रसंग में पिछला सत्र पूरी तरह से धुल गया था, हासिल
क्या हुआ? मामला सुप्रीम कोर्ट में गया, और फिर कुछ नहीं हुआ।
‘इंडिया’ बनाम एनडीए
अब एक नज़र संसद के बाहर की गतिविधियों पर
डालें। देश के 26 राजनीतिक-दलों ने गत 18 जुलाई को बेंगलुरु में ‘नए
गठबंधन इंडिया’ की
बुनियाद रखते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव का एक तरह से बिगुल बजा दिया। उसी रोज
दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में 38
दलों ने शिरकत करके जवाबी बिगुल बजाया। इन दोनों बैठकों का प्रतीकात्मक महत्व ही
था, क्योंकि इसके फौरन बाद 20 जुलाई से संसद का सत्र शुरू हो गया और दोनों पक्ष
राजनीतिक गतिविधियों में लग गए। ‘नए गठबंधन इंडिया’ और पुराने गठबंधन ‘एनडीए’ की इन बैठकों में संख्याओं के प्रदर्शन के पीछे भी कुछ कारण खोजे जा
सकते हैं। विरोधी-एकता की पटना बैठक में 15 पार्टियाँ शामिल हुईं थीं। एक सोलहवीं
पार्टी भी थी, जिसके नेता जयंत चौधरी किसी वजह से उस बैठक में नहीं आ पाए थे। वे
बेंगलुरु में शामिल हुए। बेंगलुरु में जो 10 नई पार्टियाँ आईं, उनमें कोई नई
प्रभावशाली पार्टी नहीं थी। तीन तो वाममोर्चा के घटक थे। कुछ तमिल पार्टियाँ थीं,
जो कांग्रेस के साथ पहले से गठबंधन में हैं। उधर एनडीए में भी कोई खास नयापन नहीं
था। बिहार और उत्तर प्रदेश से जीतन राम मांझी, ओम प्रकाश राजभर चिराग पासवान और
उपेंद्र कुशवाहा के शामिल होने से यह संख्या बढ़ी हुई लगती है। इसके अलावा
पूर्वोत्तर की अनेक छोटी-छोटी पार्टियाँ हैं, जिनकी लोकसभा में उपस्थिति नहीं है।
दोनों के संशय
दोनों गठबंधनों के भीतर असुरक्षा का भाव है।
कांग्रेस पार्टी दस साल सत्ता से बाहर रहने के कारण ‘जल बिन मछली’ बनी हुई है। छोटे क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं
जाग रही हैं कि शायद उन्हें कुछ मिल जाए। बीजेपी के बढ़ते प्रभाव और ईडी वगैरह के
दबाव के कारण इन्हें अस्तित्व का संकट भी नज़र आ रहा है। हाल में महाराष्ट्र में
एनसीपी के विभाजन से भी इस गठबंधन को धक्का लगा है। आगामी 1 अगस्त को पुणे के एक
कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी के साथ शरद पवार शिरकत करने वाले हैं। इसे लेकर भी इस गठबंधन के
सदस्यों के मन में संशय हैं। अभी तक के राजनीतिक-रुझानों से लगता नहीं कि 2024 के
चुनाव में मोदी सरकार को खतरा है। पर, यह भी लगता है कि बीजेपी ने 2019 में ‘पीक’ हासिल कर लिया था।
क्या अब ढलान है? इस ढलान से तभी बच सकते हैं, जब नए
क्षेत्रों में प्रभाव बढ़े। बीजेपी-समर्थक चाहते है कि उसके एजेंडा को जल्द से
जल्द हासिल करने के लिए कम से कम इसबार तो सरकार बननी ही चाहिए। यह एजेंडा एक तरफ
हिंदुत्व से जुड़ा है, वहीं राष्ट्रीय-एकता और वैश्विक-मंच पर महाशक्ति के रूप में
उभरने पर। उन्हें यह भी दिखाई पड़ रहा है कि पार्टी की ताकत इस समय नरेंद्र मोदी
है, पर उसके बाद क्या?
फेंस-सिटर
लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से उन
पार्टियों की रणनीति पर बी रोशनी पड़ेगी, जिन्होंने किसी पक्ष के साथ जाना तय नहीं
किया है। इनमें बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल, आंध्र की वाईएसआर कांग्रेस और
तेदेपा, तेलंगाना की बीआरएस, कर्नाटक की जेडीएस और पंजाब का अकाली दल प्रमुख हैं। इनमें
बीआरएस अविश्वास-प्रस्ताव के साथ है, क्योंकि उसकी ओर से भी एक नोटिस दिया गया है,
पर तेलंगाना के चुनाव में उसका ‘गठबंधन इंडिया’ के साथ रहना संभव नहीं है। हो सकता है कि इन दलों में
से कुछ को अपने साथ लाने का प्रयास यह गठबंधन करे। संभव यह भी है कि सीटों के
बँटवारे की बातें होने पर कुछ पार्टियाँ गठबंधन को छोड़ दें। अभी कई प्रकार के
गणित भविष्य के गर्भ में हैं।
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