वेणुगोपाल के इस बयान के साथ पार्टी के एक और
महासचिव जयराम रमेश के बयान को भी पढ़ें, तो स्पष्ट होता
है कि पार्टी विरोधी-एकता को महत्वपूर्ण मानती है। साथ में यह भी कहती है कि
राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का सामना करने की सामर्थ्य केवल कांग्रेस के पास ही है।
दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों की राय है कि बीजेपी का उभार कांग्रेस को कमज़ोर करके हुआ
है, क्षेत्रीय दलों की कीमत पर नहीं। उनका वैचारिक-मुकाबला
बीजेपी से है, पर अस्तित्व रक्षा का प्रश्न कांग्रेस
के सामने है। कांग्रेस अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए विरोधी-एकता चाहती है।
विरोधी एकता को लेकर इस विमर्श की शुरुआत पिछले हफ्ते पटना में हुए भाकपा माले की रैली से हुई, जिसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों की एकजुटता के लिए कांग्रेस को जल्द से जल्द पहल करने की बात कही थी। नीतीश ने रैली में मौजूद कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद को संकेत करते हुए कहा कि कांग्रेस हमारी बात माने, तो 2024 में बीजेपी को 100 से भी कम सीटों पर रोका जा सकता है। नीतीश कुमार के बयान से स्पष्ट नहीं है कि उनके पास कौन सा फॉर्मूला है, पर ज़ाहिर है कि वे उस महागठबंधन के हवाले से बात कर रहे हैं, जो बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव में बनाया गया था और कमोबेश आज उसी गठबंधन की बिहार में सरकार है।
इसके पहले कांग्रेस के सांसद शशि थरूर कह चुके हैं कि हरेक लोकसभा सीट पर विपक्ष का केवल एक उम्मीदवार हो तो भाजपा को रोका जा सकता है। ऐसा करने में दिक्कत क्या है? इसका जवाब कांग्रेस को देना है। विरोधी-दलों के भीतर से एक आवाज निकल कर आ रही है कि कांग्रेस अपने जनाधार को दूसरे दलों के साथ साझा करने को तैयार हो तो विजयी फॉर्मूला निकल आएगा। कांग्रेस कहती है कि राष्ट्रीय-स्तर पर बीजेपी का सामना करने की सामर्थ्य केवल हमारी पार्टी में ही है। वह केवल खुद को राष्ट्रीय और शेष दलों को एक-एक राज्य की पार्टी मानती है।
कांग्रेस के पास गठबंधन सरकार चलाने का 2004 से
2014 तक का अनुभव है, पर उन दस वर्षों में गठबंधन के भीतर
लगातार इस विषय पर तकरार होती रही। आज कांग्रेस 2014 की स्थिति में भी नहीं है और
दूसरे बहुत से विरोधी दल पहले से कहीं बेहतर स्थिति में हैं। फिलहाल पेच यह है कि
शेष विरोधी दल कांग्रेस के जनाधार में हिस्सा चाहेंगे, तो
कांग्रेस राजी नहीं होगी। बीजेपी को हराने के लिए वह अपनी कुर्बानी के रास्ते पर
नहीं जाएगी। दूसरी तरफ कांग्रेस विरोधी दलों को बच्चा मानकर एक-एक राज्य की पार्टी
बताएगी, तो उन्हें साथ लाना मुश्किल होगा। जाहिर है कि
‘गिव एंड टेक’ का रास्ता अपनाना होगा।
यह कैसे होगा इसपर ही कांग्रेस के महाधिवेशन में विचार होने वाला है। विरोधी दलों का कोई एक मंच नहीं है। इसलिए नहीं कह सकते कि उन सबकी एक राय क्या है। नीतीश कुमार बिहार के अनुभव पर बात कर रहे हैं, पर राष्ट्रीय-राजनीति में तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बीएसपी, भारत राष्ट्र समिति और अब आम आदमी पार्टी जैसे दल भी हैं, जिनका प्रभाव बढ़ रहा है। बीजेपी को हराने वाले गणित को राष्ट्रीय-स्तर पर लागू करने के लिए सभी विरोधी-दलों को एकसाथ बैठना होगा। कोई जरूरी नहीं कि एक राष्ट्रीय-मोर्चा बने, बल्कि अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग मोर्चे बन सकते हैं। सवाल है कि क्या सभी दलों के मन में बीजेपी को हराने की कामना है? बहुत सी पार्टियों की स्थानीय सत्ता से जुड़ी योजनाएं हैं। वे अपने राज्य तक सीमित रहना चाहती हैं। कुछ पार्टियाँ कांग्रेस के जनाधार को चोट पहुँचाकर विकसित हो रही हैं। मसलन आम आदमी पार्टी।
तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ’ब्रायन ने
हाल में एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित अपने लेख में लिखा कि 2024 में बीजेपी को
हराया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि लोकसभा चुनाव को अनेक राज्यों के विधानसभा
चुनावों को रूप में जोड़ा जाए। जब भी किसी इलाके की मजबूत पार्टी से बीजेपी को
सामना करना पड़ा, तो वह कमज़ोर साबित हुई है। उन्होंने
लिखा, मैं जानबूझकर क्षेत्रीय पार्टी (रीज़नल पार्टी)
शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि बहुत सी पार्टियों को
राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता मिली हुई है। यदि आप हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु,
केरल, आंध्र प्रदेश या तेलंगाना के चुनाव
परिणामों को जोड़कर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित करें, तो पाएंगे कि बीजेपी को 240 तक पहुँचने में भी मुश्किल होगी। मई,
2021 में पश्चिम बंगाल में क्या हुआ था? मोदी
और अमित शाह दोनों ने ज़ोर लगा दिया, पर हार गए।
जनवरी में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के
चंद्रशेखर राव ने खम्मम में अपनी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर लॉन्च करने के लिए
समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के अलावा केरल, पंजाब
और दिल्ली के मुख्यमंत्रियों को बुलाकर विरोधी-एकता की अलग कोशिश की। उस रैली में बुलावे
के बावजूद नीतीश कुमार नहीं आए। पिछले हफ्ते भाकपा माले की रैली में महागठबंधन की
एकता दिखाई पड़ी, पर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में अखिलेश यादव, मायावती, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव शामिल
नहीं हुए। नीतीश कुमार कुछ भी कहें, पर विरोधी एकता
के लिए ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती,
केसीआर और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं की भूमिका भी है। वामपंथी
दलों की दुविधा को भी समझना होगा। वे केरल में कांग्रेस का विरोध करेंगे और बंगाल
में कांग्रेस के साथ रहेंगे।
राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा के बाद से
कांग्रेस का हौसला बढ़ा है। उसके नेता बार-बार कह रहे हैं कि हमारे बिना विपक्षी-एकता
सफल नहीं होगी। जयराम रमेश ने कहा है कि एकता जरूरी है, लेकिन
विपक्ष की एकता के लिए यात्रा नहीं निकाली गई थी। अलबत्ता यात्रा का परिणाम
विरोधी-एकता के रूप में सामने आ सकता है। कांग्रेस के महाधिवेशन में इस पर विचार
होगा। कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है, जिसने भाजपा के
साथ कहीं भी समझौता नहीं किया है। उन्होंने किसी पार्टी का नाम लिए बगैर कहा,
कई पार्टियाँ हैं, जो मल्लिकार्जुन खड़गे जी के साथ बैठक
में आती हैं, लेकिन उनकी गतिविधियाँ सत्तापक्ष के साथ नजर
आती है। हमारे दो चेहरे नहीं हैं। जयराम रमेश की बात का आशय है कि भले ही कांग्रेस
का संख्याबल क्षीण हुआ है, पर हमारी भागीदारी के बगैर विपक्षी
एकता सफल नहीं होगी।
मंगलवार को पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे
ने नगालैंड की एक चुनाव रैली में कहा कि हम दूसरे दलों के साथ बातचीत कर रहे हैं
और 2024 में कांग्रेस के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनेगी। जाहिर है कि कांग्रेस को
गठबंधन का महत्व समझ में आ रहा है, फिर भी देखना होगा कि इस गठबंधन में
कौन से दल शामिल होंगे और यह अकेला गठबंधन होगा या नहीं। अलबत्ता शिलांग की सभा
में राहुल गांधी ने जिस तरह से तृणमूल कांग्रेस पर हमला किया है, उससे
लगता है कि कांग्रेस और तृणमूल के बीच दूरी बनी रहेगी। तब क्या कांग्रेसी गठबंधन के
समांतर कोई दूसरा गठबंधन भी खड़ा होगा? इस साल कर्नाटक
विधानसभा के चुनाव भी हैं। देखना यह भी होगा कि क्या खड़गे जी के गृहराज्य में
कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनेगी या नहीं।
नीतीश कुमार और जयराम रमेश के वक्तव्यों के साथ
तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी का वक्तव्य भी ध्यान खींचता
है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस को वोट देने का मतलब है बीजेपी को वोट देना, क्योंकि उससे बीजेपी को मजबूती मिलती है। उन्हें इस बात से शिकायत है
कि बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम ने तृणमूल के खिलाफ गठबंधन किया। वे यह भी कहते
रहे हैं कि कई राज्यों में कांग्रेस के विधायक जीतने के बाद बीजेपी में शामिल हो
जाते हैं।
कांग्रेस के भीतर इस बात पर विमर्श चल रहा है
कि पार्टी को 300 सीटों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और कुछ राज्यों में
क्षेत्रीय दलों को ज्यादा सीटें देनी चाहिए। एक मीडिया-रिपोर्ट में पार्टी के एक
नेता को उधृत किया गया है कि उत्तर प्रदेश में हमें सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ना
चाहिए। बिहार और महाराष्ट्र में हम बहुदलीय गठबंधनों में शामिल हैं। हमें कम सीटों
पर लड़ना होगा। हम कहें कि हम उत्तर प्रदेश या बंगाल में सभी सीटों पर लड़ने के
इच्छुक नहीं हैं, तो इसका सकारात्मक संदेश जाएगा। इसके
स्थान पर हमें पंजाब, राजस्थान, हरियाणा,
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश वगैरह पर ध्यान देना चाहिए,
जहाँ बीजेपी के सामने केवल कांग्रेस ही है।
कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment