उत्तर प्रदेश के माफिया अतीक अहमद के बेटे असद की एनकाउंटर से हुई मौत ने आधुनिक भारत की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के सामने कुछ सवाल खड़े किए हैं। इस मौत ने उत्तर प्रदेश सरकार की कानून-व्यवस्था से जुड़ी नीतियों पर सवालिया निशान भी लगाए हैं। यह आलेख जब लिखा गया था, तब तक अतीक अहमद और उनके भाई की हत्या नहीं हुई थी, पर शनिवार की शाम अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की प्रयागराज में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस घटना में तीन आरोपी कथित रूप से शामिल है, जिन्हें पुलिस ने बाद में गिरफ्तार कर लिया है। अब इस मामले ने एक और मोड़ ले लिया है।
जनता क्या
चाहती है?
हिंसा और अपराध के इस चक्रव्यूह में राजनीति और
समाज-व्यवस्था की भी बड़ी भूमिका है। जनता के बड़े तबके ने, जिस तरह से असद की मौत
पर खुशी मनाई है, तकरीबन वैसा ही 2019 में हैदराबाद में दिशा-बलात्कार मामले के
चार अभियुक्तों की हिरासत में हुई मौत के बाद हुआ था। उन दिनों ट्विटर पर एक
प्रतिक्रिया थी, ‘लोग भागने की कोशिश में मारे गए,
तो अच्छा हुआ। पुलिस ने जानबूझकर मारा, तो
और भी अच्छा हुआ।’ किसी ने लिखा, ‘ऐसे दस-बीस एनकाउंटर और होंगे, तभी अपराधियों के मन में दहशत पैदा होगी।’ अतीक के बेटे के एनकाउंटर
को लेकर राजनीतिक दलों ने अपनी विचारधारा के आधार पर भी प्रतिक्रिया दी है, पर हैदराबाद
प्रकरण में ज्यादातर राजनीतिक नेताओं और सेलेब्रिटीज़ ने एनकाउंटर का समर्थन किया
था। जया बच्चन ने बलात्कार कांड के बाद राज्यसभा में कहा था कि रेपिस्टों को लिंच
करना चाहिए और उस एनकाउंटर के बाद कहा-देर आयद, दुरुस्त
आयद। कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने, जो
खुद वकील हैं ट्वीट किया, हम ‘जनता की भावनाओं का सम्मान’ करें।
यह ट्वीट बाद में हट गया। मायावती ने कहा, यूपी की पुलिस
को तेलंगाना से सीख लेनी चाहिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी समर्थन में ट्वीट
किया, जिसे बाद में हटा लिया। दिल्ली महिला आयोग की
अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने परोक्ष रूप से इसका समर्थन किया। पी चिदंबरम और शशि
थरूर जैसे नेताओं ने घूम-फिरकर कहा कि एनकाउंटर की निंदा नहीं होनी चाहिए। हैदराबाद
पुलिस को बधाइयाँ दी गईं। इस टीम में
शामिल पुलिस वालों के हाथों में लड़कियों ने राखी बाँधीं, टीका लगाया, उनपर फूल
बरसाए।
क्या यही न्याय है?
ज्यादातर लोग इस बात पर जाना नहीं चाहते कि
एनकाउंटर सही है या गलत। कोई यह भी नहीं जानना चाहता कि मारे गए चारों अपराधी थे
भी या नहीं। जनता नाराज है। उसके मन में तमाम पुराने अनुभवों का गुस्सा है।
अपराधियों को सीधे गोली मारने की पुकार इससे पहले कभी इतने मुखर तरीके से नहीं की
गई। क्या वजह है कि इसे जनता सही मान रही है? जनता
को लगता है कि अपराधियों के मन में खौफ नहीं है। उन्हें सजा मिलती नहीं है। पर
सरकारी हिंसा को जनता का इस कदर समर्थन भी कभी नहीं मिला। कम से कम पुलिस पर ऐसी
पुष्पवर्षा कभी नहीं हुई। जनता की हमदर्दी पुलिस के साथ यों भी नहीं होती। तब ऐसा
अब क्यों हो रहा है? हैदराबाद की परिघटना के समर्थन के साथ विरोध भी हुआ था, पर समर्थन के
मुकाबले वह हल्का था। वह मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया और अब तेलंगाना पुलिस पर दबाव
है कि वह अपनी टीम के खिलाफ हत्या का मुकदमा चलाए, तब सवाल उठता है कि पुलिस वाले
हीरो थे या विलेन? एनकाउंटर उन्होंने अपनी इच्छा से किया या ऊपर
के आदेश थे? अदालत किसे पकड़ेगी? क्या
अपराधियों का इलाज यही है? क्या हमें कस्टोडियल मौतें स्वीकार हैं?
पुलिस की हिरासत में मरने वाले सभी अपराधी नहीं होते। निर्दोष भी
होते हैं, पर पुलिस का कुछ नहीं होता। ऐसे मामलों में भी
किसी को सजा नहीं मिलती।
न्याय से निराशा
पुलिस हिरासत में मौत का समर्थन जनता नहीं करती है। तालिबानी-इस्लामी स्टेट की तर्ज पर सरेआम गोली मारने या गर्दन काटने का समर्थन भी वह नहीं करती है, पर उसके मन में यह बात गहराई से बैठ रही है कि अपराधी कानूनी शिकंजे से बाहर रहते हैं। अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल उठे हैं। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं। वास्तव में बड़े अपराधी साधन सम्पन्न हैं। वे अपने साधनों की मदद से सुविधाएं हासिल कर लेते हैं। जेल जाते हैं, तो वहाँ भी उन्हें सुविधाएं मिलती हैं। सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति को न्याय किस तरह से मिले? उसके मन में बैठे अविश्वास को कैसे दूर किया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है।
कौन है अतीक?
अतीक फैक्टर को भी समझने की जरूरत है। अतीक़
अहमद के बेटे असद और एक अन्य अभियुक्त ग़ुलाम मोहम्मद की झाँसी के एनकाउंटर में हुई
मौत के पहले दो लोग और मारे जा चुके हैं। चार मकानों को बुलडोज़रों की मदद से
गिराया जा चुका है। अतीक अहमद की राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण इस कांड के राजनीतिक
निहितार्थ हैं। अतीक अहमद अपने दमखम के सहारे 1989 से पाँच बार विधानसभा चुनाव
जीते। बाद में वे समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए और 2004 के लोकसभा चुनाव में भी
जीते। विधानसभा क्षेत्र इलाहाबाद पश्चिम से उनकी सीट खाली हुई, तो 2004 के उपचुनाव
में उन्होंने अपने भाई को भी वहाँ से मैदान में उतारा, पर वे बसपा के प्रत्याशी
राजू पाल से हार गए। इसके बाद 25 जनवरी, 2005 को राजू
पाल के क़ाफ़िले पर हमला हुआ। उन्हें कई गोलियां लगीं, जिसमें उनकी मौत हो गई। 18
साल हो गए अभी तक उस मामले का फैसला नहीं हुआ है। उसमें कुछ नए प्रकरण जुड़ते गए
हैं और खूनी रेखाएं खिंचती चली गई हैं। इस साल 24 फरवरी को जिस उमेश पाल की हत्या
हुई थी, वे राजू पाल की हत्या के मुख्य गवाह थे। इस हत्याकांड में पुलिस को उन
दोनों व्यक्तियों की तलाश थी, जिनकी झाँसी के एनकाउंटर में मौत हुई है। दोनों पर
पांच-पांच लाख रुपए का इनाम रखा गया था। सीसीटीवी में ये दोनों गोली चलाते हुए देखे
जा सकते हैं।
‘मिट्टी में मिला देंगे’
अब एक नज़र ‘योगी फैक्टर’ पर। 2017 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य की कानून-व्यवस्था को रास्ते पर लाने की
घोषणा की थी। 2 जून, 2017 को इंडिया टीवी के कार्यक्रम ‘आप की अदालत’ में उन्होंने कहा अपराधियों को ‘ठोक दिया जाएगा।’ 2022 के चुनाव प्रचार के दौरान शामली की एक सभा
में योगी आदित्यनाथ ने कहा था, जो लोग उत्तर प्रदेश में अराजकता, फसाद और
माफियावाद लाना चाहते हैं, ये देख लो 10 मार्च के बाद यह गर्मी शांत करवा देंगे। उमेश
पाल की हत्या के एक दिन बाद उन्होंने विधानसभा में कहा, ‘इस सदन में कह रहा हूँ, इस माफिया को मिट्टी में मिला देंगे।’
उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका यह बयान अब एक नया मुहावरा बनकर उभरा है। पर्यवेक्षक
मानते हैं कि इस बयान का इस्तेमाल आने वाले लोकसभा चुनाव में किया जाए, तो हैरत
नहीं होगी। सवाल वही है, समस्या
का समाधान कौन करेगा, राजनीति, समाज या न्याय-व्यवस्था?
183 एनकाउंटर
झाँसी एनकाउंटर के बाद यूपी भाजपा के आधिकारिक
ट्विटर हैंडल से 'जो कहते हैं, वो कर
दिखाते हैं' के ट्वीट के साथ योगी आदित्यनाथ के बयान
के ‘मिट्टी में मिला देंगे’ वीडियो को भी
अटैच किया गया है। बुलडोजर की कार्रवाई को उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव
में मुद्दा बनाया गया था। भाजपा ने इसे अपने पक्ष में भुनाया, बल्कि बुलडोजर के
पोस्टर लगाए गए। मीडिया
रिपोर्टों के अनुसार 2017 के बाद से झाँसी में हुआ 183 वाँ एनकाउंटर है। उत्तर
प्रदेश पुलिस के अधिकारी कहते हैं कि अपराधों के प्रति हमारी ज़ीरो टॉलरेंस नीति
है। इन 183 एनकाउंटरों के अलावा सरकारी डेटा के अनुसार पुलिस ऑपरेशन में घायल
5,046 अपराधियों को गिरफ्तार किया गया है। जिन ऑपरेशनों में अपराधियों के पैरों
में गोली मारी जाती है, उसे ‘ऑपरेशन लँगड़ा’ कहते हैं। इन ऑपरेशनों में पिछले छह वर्षों में 13
पुलिसकर्मी शहीद हुए हैं और 1443 घायल हुए हैं। डेटा
पर ध्यान दें, तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा एनकाउंटर मौतें 2018 में हुईं थीं। यानी
उनके पहली बार पद ग्रहण करने के दूसरे साल। और सबसे कम 2022 में हुईं, उनके दूसरी
बार चुने जाने के बाद।
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