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Wednesday, July 5, 2023

विसंगतियों की शिकार विरोधी-एकता

राष्ट्रीय-राजनीति का परिदृश्य अचानक 2019 के लोकसभा-चुनाव के एक साल पहले जैसा हो गया है। मई, 2018 में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों की शुरुआती गहमागहमी के बाद कांग्रेस के समर्थन से एचडी कुमारस्वामी की सरकार बनी, जिसके शपथ-ग्रहण समारोह में विरोधी दलों के नेताओं ने हाथ से हाथ मिलाकर एकता का प्रदर्शन किया। एकता की बातें चुनाव के पहले तक चलती रहीं। 2014 के चुनाव के पहले भी ऐसा ही हुआ था। और अब गत 23 जून को पटना में हुई विरोधी-दलों की बैठक के बारे में कहा जा रहा है कि इससे भारतीय राजनीति का रूपांतरण हो जाएगा। (यह लेख पाञ्चजन्य में प्रकाशित होने के बाद महाराष्ट्र में राकांपा के अजित पवार एनडीए सरकार में शामिल हो गए हैं। इस परिघटना के दौरान एनसीपी के कुछ अंतर्विरोध भी सामने आए हैं। मसलन माना जा रहा है कि एनसीपी के ज्यादातर विधायक बीजेपी के साथ जाना चाहते थे और यह बात शरद पवार जानते थे। इतना ही नहीं शरद पवार ने भी 2019 के चुनाव के बाद बीजेपी के साथ सरकार बनाने का समर्थन किया था। महाराष्ट्र की इस गतिविधि के बाद अब कहा जा रहा है कि जदयू में भी विभाजन संभव है।)

बैठक के आयोजक नीतीश कुमार को भरोसा है कि वे बीजेपी को 100 सीटों के भीतर सीमित कर सकते हैं। केजरीवाल-प्रसंग पर ध्यान न दें, तो इस बैठक में शामिल ज्यादातर नेता इस बात से खुश थे कि शुरुआत अच्छी है। संभव है कि बंद कमरे में हुई बातचीत में गठजोड़ की विसंगतियों पर चर्चा हुई हो, पर बैठक के बाद हुई प्रेस-वार्ता में सवाल-जवाब नहीं हुए। तस्वीरें खिंचाने और बयान जारी करने के अलावा लिट्टी-चोखा, गुलाब जामुन, राहुल गांधी की दाढ़ी और शादी जैसे विषयों पर बातें हुईं। इसलिए अब 17-18 जुलाई को बेंगलुरु में होने वाली अगली बैठक का इंतजार करना होगा। 

केंद्र में या परिधि में?

पटना और बेंगलुरु, दोनों बैठकों का उद्देश्य एक है, पर इरादों के अंतर को समझने की जरूरत है। पटना-बैठक नीतीश कुमार की पहल पर हुई थी, पर बेंगलुरु का आयोजन कांग्रेसी होगा। दोनों बैठकों का निहितार्थ एक है। फैसला कांग्रेस को करना है कि वह गठबंधन के केंद्र में रहेगी या परिधि में। इस एकता में शामिल ज्यादातर पार्टियाँ कांग्रेस की कीमत पर आगे बढ़ी हैं, या कांग्रेस से निकली हैं। जैसे एनसीपी और तृणमूल। कांग्रेस का पुनरोदय इनमें से कुछ दलों को कमजोर करेगा। फिर यह किस एकता की बात है?

देश में दो राष्ट्रीय गठबंधन हैं। एक, एनडीए और दूसरा यूपीए। प्रश्न है, यूपीए यदि विरोधी-गठबंधन है, तो उसका ही विस्तार क्यों नहीं करें? गठबंधन को नया रूप देने या नाम बदलने का मतलब है, कांग्रेस के वर्चस्व को अस्वीकार करना। विरोधी दलों राय है कि लोकसभा चुनाव में अधिकाधिक संभव स्थानों पर बीजेपी के प्रत्याशियों के खिलाफ एक प्रत्याशी उतारा जाए। इसे लेकर उत्साहित होने के बावजूद ये दल जानते हैं कि इसके साथ कुछ जटिलताएं जुड़ी हैं। बड़ी संख्या में ऐसे चुनाव-क्षेत्र हैं, जहाँ विरोधी-दलों के बीच प्रतिस्पर्धा है। कुछ समय पहले खबरें थीं कि राहुल गांधी का सुझाव है कि सबसे पहले दिल्ली से बाहर तीन-चार दिन के लिए विरोधी दलों का चिंतन-शिविर लगना चाहिए, जिसमें खुलकर बातचीत हो। अनुमान लगाया जा सकता है कि विरोधी-एकता अभियान में कांग्रेस अपनी केंद्रीय-भूमिका पर ज़ोर देगी।

आप बनाम कांग्रेस

कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस को इस समय मूमेंटम अपने पक्ष में दिखाई पड़ रहा है। नीतीश कुमार भी कांग्रेस के महत्व को मानते हैं। मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए ही इस बैठक की तारीखें बदलती रहीं। आम आदमी पार्टी पिछले कई महीनों से कांग्रेसी नेताओं से मुलाकात करना चाहती है। ममता बनर्जी ने अपने कड़े रुख को नरम बनाया। पटना की बैठक में 15 राजनीतिक दल शामिल हुए थे। नीतीश कुमार का कहना है कि कुछ और पार्टियाँ इसमें शामिल हो सकती हैं, पर बड़ा सवाल यह है कि बेंगलुरु में यह संख्या 15 ही रहेगी या 14 हो जाएगी?

बेंगलुरु में आप’ शामिल तब होगी, जब कांग्रेस उसे बुलाएगी। संभव है कि इस-प्रक्रिया को नीतीश कुमार की पहल मानते हुए आप’ को बुला लिया जाए, पर क्या कांग्रेस अध्यादेश-प्रसंग पर उसे उपकृत करेगी? अभी तक कांग्रेसी तत्वावधान में होने वाली बैठकों में आम आदमी पार्टी को बुलाया नहीं जाता। पर, पटना में अरविंद केजरीवाल थे और वे बैठक के पहले से अपनी शर्तें रख रहे थे। पटना में लगे कांग्रेसी पोस्टर में केजरीवाल की तस्वीर को जगह दी गई थी। बावजूद इसके कि आप चूहे की तरह कांग्रेस की ज़मीन में अपने बिल बना रही है। गुजरात में उसने कांग्रेस को खासा नुकसान पहुँचाया और पंजाब पूरी तरह हथिया लिया।

पलीता पार्टी

दूसरी तरफ केजरीवाल ने राहुल और खरगे जी से संपर्क की कोशिशें भी जारी रखी हैं। उनकी शिकायत है कि कांग्रेस सकारात्मक जवाब नहीं देती। राजस्थान जाकर उन्होंने कांग्रेस सरकार पर आक्रामक टिप्पणियाँ भी कीं। केजरीवाल पलीता विशेषज्ञ के रूप में उभरे हैं। सुबह आपकी आरती उतारेंगे, और शाम को कीचड़ उछालेंगे। दिल्ली के मंत्री सौरभ भारद्वाज ने हाल में कहा है कि दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस 2024 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़े तो हमारी पार्टी मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ उम्‍मीदवार खड़े नहीं करेगी। फिलहाल वे दिल्ली-अध्यादेश को लेकर कांग्रेसी-समर्थन चाहते हैं।

एक सवाल और है। संभावित एकता-फॉर्मूला अगले साल के लोकसभा चुनाव के लिए होगा या अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी लागू होगा? जिस समय आप ये पंक्तियाँ पढ़ रहे हैं मध्य प्रदेश में चुनाव अभियान शुरू हो गया है। 27 को भोपाल में प्रधानमंत्री की रैली के साथ एक प्रकार से चुनाव के नगाड़े बज चुके हैं। प्रधानमंत्री ने कहा है कि भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच सख्ती से होगी। आप’ ने भी मध्य प्रदेश में अपना अभियान शुरू कर दिया है। उसने छत्तीसगढ़ सरकार को भ्रष्टाचार का अड्डा बताया है। उसकी रणनीति इन दोनों राज्यों में गुजरात-शैली में प्रचार करने की है। बेंगलुरु-बैठक में केजरीवाल शामिल हुए, तो यह देखना रोचक होगा कि वे क्या बातें करेंगे

इच्छाधारी विचारधारा

पार्टियों के विचार-परिवर्तन पर वोटर भी नज़र रखता है। आदर्शवाद और अवसरवाद के फर्क को वह पहचानता है। विचारधाराओं का इस्तेमाल टॉयलेट पेपर की तरह हो रहा है। पर, धर्मनिरपेक्षता के गुलाबी लिफाफे में रखने से भ्रष्टाचार की कालिख का रंग बदल नहीं जाता। मतदाता भी भेड़-बकरी नहीं हैं। पार्टियों या नेताओं के साथ आने भर से एक-दूसरे के विरोधी मतदाता साथ खड़े नहीं हो जाते हैं। वन-टु-वनउम्मीदवार खड़े करने को जीत की गारंटी नहीं मान लेना चाहिए।

आम आदमी पार्टी पक्षियों-विपक्षियों पर लानतें भेजते हुए पैदा हुई थी। अब उन्हीं से समर्थन माँग रही है। उधर नीतीश कुमार का रिपोर्ट-कार्ड देखें, तो उसमें ईसीजी रिपोर्ट जैसी ऊँची-नीची रेखाएं दिखाई पड़ेंगी। ममता बनर्जी उन चुनींदा राजनेताओं में से हैं, जो एनडीए और यूपीए दोनों सरकारों में शामिल रही हैं। ऐसा ही डीएमके साथ रहा है। पूछें कि शरद पवार ने कांग्रेस क्यों छोड़ी थी? एकता के पटना-आयोजन के पीछे ममता बनर्जी का यह विचार था कि जैसे जयप्रकाश नारायण ने 1977 में जनता पार्टी की एकता तैयार की वैसा ही अब होगा। पर इस बैठक में किसी ने न जयप्रकाश का नाम लिया और न इंदिरा गांधी का। उसपर तफसील से बात करना तो दूर की बात है।

बुनियादी सवाल

पटना का आयोजन विचार-मंथन और संभावनाएं खोजने और साझा रणनीति बनाने पर केंद्रित था। लगता है कि बातचीत कुछ बुनियादी सवालों पर रुकेगी। पहला बुनियादी सवाल है कि यह पहल किसकी है? बैठक पटना में थी और उसकी व्यवस्था नीतीश कुमार ने की थी, इसलिए श्रेय उन्हें जाता है। उनके पीछे ममता बनर्जी की प्रेरणा है। पर एकता के सूत्र केवल नीतीश जी तैयार नहीं करेंगे। सिद्धांततः सभी नेता मिलकर ये सूत्र बनाएंगे। पर, व्यावहारिक राजनीति नेपथ्य में ज्यादा होती है, मंच पर कम।  

पटना में ज्यादातर वही नेता आए थे, जो आमतौर पर गैर-बीजेपी सरकारें बनने पर शपथ-ग्रहण के समय मंच पर खड़े होकर हाथ ऊँचे करके फोटो खिंचाते हैं। कर्नाटक के अतिथि, पटना में भी आए थे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पटना में स्वयं आई थीं, जबकि बेंगलुरु में उन्होंने अपनी प्रतिनिधि काकोली घोष दस्तीदार को भेजा था। पिछले कुछ महीनों में ममता के बयानों में विसंगति है। त्रिपुरा के चुनाव के बाद उन्होंने कहा, अब हम अकेले लड़ेंगे, और कर्नाटक के परिणाम के बाद कहा हम विरोधी-एकता के लिए तैयार हैं।

बंगाल का मायाजाल

पश्चिम बंगाल में तृणमूल का मुकाबला बीजेपी के अलावा वाम मोर्चा से है। एक तरफ कांग्रेस और वाममोर्चा के रिश्ते स्पष्ट करने की कोशिशें है, वहीं अधीर रंजन चौधरी ने एक इंटरव्यू में कहा है कि 'गठबंधन राजनीति' की सबसे कमज़ोर कड़ी ममता हैं। उन्होंने हमेशा ट्रोज़न हॉर्स की भूमिका निभाई है। इधर केरल के कांग्रेस अध्यक्ष के सुधाकरन की गिरफ्तारी से कांग्रेस और वाममोर्चा के रिश्तों की खटास बढ़ गई है।

तेलंगाना की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) जैसी कुछ क्षेत्रीय पार्टियां अब भाजपा से ज्यादा कांग्रेस से खतरा महसूस कर रही हैं। सपा और तृणमूल जैसी पार्टियां चाहती हैं कि कांग्रेस उनके राज्य में मैदान छोड़े, या फिर हर चुनाव-क्षेत्र में एक साझा उम्मीदवार देने के लिए उनके मातहत आ जाए। कांग्रेस पहले से तमिलनाडु, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड में मातहत की भूमिका में है।

अनुपस्थित नेता

जितने महत्वपूर्ण बैठकों में उपस्थित नेता रहे हैं, उतने ही महत्वपूर्ण अनुपस्थित नेता भी हैं। बेंगलुरु में अरविंद केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव, जगन मोहन रेड्डी,  नवीन पटनायक और मायावती की उपस्थिति नहीं थी। चंद्रबाबू नायडू भी नहीं थे, वही चंद्रबाबू जो 2019 के चुनाव के पहले ऐसे ही विरोधी मोर्चे का गठन कर रहे थे, जैसा नीतीश जी इस समय कर रहे हैं। इनमें से केवल केजरीवाल पटना में उपस्थित थे, पर वे सभा के बीच से उठकर चले गए।

भौगोलिक-दृष्टि से इस योजना में केरल, आंध्र, तेलंगाना और ओडिशा की भागीदारी नहीं है। कर्नाटक का जेडीएस भी इसमें शामिल होने वाला नहीं है। यह स्पष्ट नहीं है कि येचुरी जी केरल का प्रतिनिधित्व करते हैं या बंगाल का। पंजाब का अकाली दल भी इस योजना से बाहर है और हरियाणा के गैर-भाजपा दलों की उपस्थिति भी इसमें नहीं है। कांग्रेस को छोड़कर शेष सभी की दिलचस्पी केवल एक-एक राज्य तक सीमित है। फिर भी आधा-दर्जन नेताओं की निगाहें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। नीतीश जी को भरोसा है कि वे बीजेपी को 100 के भीतर निपटा सकते हैं, तो यकीनन वे इतने से ही संतुष्ट नहीं होंगे। वे देश की सेवा भी करना चाहेंगे।

तीन के तेरह  

गठबंधनों का गणित आसान नहीं होता। फिर भी मान लेते हैं कि तीन राज्यों के पचड़े निपट जाएं, तो विरोधी-एकता में दिक्कत नहीं होगी। ये राज्य हैं पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब। केजरीवाल के रुख को देखते हुए पंजाब में गठबंधन मुश्किल लगता है। पटना में ममता बनर्जी काफी उत्साहित थीं। क्या पश्चिम बंगाल में कांग्रेस+वामदल का तृणमूल के साथ गठबंधन होगा? क्या ममता कुछ सीटें छोड़ने को तैयार हो जाएंगी?

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का क्या बसपा या सपा (या दोनों) के साथ गठबंधन होगा? राज्य में विधानसभा और लोकसभा चुनावों का रोचक अनुभव है कि दो दलों का गठबंधन होने पर वोट और सीटें कम हो जाती हैं। पटना की बैठक में रालोद के जयंत चौधरी नहीं आए। क्या वे बेंगलुरु में आएंगे? कर्नाटक में कांग्रेस ने खुद को मुसलमानों की पार्टी साबित करने में सफलता प्राप्त कर ली है। क्या समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश में यह शुभ संदेश है?

बिहार विधानसभा चुनाव का अनुभव है कि जिन जगहों पर बीजेपी से सीधे मुकाबला हुआ, वहाँ कांग्रेस कमज़ोर साबित हुई। बंगाल में स्थानीय निकाय के चुनाव चल रहे हैं, जिसमें कांग्रेस+वामदल और तृणमूल का खूंखार सामना है। उनकी दोस्ती कैसे होगी?  फिर भी मान लेते हैं कि राजनीति में कुछ भी हो सकता है, पर यह असंभव-संभव ज्यादातर पोस्ट-पोल होता रहा है। ममता और येचुरी दोनों पोस्ट-पेड पर यकीन करते हैं।

पाञ्चजन्य में प्रकाशित लेख का नवीनतम घटनाओं को जोड़कर तैयार संवर्धित संस्करण

 

 

 

 

 

3 comments:

  1. one of the best artical i am reading your artical thanks People rojgar

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2023) को   "आया है चौमास" (चर्चा अंक 4671)   पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. समयानुकूल सटीक आलेख

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