सुप्रीम कोर्ट में गत 29 मार्च को जस्टिस केएम जोसफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने हेट स्पीच मामले पर सुनवाई के दौरान टिप्पणी की कि जिस दिन राजनीति और धर्म अलग हो जाएंगे, और नेता राजनीति में धर्म का उपयोग करना बंद कर देंगे, उसी दिन नफरत फैलाने वाले भाषण भी बंद हो जाएंगे। उन्होंने यह भी कहा कि हम अपने हाल के फैसलों में भी कह चुके हैं कि पॉलिटिक्स को राजनीति के साथ मिलाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। वहीं, जस्टिस बीवी ने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी की मिसाल देते हुए कहा, 'वाजपेयी और नेहरू को याद कीजिए, जिन्हें सुनने के लिए लोग दूर-दराज से एकत्र होते थे। हम कहां जा रहे हैं?' इसके पहले अदालत कह चुकी है कि खबरिया चैनलों के एंकर अपने कार्यक्रमों के माध्यम से हेट स्पीच परोसते रहे हैं। खंडपीठ ने नफरती भाषण देने वाले लोगों पर सख्त आपत्ति जताते हुए सवाल किया है कि लोग खुद को काबू में क्यों नहीं रखते हैं? यह ‘काबू’ शब्द भी विचारणीय है। हेट स्पीच क्या बेकाबू होकर होती है या जो बाला जाता है वह सोचा-समझा होता है?
किसकी हेट स्पीच?
सुप्रीम कोर्ट में इस
प्रश्न पर चल रही बहस को गौर से सुनने की जरूरत है। इस बहस के साथ देश की राजनीति,
प्रशासन और सामाजिक व्यवस्था के बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न जुड़े हैं। ऐसे तमाम
प्रश्नों पर हमें विचार करना चाहिए। केरल के पत्रकार शाहीन
अब्दुल्ला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके मांग की है कि वह देशभर में हुई
हेट स्पीच की घटनाओं की निष्पक्ष, विश्वसनीय और स्वतंत्र जांच के लिए
केंद्र सरकार को निर्देशित करें। भारत में मुसलमानों को डराने-धमकाने के चलन को
तुरंत रोका जाए। हालांकि, कोर्ट ने यह भी पूछा कि क्या मुसलमान
ऐसे बयान नहीं दे रहे हैं?
और कुछ सवाल
अदालत की टिप्पणी पर केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि केंद्र चुप नहीं है। केरल जैसे राज्य चुप थे, जब मई 2022 में पीएफआई (प्रतिबंधित संगठन पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया) की एक रैली में हिंदुओं और ईसाइयों के खिलाफ नरसंहार के आह्वान किए गए थे। उन्होंने आश्चर्य जताया कि जब अदालत इस बारे में जानती थी, तो उसने स्वत: संज्ञान क्यों नहीं लिया। उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि तमिलनाडु में डीएमके के एक प्रवक्ता ने कहा था, ‘जो भी पेरियार कहते थे, वह किया जाना चाहिए… यदि आप स्वतंत्रता चाहते हैं तो आपको सभी ब्राह्मणों की हत्या करनी होगी।’ इस पर जैसे ही जस्टिस जोसफ हँसे, मेहता ने कहा, ‘यह हँसी की बात नहीं है। मैं इसे हँसी में नहीं उड़ाऊँगा। इस आदमी के खिलाफ एफआईआर नहीं हुई है। इतना ही नहीं, वे एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के प्रवक्ता बने हुए हैं।’
धर्म की राजनीति
उन्होंने केरल की एक क्लिप चलाने के लिए अदालत
की अनुमति माँगी, जहाँ मई 2022 में पीएफआई की रैली के
दौरान एक बच्चे ने कथित तौर पर हिंदुओं और ईसाइयों के खिलाफ नरसंहार के नारे लगाए
थे, लेकिन अनुमति नहीं मिला। मेहता ने याचिकाकर्ता
पर निशाना साधते हुए कहा कि दुर्भाग्य से यह क्लिप केरल से हैं और याचिकाकर्ता
केरल से हैं, लेकिन यह तथ्य अदालत के संज्ञान में नहीं ला
रहे हैं। जस्टिस जोसफ ने कहा, ‘बड़ी समस्या तब होती है, जब राजनेता सत्ता के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं।’ मेहता ने कहा
कि केरल की क्लिप का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, यह
‘शुद्ध और सरल धार्मिक घृणा से भरा भाषण था।’ इस पर जस्टिस जोसफ ने कहा, ‘इसका राजनीति से सब कुछ लेना-देना है। घृणा एक दुष्चक्र है। राज्य को
कार्रवाई शुरू करनी होगी। जिस क्षण राजनीति और धर्म को अलग कर दिया जाएगा, यह सब बंद हो जाएगा।’
राज्यों की भूमिका
नफरती बोल बोलने वालों
के खिलाफ कार्रवाई न होने को लेकर महाराष्ट्र समेत अलग-अलग राज्यों के खिलाफ
अवमानना याचिका पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है। अक्तूबर
2022 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पुलिस
प्रमुखों को औपचारिक शिकायतों का इंतजार किए बिना आपराधिक मामले दर्ज करके नफरत
भरे भाषणों से जुड़े अपराधियों के खिलाफ ‘तत्काल’ स्वत: कार्रवाई करने का निर्देश
दिया था। अदालत ने यह भी
चेतावनी दी थी कि इस अत्यंत गंभीर मुद्दे पर कार्रवाई करने में प्रशासन की ओर से
कोई भी देरी अदालत की अवमानना को आमंत्रित करेगी। खंडपीठ के सामने उपरोक्त याचिका
के अलावा हेट स्पीच से जुड़ी एक दर्जन के आसपास याचिकाएं और हैं। ऊपर कही गई बातें आमतौर पर इससे पहले भी कही जाती रही हैं, पर जस्टिस
जोसफ की टिप्पणी ध्यान खींचती है। उन्होंने कहा, 'राज्य
नपुंसक है। वह समय पर कार्रवाई नहीं करता। जब राज्य ऐसे मसलों पर चुप्पी साध लेगा
तो फिर उनके होने का मतलब क्या है?
राज्य या राजव्यवस्था?
उनकी इस बात का लोगों ने अपने-अपने तरीके से
विश्लेषण किया है। ‘राज्य’ यानी स्टेट का मतलब राज्य सरकारें। ‘राज्य’
का व्यापक अर्थ भी होता है। राज्य के अंतर्गत सरकारें तो आती ही हैं,
न्याय-व्यवस्था, विधायिका और अन्य संस्थाएं भी आती हैं। व्यापक अर्थ में राजनीति और
समाज-व्यवस्था को भी उसमें शामिल किया जाना चाहिए। फिलहाल ऐसा लगता है कि अदालत का
आशय राज्य सरकार से है। शाहीन अब्दुल्ला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करते
हुए कहा था कि सुप्रीम कोर्ट राज्यों को कई बार हेट स्पीच पर लगाम लगाने के आदेश
दे चुका है। इसके बावजूद हिंदू संगठनों की हेट स्पीच पर लगाम लगाने में महाराष्ट्र
सरकार विफल रही है। याचिकाकर्ता ने मांग की थी कि महाराष्ट्र सरकार के खिलाफ
अवमानना की कार्रवाई की जाए। पिछली सुनवाई में याचिकाकर्ता के वकील निजामुद्दीन
पाशा ने कोर्ट में कहा कि महाराष्ट्र पुलिस को एक हिंदू संगठन के खिलाफ कार्रवाई
करने का निर्देश दिया गया था, लेकिन इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं
हुई। संगठन पिछले चार महीने में 50 से अधिक रैलियां आयोजित कर चुका है। पीठ ने
अवमानना याचिका पर नोटिस जारी किया और इस पर सुनवाई के लिए 28 अप्रैल की तारीख तय
की है।
हेट स्पीच की परिभाषा
सुप्रीम कोर्ट को इस विषय पर विचार करते समय
हेट स्पीच की परिभाषा भी तय करनी होगी या केंद्र सरकार को इस आशय का निर्देश देना
होगा। कुछ याचिकाओं में इस आशय की माँग भी की गई है। देश में हेट स्पीच का कोई
कानून नहीं है। आमतौर पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए और बी के अलावा धारा
195ए के तहत फैसले किए जाते हैं। विधि आयोग ने 2017 में अपनी 267वीं रिपोर्ट में
कहा कि कानून की अनेक सामान्य व्यवस्थाओं के कारण अदालतों के सामने हेट स्पीच के
मामलों में दिक्कत होती है। हेट स्पीच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर भी
सफाई की जरूरत होगी। अक्सर लोग इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हैं। हम व्यक्ति
की स्वतंत्रता के हामी हैं, पर नहीं जानते कि इससे जुड़ी मर्यादाएं
भी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बंदिश लगाने के जोखिम भी हैं। संविधान के
अनुच्छेद 19(1) ए के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीम नहीं है। उसपर विवेकशील
पाबंदियाँ हैं। सिनेमाटोग्राफिक कानूनों के तहत सेंसरशिप की व्यवस्था भी है। इंटरनेट
पर पहचान छिपाकर झूठ और आक्रामक विचार आसानी से फैलाए जा रहे हैं। ऐसे में भेदभाव
बढ़ाने वाली भाषा को भी हेट-स्पीच के दायरे में रखा जाना चाहिए। सबसे ज्यादा भ्रामक
जानकारियां फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सएप जैसे प्लेटफॉर्मों
के जरिए फैलती हैं। इनके खिलाफ सख्त कानून बनने से कानूनी कार्रवाई का रास्ता
खुलेगा, पर फ्री-स्पीच के समर्थक मानते हैं कि
एंटी-हेट-स्पीच कानून का इस्तेमाल विरोधियों की आवाज दबाने के लिए किया जा सकता
है।
टीवी की भूमिका
हालांकि देश में आजादी के पहले से ऐसे बयानों
का चलन रहा है, पर 1992 में बाबरी विध्वंस के कुछ पहले
से इन बयानों ने सामाजिक जीवन के ज्यादा बड़े स्तर पर प्रभावित किया है। इस
परिघटना के समांतर टीवी का प्रसार बढ़ा और न्यूज़ चैनलों ने अपनी टीआरपी और कमाई
बढ़ाने के लिए इस ज़हर का इस्तेमाल करना शुरू किया है। नब्बे के दशक में लोग
गलियों-चौराहों और पान की दुकानों ज़हर बुझे भाषणों के टेपों को सुनते थे। विडंबना
है कि हेट स्पीच रोकने के लिए देश में तब भी कानून थे और आज भी हैं, पर किसी को सजा मिलते नहीं देखा गया है। चौराहों, नुक्कड़ों और भिंडी-बाजार के स्वर और शब्दावली विद्वानों की संगोष्ठी
जैसी शिष्ट-सौम्य नहीं होती। पर खुले गाली-गलौज को तो मछली बाजार भी नहीं सुनता।
वह भाषा सोशल मीडिया में पहले प्रवेश कर गई थी, अब
मुख्यधारा के मीडिया में भी सुनाई पड़ रही है।
लाइव प्रसारण
समाचार मीडिया को लाइव प्रसारण की जो छूट मिली
है, उसने अति कर दी है। टीवी मीडिया और सोशल मीडिया
बिना रेग्युलेशन के काम कर रहे हैं। उनका नियमन होना चाहिए। नब्बे के दशक में जब
देश में निजी चैनल शुरू हुए थे, तब आमतौर पर टीवी हार्ड न्यूज़ या
ब्रेकिंग न्यूज़ की मीडिया था। उसमें बहस या विमर्श का हिस्सा बहुत कम था। आज हालत
यह है कि आप दिन में जब भी टीवी खोलें, तो बहस होती
नज़र आएगी। बहस में भागीदार भले ही दस हों, एंकर
की कोशिश होती है कि एक पक्ष बनाम दूसरा पक्ष हो। वे चाहते हैं कि स्टूडियो में
तनाव पैदा हो। लाइव टीवी शो के दौरान थप्पड़, लात
और घूँसे भी चलते देखे गए हैं। सच यह है कि कार्यक्रमों की पटकथा एंकर नहीं लिखते।
वह तो चैनलों का प्रबंधन तय करता है। उसे टीआरपी चाहिए, जो
सनसनी, तनाव और टकराव से मिलती है।
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