तुर्की की सुप्रीम इलेक्शन कौंसिल ने इस बात की पुष्टि की है कि रजब तैयब एर्दोगान ने राष्ट्रपति पद के चुनाव में कामयाबी हासिल कर ली है. वे एकबार फिर से तुर्की के सदर मुंतख़ब हो गए हैं. इस साल तुर्की अपने लोकतांत्रिक इतिहास की 100वीं वर्षगाँठ मना रहा है. इनमें एर्दोगान के नेतृत्व के 21 साल शामिल हैं.
हालांकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक परिणाम
पूरी तरह आए नहीं हैं, पर उन्हें 52 फीसदी से ज्यादा वोट मिल चुके हैं और उनके
प्रतिस्पर्धी कमाल किलिचदारोलू को 47 फ़ीसदी से कुछ ज्यादा वोट मिले हैं.
करीब-करीब सभी बैलट बॉक्स खुल चुके हैं और अब
परिणाम में बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं बची है. बाकी सभी वोट भी यदि किलिचदारोलू के
खाते में चले जाएं, तब भी परिणाम पर फर्क नहीं पड़ेगा.
चुनाव-परिणाम आने के बाद एर्दोगान ने कहा कि यह
तुर्की की जीत है. वे अभी चुनाव की मुद्रा में ही हैं, क्योंकि अब वे आगामी मार्च
में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों की तैयारी में जुट जाएंगे.
विरोधी परास्त
एर्दोगान की विजय के साथ पश्चिमी देशों में लगाई जा रही अटकलें ध्वस्त हो गई हैं कि तुर्की की व्यवस्था में बदलाव होगा, बल्कि एर्दोगान अब ज्यादा ताकत के साथ अगले पाँच या उससे भी ज्यादा वर्षों तक अपने एजेंडा को पूरा करने की स्थिति में होंगे.
एर्दोगान की पार्टी का नाम एकेपी (जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी) है. उनके मुकाबले छह विरोधी दलों ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़ने का फैसला किया था और पीपुल्स रिपब्लिकन पार्टी (सीएचपी) के कमाल किलिचदारोलू को अपना प्रत्याशी बनाया था, जिन्हें कुर्द-पार्टी एचडीपी का भी समर्थन हासिल था.
राष्ट्रीय अस्मिता
एर्दोगान अपने मतदाताओं को यह समझाने में
कामयाब हुए हैं कि इस चुनाव का वास्ता 50 फीसदी की मुद्रास्फीति, महंगाई वगैरह से
नहीं था, बल्कि राष्ट्रीय पहचान, गौरव और अस्मिता से जुड़ा था. एर्दोगान ने अब तक
के विशालतम युद्धपोत, पाँचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान, पहली इलेक्ट्रिक कार और रूस
की सहायता से बने नाभिकीय संयंत्र को प्रतीक रूप में पेश किया.
उन्होंने यह चुनाव तुर्की की अस्मिता और
संस्कृति के नाम पर जीता है. उन्होंने देश की जनता को याद दिलाया कि पीर (सोमवार)
को सल्तनत-ए-उस्मानिया को इस्तानबूल फ़तह किए हुए 570 बरस हो जाएंगे. वह हमारी तारीख़ में एक
टर्निंग पॉइंट था, जिसने एक दौर का आग़ाज़ किया था। मुझे उम्मीद है कि यह चुनाव भी
वैसा ही एक टर्निंग पॉइंट साबित होगा.
उन्होंने विपक्ष को तुर्क-संस्कृति का विरोधी
बताया. उनके प्रतिस्पर्धी किलिचदारोलू को कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) का
समर्थन मिला था. इसपर एर्दोगान ने कहा था कि मेरे विरोधी अलगाववादियों के साथ मिल
गए हैं.
उन्होंने अपने भाषणों में यह भी कहा कि विरोधी
गठबंधन को कुर्दिस्तान वर्कर्स पार्टी (पीकेके) का समर्थन प्राप्त है, जो
अलगाववादी प्रतिबंधित संगठन है. इतना ही नहीं विरोधियों को गुलेन संप्रदाय का
समर्थन भी प्राप्त था, जिसपर 2016 में हुए तख्ता-पलट के प्रयासों का आरोप है.
सरकारी तंत्र का इस्तेमाल
किलिचदारोलू ने इन चुनावों को हाल के वर्षों
में देश का सबसे धांधली वाला चुनाव क़रार दिया है. उन्होंने कहा कि सत्तारूढ़ दल ने
चुनाव में जीत के लिए उनके ख़िलाफ़ पूरे सरकारी तंत्र का इस्तेमाल किया. दूसरी तरफ
नतीजों से यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि तक़रीबन आधी आबादी ने एर्दोगान के
अधिनायकवादी शासन के विरोध में मतदान किया है.
पश्चिम-परस्त लोगों को इस बात से संतोष हो सकता
है कि पहली बार राष्ट्रपति के चुनाव में दूसरे दौर का मतदान हुआ. तुर्की के विपक्ष
को पहली बार लगा कि एर्दोगान को परास्त किया जा सकता है.
उन्होंने विरोधी गठबंधन को निशाना बनाते हुए
कहा कि इन्होंने 2018 में 146 सीटें हासिल की थीं, लेकिन इस साल 169 इसलिए हासिल कीं, क्योंकि
इन्होंने बाक़ी जमातों सके साथ इत्तिहाद किए. इसका मतलब यह नहीं है कि वे मज़बूत हुए
हैं.
मीडिया की भूमिका
उन्होंने एक वीडियो भी जारी किया था, जिसमें
पीकेके के लड़ाके किलिचदारोलू के समर्थन में गीत गा रहे हैं. हालांकि वह वीडियो
बाद में फर्जी साबित हुआ, पर एर्दोगान को उसका लाभ मिल चुका था.
सरकारी मीडिया तो एर्दोगान समर्थक है ही,
ज्यादातर निजी न्यूज चैनलों ने भी उनका समर्थन किया. ज्यादातर के मालिक उनके
समर्थक हैं और उन्होंने एर्दोगान को भरपूर सहयोग दिया. किलिचदारोलू ने ज्यादातर
सोशल मीडिया और छोटे-मोटे चैनलों का सहारा लिया. पहले दौर के मतदान में 5.2 फीसदी
वोट पाने वाली राष्ट्रवादी पार्टी सिनान ओगान ने दूसरे दौर में एर्दोगान का समर्थन
किया.
अर्थव्यवस्था
एर्दोगान ने लोगों से कई तरह के वायदे भी किए
हैं, जिनमें भूकंप से प्रभावित इलाकों में साढ़े छह
लाख नए घर बनाना, मुद्रास्फीति की दर को घटाकर 20 फीसदी
तक लाना, जो 50 फीसदी तक पहुँच गई थी. उनका कहना है कि उसे
2024 तक महंगाई दर को 10 फीसदी के स्तर तक ले आएंगे.
डॉलर की तुलना में देश की मुद्रा लीरा की कीमत
पिछले पाँच साल में 80 फीसदी से ज्यादा घट चुकी है. सन 2002 के बाद पहली बार ऐसा
मौका है, जब विदेशी मुद्रा कोष की हालत खराब है. स्थानीय पूँजीपतियों और विदेशी
मददगारों का सहारा मिलने के बाद भी करीब 70 अरब डॉलर का रिज़र्व है, जो खतरे का निशान
पार कर चुका है. अब ब्याज की दरें नहीं बढ़ीं, तो मुश्किल होगी.
इसके अलावा सीरिया के शरणार्थियों को वापस उनके घर
भेजना और सीरिया के राष्ट्रपति से समझौता करना भी चुनावी वायदों में शामिल है. एर्दोगान
विरोधी गठबंधन ने तुर्की की लोकतांत्रिक संस्थाओं में सुधार करने और एक व्यक्ति की
तानाशाही को खत्म करने का वायदा किया था, पर उसे सफलता नहीं मिली. एर्दोगान के पास
अब संसद की 600 में से 323 सीटें हैं. इसकी मदद से वे न्यायपालिका, केंद्रीय बैंक
और अपनी पार्टी पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं.
लंबा कार्यकाल
आधुनिक दौर में कमाल अतातुर्क के बाद किसी नेता
ने देश को आकार देने का काम किया है, तो वे एर्दोगान हैं. उन्होंने इस जीत के बाद कहा
है कि यह मेरा आखिरी दौर होगा, पर जरूरी नहीं कि वे अपनी बात पर कायम रहें. 2017
में किए गए एक संविधान संशोधन के अनुसार यदि संसद के चुनाव समय से पहले हो, तब
राष्ट्रपति तीसरे दौर में भी चुनाव लड़ सकते हैं.
संसद में बहुमत को देखते हुए वे अपनी मर्जी के
फैसले कर सकते हैं. वे इस समय 69 वर्ष के हैं और इस चुनाव के बाद 2028 तक इस पद पर
रहेंगे, पर कहा जा रहा है कि वे 2030 के बाद तक भी आसानी से काम कर सकते हैं.
फौरी असर
तुर्की का ज्यादातर इलाका यूरोप से और कुछ
हिस्सा पश्चिम एशिया के साथ जुड़ा हुआ है. वह नेटो का सदस्य है, पर हाल के वर्षों
में उसके नेटो के साथ रिश्तों में कड़वाहट आई है. तुर्की ने हाल में नेटो में
स्वीडन की सदस्यता को वीटो कर दिया था.
उसके पहले उसने रूस से एस-400 एयर डिफेंस
सिस्टम खरीद कर अमेरिका के साथ रिश्ते बिगाड़े थे. इस वजह से अमेरिका ने तुर्की को
फाइटर जेट की अपनी परियोजना से अलग कर दिया था. इन दोनों नकारात्मक बातों के
विपरीत उसने यूक्रेन से आने वाले गेहूँ के शिपमेंट से जुड़े समझौते में शामिल होकर
वैश्विक खाद्य-संकट को टालने में भूमिका निभाई थी.
देखना होगा कि एर्दोगान अपने इस दौर में किस
प्रकार की भूमिका निभाएंगे. वे देश के नए संविधान की बातें भी करते रहे हैं. वे
क्या चाहते हैं, यह अब ज्यादा स्पष्ट होगा.
एर्दोगान ने अपने पहले दौर में यूरोपियन यूनियन
में शामिल होने की कोशिशें शुरू की थीं. इसके अलावा उन्होंने आर्थिक-प्रगति की
राहें भी खोजनी शुरू की थीं, पर बीच रास्ते में उनपर अपने विरोधियों के दमन और
मानवाधिकार-उल्लंघन के आरोप लगने लगे.
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