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Thursday, February 23, 2023

विरोधी-एकता और कांग्रेस का वैचारिक-मंथन



कांग्रेस पार्टी के महासचिव केसी वेणुगोपाल ने माना है कि कांग्रेस अकेले मोदी सरकार को नहीं हरा सकती। रायपुर में 24 फरवरी से होने वाले कांग्रेस के महाधिवेशन के सिलसिले में पिछले सोमवार को संवाददाताओं से बात करते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा के विरोध में पड़ने वाले वोटों को बिखरने से रोकने के लिए विपक्षी दलों की एकजुटता बहुत जरूरी है। इससे आगे जाकर वे यह नहीं बता पाए कि यह एकता किस तरीके से संभव होगी और कांग्रेस की भूमिका इसमें क्या होगी।

वेणुगोपाल के इस बयान के साथ पार्टी के एक और महासचिव जयराम रमेश के बयान को भी पढ़ें, तो स्पष्ट होता है कि पार्टी विरोधी-एकता को महत्वपूर्ण मानती है। साथ में यह भी कहती है कि राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी का सामना करने की सामर्थ्य केवल कांग्रेस के पास ही है। दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों की राय है कि बीजेपी का उभार कांग्रेस को कमज़ोर करके हुआ है, क्षेत्रीय दलों की कीमत पर नहीं। उनका वैचारिक-मुकाबला बीजेपी से है, पर अस्तित्व रक्षा का प्रश्न कांग्रेस के सामने है। कांग्रेस अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए विरोधी-एकता चाहती है। 

विरोधी एकता को लेकर इस विमर्श की शुरुआत पिछले हफ्ते पटना में हुए भाकपा माले की रैली से हुई, जिसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों की एकजुटता के लिए कांग्रेस को जल्द से जल्द पहल करने की बात कही थी। नीतीश ने रैली में मौजूद कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद को संकेत करते हुए कहा कि कांग्रेस हमारी बात माने, तो 2024 में बीजेपी को 100 से भी कम सीटों पर रोका जा सकता है। नीतीश कुमार के बयान से स्पष्ट नहीं है कि उनके पास कौन सा फॉर्मूला है, पर ज़ाहिर है कि वे उस महागठबंधन के हवाले से बात कर रहे हैं, जो बिहार में 2015 के विधानसभा चुनाव में बनाया गया था और कमोबेश आज उसी गठबंधन की बिहार में सरकार है।

Wednesday, February 22, 2023

साम्राज्यवाद के शिकार भारत को साम्राज्यवादी नसीहतें

कार्बन उत्सर्जन में भारत की भूमिका को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स का कार्टून 

तमाम विफलताओं के बावजूद भारत की ताकत है उसका लोकतंत्र. सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ, क्योंकि भारत एक अवधारणा के रूप में देश के लोगों के मन में पहले से मौजूद था. पूरे एशिया में सुदूर पूर्व के जापान, ताइवान और दक्षिण कोरिया को छोड़ दें, तो भारत अकेला देश है, जहाँ पिछले 75 से ज्यादा वर्षों में लोकतांत्रिक-व्यवस्था निर्बाध चल रही है.

अब अपने आसपास देखें. पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और मालदीव में सत्ता-परिवर्तन की प्रक्रिया सुचारु नहीं रही है. सत्ता-परिवर्तन की बात ही नहीं है, देश की लोकतांत्रिक-संस्थाएं काम कर रही हैं और क्रमशः मजबूत भी होती जा रही हैं. लोकतंत्र की ताकत उसकी संस्थाओं के साथ-साथ जनता की जागरूकता पर निर्भर करती है.

इस जागरूकता के लिए शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, न्याय-प्रणाली और नागरिकों की समृद्धि की जरूरत होती है. बहुत सी कसौटियों पर हमारा लोकतंत्र अभी उतना विकसित नहीं है कि उसकी तुलना पश्चिमी देशों से की जा सके, पर पिछले 75 वर्षों में इन सभी मानकों पर सुधार हुआ है. सबसे पहले इस बात को स्वीकार करें कि भारत की काफी समस्याएं अंग्रेजी-साम्राज्यवाद की देन हैं.

लुटा-पिटा देश

15 अगस्त, 1947 को जो भारत आजाद हुआ, वह लुटा-पिटा और बेहद गरीब देश था. अंग्रेजी-राज ने उसे उद्योग-विहीन कर दिया था और जाते-जाते विभाजित भी. सन 1700 में वैश्विक-व्यापार में भारत की हिस्सेदारी 22.6 फीसदी थी, जो पूरे यूरोप की हिस्सेदारी (23.3) के करीब-करीब बराबर थी. यह हिस्सेदारी 1952 में केवल 3.2 फीसदी रह गई थी.

इतिहास के इस पहिए को उल्टा घुमाने की जिम्मेदारी आधुनिक भारत पर है. क्या हम ऐसा कर सकते हैं? आप पूछेंगे कि इस समय यह सवाल क्यों? इस समय अचानक हम दो विपरीत-परिस्थितियों के बीच आ गए हैं. एक तरफ भारत जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन की अध्यक्षता करते हुए विदेशी-सहयोग के रास्ते खोज रहा है, वहीं भारतीय लोकतंत्र में विदेशी-हस्तक्षेप की खबर सुर्खियों में है.

सोरोस का बयान

गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस से पहले टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस ने अपने चेहरे पर से पर्दा हटाते हुए कहा कि हम भारतीय लोकतंत्र के पुनरुत्थान के लिए कोशिशें कर रहे हैं. कैसा पुनरुत्थान, क्या हमारा लोकतंत्र सोया हुआ है?   

सोरोस के बयान के बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और विदेशमंत्री एस जयशंकर ने सोरोस को जवाब दिए हैं. शनिवार को ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है. वे न्यूयॉर्क में बैठकर मान लेते हैं कि पूरी दुनिया की गति उनके नज़रिए से तय होगा...वे बूढ़े, रईस, हठधर्मी और ख़तरनाक हैं.

जयशंकर ने यह भी कहा कि आप अफ़वाहबाज़ी करेंगे कि दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह हमारे सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंचाएगा. ये लोग नैरेटिव बनाने पर पैसा लगा रहे हैं. वे मानते हैं कि उनका पसंदीदा व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और हारे, तो कहेंगे कि लोकतंत्र खराब है. गजब है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है. भारत के मतदाता फैसला करेंगे कि देश कैसे चलेगा.  

Tuesday, February 21, 2023

संगठन, नेतृत्व और गठबंधन: रायपुर महाधिवेशन में होंगे कांग्रेस के सामने तीन बड़े विषय


आगामी 24 से 26 फरवरी तक छत्तीसगढ़ के रायपुर में होने वाला 85वाँ कांग्रेस महाधिवेशन बेहद महत्वपूर्ण होने वाला है। 2024 के चुनाव के पहले की सबसे बड़ी संगठनात्मक गतिविधि है। इस साल के अंत में छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं। कांग्रेस पार्टी की इस समय छत्तीसगढ़, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में सरकार है। छत्तीसगढ़ के अलावा इस साल राजस्थान में भी चुनाव होने वाले हैं। इसमें नीचे से ऊपर तक का समूचा पार्टी-नेतृत्व एक जगह पर बैठकर महत्वपूर्ण मसलों पर विचार करेगा।

कांग्रेस महासमिति का महाधिवेशन हरेक तीन साल बाद होता है। मल्लिकार्जुन खड़गे की अध्यक्षता में यह पहला अधिवेशन है। महाधिवेशन में राजनीतिक, आर्थिक, अंतरराष्ट्रीय संबंध, कृषि, सामाजिक न्याय, शिक्षा और रोजगार से जुड़े विषयों पर प्रस्ताव पास किए जाएंगे। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी को अलावा प्रदेश कांग्रेस समितियों के पदाधिकारी, उनके सदस्य और अन्य कार्यकर्ता शामिल होंगे, जिनकी संख्या करीब 4,000 होगी। अन्य अतिथियों तथा मीडिया-प्रतिनिधियों को जोड़कर करीब 14-15 हजार व्यक्ति इस अधिवेशन में उपस्थित रहेंगे।

माना जा रहा है कि अधिवेशन में खासतौर से तीन बड़े विषयों पर विचार होगा और फैसले किए जाएंगे। इनमें सबसे पहला विषय है संगठनात्मक सुधार। अधिवेशन में नई कार्यसमिति का गठन भी होना है, क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे के चुनाव के बाद से एक अस्थायी संचालन-समिति काम कर रही है। इसकी शुरुआत कार्यसमिति के गठन से तो होगी ही, साथ ही गठन की प्रक्रिया पर विचार भी होगा। यानी कि उसके सदस्यों का चयन चुनाव के आधार पर हो या अध्यक्ष द्वारा मनोनयन की व्यवस्था को जारी रखा जाए।

Sunday, February 19, 2023

भारतीय राजनीति में विदेशी-हस्तक्षेप?


जनवरी के आखिरी हफ्ते में जब गौतम अडानी के कारोबार को लेकर अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट सामने आई थी, तभी यह स्पष्ट था कि इसके पीछे अमेरिकी कारोबारी जॉर्ज सोरोस का हाथ है। यह कहानी 2017 में ऑस्ट्रेलिया में चले अडानी-विरोधी आंदोलन के दौरान स्पष्ट थी। विरोध की वजह से अडानी ग्रुप के प्रोजेक्ट की क्षमता सीमित हो गई थी। इस विरोध के तार कितनी दूर तक जुड़े हैं, इसे समझना आसान नहीं। अलबत्ता कहा जा सकता है कि सोरोस-प्रकरण से संगठित विदेशी-हाथ की पुष्टि हो रही है।

अडानी-विरोध के पीछे पर्यावरण-संरक्षण से जुड़े संगठनों का हाथ ही होता, तो बात अलग थी। मान लेते हैं कि इसमें कारोबारी-प्रतिस्पर्धियों की भूमिका होगी। अडानी की कंपनियाँ बंदरगाहों, एयरपोर्ट, टेलीकम्युनिकेशंस, बिजलीघरों, खनन और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं पर काम करती हैं। यह मामला केवल कारोबार तक सीमित नहीं है। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है। यदि इसके पीछे राजनीति है, तो सवाल होगा कि कैसी राजनीति? केवल मोदी और भारतीय जनता पार्टी निशाने पर है या भारतीय-अर्थव्यवस्था है? कौन है इसके पीछे? क्या यह पश्चिमी देशों में पनपने वाली भारत-विरोधी, हिंदू-राष्ट्रवाद विरोधी दृष्टि है? क्या इसके सूत्र भारतीय-राजनीति से जुड़े हैं? क्या यह भारतीय राजनीति में 2024 के चुनाव के पहले सीधे हस्तक्षेप की कोशिश है? भारत के भविष्य का फैसला देश का वोटर करेगा, विदेशी पूँजीपति नहीं।

सोरोस का एजेंडा

गत 16 फरवरी को म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में टेक्नीकल यूनिवर्सिटी ऑफ म्यूनिख में आयोजित एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जॉर्ज सोरोस के एक वक्तव्य और फिर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के जवाबी बयान के बाद यह मसला और जटिल हो गया है। स्मृति ईरानी के बाद विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी उन्हें जवाब दिया है। शनिवार को ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रायसीना डायलॉग के उद्घाटन सत्र के दौरान जयशंकर ने कहा कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ 'यूरो अटलांटिक नज़रिये' वाली है। वे न्यूयॉर्क में बैठकर सोचते हैं कि उनके विचारों से पूरी दुनिया की गति तय होनी चाहिए... अगर मैं ठीक से कहूं तो वे बूढ़े, रईस, हठधर्मी और ख़तरनाक हैं। अगर आप इस तरह की अफ़वाहबाज़ी करेंगे, जैसे दसियों लाख लोग अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठेंगे तो यह वास्तव में हमारे सामाजिक ताने-बाने को बहुत क्षति पहुंचाएगा। ऐसे लोग वास्तव में नैरेटिव या बयानिया तय करने में अपने संसाधन लगाते हैं। उनके जैसे लोगों को लगता है कि अगर उनकी पसंद का व्यक्ति जीते तो चुनाव अच्छा है और अगर चुनाव का परिणाम कुछ और आए, तो वे कहेंगे कि यह खराब लोकतंत्र है। गजब की बात तो यह है कि यह सब कुछ खुले समाज की वकालत के बहाने किया जाता है। भारत के मतदाताओं ने फैसला किया है कि देश कैसे चलना चाहिए।

सवाल है कि सोरोस को बयान देने की जरूरत क्यों पड़ी? वे क्या चाहते हैं? उनके बयान का क्या विपरीत प्रभाव पड़ेगा?  सोरोस का एक राजनीतिक एजेंडा है और उनके साथ दुनियाभर के अकादमिक, मानवाधिकार संरक्षण और मीडिया-संगठन जुड़े हैं। उन्होंने पहली बार मोदी-सरकार पर हमला नहीं बोला है। इसके पहले वे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में सरकार की आलोचना कर चुके हैं। इतना ही नहीं वे अपने राजनीतिक-कार्यक्रम के लिए एक अरब डॉलर के कोष की स्थापना कर चुके हैं। इसमें वे अरबों रुपया लगा रहे हैं। वे अकेले नहीं हैं। उनके साथ एक पूरा नेटवर्क है। यह पागलपन है।

अडानी बहाना, मोदी निशाना

अपने ताजा बयान में सोरोस ने अडानी को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा, मोदी इस मुद्दे पर खामोश हैं, लेकिन उन्हें विदेशी निवेशकों और संसद में पूछे गए सवालों के जवाब देने होंगे। यह जवाबदेही सरकार पर मोदी की पकड़ को कमजोर कर देगी। मुझे उम्मीद है कि भारत में एक लोकतांत्रिक परिवर्तन होगा। उन्होंने यह भी कहा, भारत तो लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं हैं। उनके इतनी तेज़ी से आगे बढ़ने के पीछे भारतीय मुसलमानों के साथ हिंसा भड़काना एक बड़ा कारक रहा है। 

बात केवल अडानी-संदर्भ तक सीमित नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण है कश्मीर से 370 हटाने का विरोध और नागरिकता कानून को लेकर उनकी राय। वे दुनिया में बढ़ रहे राष्ट्रवादी विचार के विरोधी हैं। उन्होंने 2020 में एक ग्लोबल यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए एक अरब डॉलर के दान की घोषणा की थी। इस विवि का उद्देश्य राष्ट्रवादी विचार से लड़ना है। सोरोस ने कहा कि राष्ट्रवाद बहुत आगे निकल गया है। सबसे बड़ा और सबसे भयावह झटका भारत में लगा है, क्योंकि वहाँ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नरेंद्र मोदी भारत को एक हिंदू राष्ट्रवादी देश बना रहे हैं। वे कश्मीर में सख्ती कर रहे हैं, जो अर्ध-स्वायत्त मुस्लिम क्षेत्र है और वे लाखों नागरिकों को उनकी नागरिकता से वंचित करने की धमकी दे रहे हैं।

Wednesday, February 15, 2023

बीबीसी पर छापे के पीछे की कहानी क्या है?

दिल्ली के एचटी हाउस में स्थित बीबीसी का दफ्तर

मंगलवार को दुनिया के मीडिया प्लेटफॉर्मों पर यह खबर आग की तरह फैल गई कि ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (बीबीसी) के दिल्ली और मुंबई कार्यालयों पर
आयकर विभाग के छापे चल रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सोशल मीडिया और अखबारों की सुर्खियाँ बनने के अलावा इस विषय पर टीका-टिप्पणियाँ हो रही हैं। कांग्रेस समेत देश के ज्यादातर विरोधी दलों ने इन छापों की निंदा की है। कांग्रेस ने इसे अघोषित आपातकाल बताया है, वहीं बीजेपी का कहना है कि सारी कार्रवाई नियमों के तहत हो रही है और अगर किसी ने कुछ गलत नहीं किया है तो उसे डरने की जरूरत नहीं है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा है कि इनकम टैक्स विभाग समय-समय पर सर्वे करता है। विभाग आपको इस विषय पर आगे की जानकारी दे देगा। ब्रिटेन की सरकार ने कहा कि इस मामले पर वह नजर बनाए हुए है। मीडिया का एक हिस्सा और राजनेता इस छापे को हाल में जारी की गई बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री से जोड़कर दखे रहे हैं।

कांग्रेस के महासचिव केसी वेणुगोपाल ने आयकर विभाग की कार्रवाई पर कहा, "ये निराशा का धुआं है और ये दर्शाता है कि मोदी सरकार आलोचना से डरती है।" उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, "हम डराने-धमकाने के इन हथकंडों की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं। यह अलोकतांत्रिक और तानाशाही रवैया अब और नहीं चल सकता।" दूसरी तरफ बीजेपी प्रवक्ता गौरव भाटिया ने बीबीसी को दुनिया का भ्रष्ट, बकवास कॉरपोरेशन बताया। उन्होंने कहा, भारत एक ऐसा देश है जहाँ हर संस्था को मौक़ा दिया जाता है। तब तक, जब तक आप ज़हर नहीं उगलेंगे। तलाशी क़ानून के दायरे में हैं और इसकी टाइमिंग का सरकार से कोई लेना देना नहीं है।

एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने कहा कि हम इस तलाशी को लेकर "बहुत चिंतित" हैं। सरकार की नीतियों या सरकारी संस्थानों की आलोचना करने वाले मीडिया संस्थानों को डराने और परेशान करने के लिए सरकारी एजेंसियों के इस्तेमाल के प्रचलन का ही यह क्रम है। प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया ने भी बयान जारी करके इस कार्रवाई की आलोचना की है। प्रेस क्लब ने सरकार की कार्रवाई पर चिंता जताई है और कहा है कि इससे भारत की छवि को नुक़सान पहुँचेगा। मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने अधिकारियों पर बीबीसी को डराने का आरोप लगाया।

अंतिम समाचार मिलने तक दूसरे दिन भी सर्वे चल रहा  है और माना जा रहा है कि यह काम दो-तीन दिन तक चलेगा। मंगलवार की सुबह करीब सवा 11 बजे इनकम टैक्स की टीम बीबीसी के दिल्ली दफ्तर में पहुंची और सर्वे का काम शुरू किया। इनकम टैक्स की टीम में 15 से 20 अधिकारी मौजूद हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार बीबीसी के खातों और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स को चेक करने में लंबा वक्त लग सकता है। ऐसे में इनकम टैक्स विभाग की कार्रवाई लंबी चल सकती है। अधिकारियों ने बताया कि सर्वे अंतरराष्ट्रीय कराधान और बीबीसी की सहायक कंपनियों के ‘‘ट्रांसफर प्राइसिंग’’ से संबंधित मुद्दों की जांच के लिए किया गया है। अतीत में इस विषय पर बीबीसी को नोटिस दिया गया था, लेकिन उसने उस पर गौर नहीं किया और उसका पालन नहीं किया। उसने अपने मुनाफे के खास हिस्से को दूसरी जगह भेजा। उन्होंने कहा कि विभाग, बीबीसी के कारोबारी संचालन से जुड़े दस्तावेजों पर गौर कर रहा है।

इस बीच बीबीसी ने कहा कि वह इनकम टैक्स अधिकारियों के साथ पूरा सहयोग कर रहा है। बीबीसी प्रेस ऑफिस की ओर से एक बयान में कहा गया है, ''हम अपने कर्मचारियों का मदद कर रहे हैं. हमें उम्मीद है कि स्थिति जल्द से जल्द सामान्य हो जाएगी… हमारा आउटपुट और पत्रकारिता से जुड़ा काम सामान्य दिनों की तरह चलता रहेगा। हम अपने ऑडियंस को सेवा देने के लिए प्रतिबद्ध हैं।''

आयकर विभाग के अनुसार बीबीसी पर वित्तीय अनियमितता और टैक्स चोरी का आरोप है। ट्रांसफर प्राइसिंग नॉर्म्स और इंटरनेशनल टैक्सेशन के नियमों के उल्लंघन का भी आरोप है। विभाग ने बीबीसी से बैलेंस शीट और लेनदेन के ब्योरे की माँग की है। इस सिलसिले में बीबीसी के वित्त वर्ष 2012-13 के बाद किए गये सभी लेन-देन की जांच हो सकती है। मंगलवार को जब छापे की कार्रवाई शुरू हुई तो बीबीसी के कर्मचारियों को परिसर के अंदर एक विशेष स्थान पर अपने फोन रखने के लिए कहा गया था। कुछ कंप्यूटरों को जब्त कर लिया गया है वहीं कुछ कर्मचारियों के मोबाइल फोनों का क्लोन बनाया जा रहा है।

बीबीसी दफ्तर पर छापे की खबर फैलते ही मध्य दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग स्थित बीबीसी कार्यालय के बाहर भारी संख्या में राहगीरों और मीडिया कर्मियों की भीड़ जमा हो गई। मुंबई में बीबीसी का कार्यालय सांताक्रुज में है। सर्वे के नियमों के तहत, आयकर विभाग केवल कंपनी के व्यावसायिक परिसर की ही जांच करता है और इसके प्रवर्तकों या निदेशकों के आवासों और अन्य स्थानों पर छापा नहीं मारता।

बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री

बीबीसी ने हाल में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर एक डॉक्यूमेंट्री का प्रसारण किया था। टह डॉक्यूमेंट्री भारत में प्रसारण के लिए नहीं थी, पर देश में लोगों ने इसे इंटरनेट से डाउनलोड करके कई जगह इसका प्रदर्शन किया। यह डॉक्यूमेंट्री 2002 के गुजरात दंगों पर थी। उस समय भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। डॉक्यूमेंट्री में कई लोगों ने गुजरात दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठाए थे।

केंद्र सरकार ने इस डॉक्यूमेंट्री को प्रोपेगैंडा और औपनिवेशिक मानसिकता के साथ भारत-विरोधी बताते हुए भारत में इसे ऑनलाइन शेयर करने से ब्लॉक करने की कोशिश की थी। बीबीसी ने कहा था कि भारत सरकार को इस डॉक्यूमेंट्री पर अपना पक्ष रखने का मौक़ा दिया गया था, लेकिन सरकार की ओर से इस पेशकश पर कोई जवाब नहीं मिला। बीबीसी का कहना है कि "इस डॉक्यूमेंट्री पर पूरी गंभीरता के साथ रिसर्च किया गया, कई आवाज़ों और गवाहों को शामिल किया गया और विशेषज्ञों की राय ली गई और हमने बीजेपी के लोगों समेत कई तरह के विचारों को भी शामिल किया।"

बीबीसी का सर्वे क्यों?

सरकारी अधिकारियों के अनुसार यह सर्वे यह पता करने के लिए किया जा रहा है कि बीबीसी ने अवैध तरीके से लाभ तो प्राप्त नहीं किए हैं, जिनमें टैक्स शामिल है। बीबीसी लगातार जानबूझकर ट्रांसफर प्राइसिंग नियमों का उल्लंघन करता रहा है। एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को वस्तु या सेवा की कीमत देकर उसके हस्तांतरण को, ट्रांसफर प्राइस कहा जाता है। किसी बहुराष्ट्रीय ग्रुप के अलग-अलग पक्षों के बीच व्यावसायिक हस्तांतरण पर वही नियम लागू नहीं होते, जो दो स्वतंत्र फर्मों के बीच हुए हस्तांतरण पर लागू होते हैं। आयकर विभाग के अनुसार ट्रांसफर प्राइसिंग सामान्यतः सहयोगी उपक्रमों के बीच हुए हस्तांतरण के मूल्य होते हैं, जो दो स्वतंत्र उपक्रमों के बीच के हुए हस्तांतरण से भिन्न शर्तों पर होते हैं।

उदाहरण के लिए क कंपनी किसी वस्तु को 100 रुपये में खरीदती है और किसी अन्य देश में अपनी सहयोगी ख कंपनी को 200 रुपये में बेचा, जिसने उसे खुले बाजार में 400 रुपये में बेच दिया। यदि क ने उस वस्तु को सीधे बेचा होता, तो उसे 300 रुपये का लाभ होता, पर उसे ख के मार्फत बेचने पर उसे 100 का लाभ होगा और शेष लाभ ख को मिलेगा। इस प्रकार 200 रुपये का लाभ देश में मौजूद ख को मिला। वह वस्तु 200 रुपये की कीमत (ट्रांसफर प्राइस) पर बेची गई है न कि बाजार मूल्य (400 रुपये) पर।

ट्रांसफर प्राइसिंग से फर्क यह पड़ता है कि इस लेनदेन में पितृ कंपनी (या उसकी सहायक कंपनी) अपर्याप्त कर योग्य आय या अतिरिक्त हानि प्राप्त करती है। आयकर विभाग की वैबसाइट के अनुसार पितृ-कंपनी ऊँचे ट्रांसफर प्राइस की मदद से उन देशों में स्थित अपनी सहायक कंपनियों से ज्यादा लाभ हासिल कर सकती हैं, जहाँ टैक्स की दरें ऊँची हैं। और जिन देशों में टैक्स की दरें कम हैं वहाँ ट्रांसफर प्राइस कम रखकर सहायक कंपनी का लाभ बढ़ा सकती हैं।

इसी प्रकार जिन देशों में टैक्स की दरें ज्यादा हैं, वहाँ की पितृ-संस्था उस देश की सहायक कंपनी को जहाँ टैक्स बहुत कम है, कम मुनाफे पर माल बेच सकती है। इसके बाद सहायक कंपनी उस उत्पाद को आर्म्स लेंग्थ प्राइस पर बेच देती है। इसके बाद बढ़े हुए मुनाफे पर बहुत कम टैक्स पड़ेगा। इससे सरकार को राजस्व और विदेशी मुद्रा की हानि होगी। भारत के आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 92 एफ(2) में आर्म्स लेंग्थ प्राइस अनियंत्रित शर्तों वाली वह कीमत बताई गई है, जो ऐसे दो पक्षों के बीच हुए विनिमय में ली गई हो, जो आपस में सहयोगी नहीं है। आर्म्स लेंग्थ प्राइस कैसे तय होगा, इसकी व्याख्या धारा 92 सी(1) में की गई है। 

‘ऑपरेशन दोस्त’ और तुर्किये के साथ हमारे रिश्ते


तुर्की और सीरिया में आए विनाशकारी भूकंप के बाद सबसे पहले सहायता के लिए जो देश खड़े हुए हैं, उनमें भारत भी एक है. तुर्किये के साथ रिश्तों को देखते हुए कुछ लोगों ने इस सहायता पर सवाल खड़े किए हैं. उनका कहना है कि अतीत में हुई लड़ाइयों में तुर्की ने पाकिस्तान साथ दिया और वह संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के मसले को उठाता रहता है. वह हमारा दोस्त नहीं है, फिर इतनी हमदर्दी क्यों?

यह त्रासदी से जुड़ी मानवीय-सहायता की बात है, पर इस साल आम-बजट में अफगानिस्तान की सहायता के मद में रखी गई 200 करोड़ रुपये की धनराशि को लेकर दिल्ली के मुख्यमंत्री ने जो टिप्पणी की, उसके पीछे भी ऐसा ही नज़रिया है. दोनों तरह की आपत्तियों को व्यक्त करने वालों ने जल्दबाजी में या देश की विदेश-नीति के बुनियादी-तत्वों और तथ्यों को समझे बगैर अपनी आपत्तियाँ व्यक्त की है.

मानवीय-सहायता

बुनियादी बात यह है कि मानवीय-सहायता के समय दोस्त-दुश्मन नहीं देखे जाते. मान्यताएं और परंपराएं ऐसी सहायता के लिए हमें प्रेरित करती हैं. राज-व्यवस्था से हमारी सहमति हो न हो, जनता से हमदर्दी तो है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है, भारतीय जनता की संवेदनाएं भूकंप पीड़ितों के साथ है.

‘ऑपरेशन दोस्त’ के तहत भारत लगातार मदद पहुंचा रहा है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सातवाँ विमान सहायता सामग्री लेकर तुर्किये (तुर्की ने जून 2022 में अपना नाम बदलकर तुर्किये कर लिया) पहुँच चुका है. भारतीय एनडीआरएफ की टीमें तुर्किये में राहत एवं बचाव कार्यों में लगी हैं. यह शुरुआती सहायता है, भविष्य में कई तरह की सहायता और सहयोग की जरूरत होगी.

इस प्रकरण ने भारत और तुर्किये के रिश्तों को समझने का मौका दिया है. सच यह है कि भारत के साथ तुर्किये के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं, तो खराब भी नहीं रहते थे, पर एर्दोगान की नीतियों के कारण हाल के वर्षों में खलिश बढ़ी है.

Sunday, February 12, 2023

संसदीय-बहस ने खोले चुनाव-24 के द्वार


इस हफ्ते संसद में बजट से ज्यादा राष्ट्रपति का अभिभाषण चर्चा का विषय रहा। चर्चा का विषय यह नहीं था कि राष्ट्रपति ने क्या कहा, बल्कि इस अभिभाषण के मार्फत व्यापक सवालों से जुड़ी राजनीतिक-बहस संसद के दोनों सदनों में शुरू हुई है, जो संभवतः 2024 के लोकसभा चुनाव से जुड़े सवालों को छूकर गुजरेगी। भारत-जोड़ो यात्रा के अनुभव और आत्मविश्वास से भरे राहुल गांधी की राजनीतिक दिशा को भी इसके सहारे देखा-समझा जा सकता है। बहरहाल संसद के भीतर राहुल और उनके सहयोगियों ने सरकार को निशाना बनाया, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उतनी ही शिद्दत से उन्हें जवाब दिया। इस वाग्युद्ध की शब्दावली से अनुमान लगाया जा सकता है कि बहस का धरातल कैसा रहेगा। बहरहाल लोकसभा में प्रधानमंत्री के वक्तव्य के बाद माहौल में जो गर्मी पैदा हुई थी, उससे राज्यसभा में नाटकीयता बहुत ज्यादा बढ़ गई। इस दौरान संसदीय-बहस के कुछ मूल्य और सिद्धांतों को लेकर सवाल भी उठे हैं। सदन में किस प्रकार की शब्दावली की इस्तेमाल किया जाए, आरोप लगाते वक्त किन बातों को ध्यान में रखा जाए और किस प्रकार के बयानों को कार्यवाही से निकाला जा सकता है, ऐसे प्रश्न राष्ट्रीय-विमर्श के केंद्र में भी आए हैं। मोटे तौर पर यह सब उस राष्ट्रीय बहस का प्रस्थान-बिंदु है, जिसका समापन अब 2024 के चुनाव में ही होगा।

मोदी पर निशाना

लोकसभा में राहुल गांधी ने और राज्यसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे ने नरेंद्र मोदी को सीधा निशाना बनाया, तो मोदी ने दोनों को करारे जवाब दिए। अलबत्ता राज्यसभा में कांग्रेस पार्टी ने लगातार नारेबाजी का सहारा लिया, जबकि लोकसभा में एकबार बहिर्गमन करने के बाद पार्टी के सदस्य सदन में वापस आ गए थे।  दोनों बातों से लगता है कि पार्टी तय नहीं कर पा रही है कि उसकी रणनीति क्या होगी। उसे अपना चेहरा सौम्य बनाना है या कठोर? अतीत का अनुभव है कि केवल मोदी पर हमला होने पर जवाबी प्रतिक्रिया का लाभ मोदी को ही मिलता है। 2002 के गुजरात चुनाव के बाद से अब तक का अनुभव यही रहा है। पूरी बहस पर नज़र डालें, तो उसमें राष्ट्रपति के अभिभाषण में व्यक्त बातों को शायद ही कही छुआ गया हो। मोदी ने लोकसभा में अपना वक्तव्य शुरू करते समय इस बात का उल्लेख किया भी था। बेशक इस बहस ने माहौल को सरगर्म कर दिया है, पर संसदीय-कर्म की गुणवत्ता के लिहाज से तमाम सवाल भी इसे लेकर उठे हैं।

एक अकेला, सब पर भारी

लोकसभा में मोदी ने कहा कि देश की 140 करोड़ जनता मेरे लिए ढाल का काम करती है, वहीं राज्यसभा में कहा, मैं अकेला बोल रहा हूं, उन्हें नारेबाजी के लिए लोग बदलने पड़ रहे हैं। और यह भी, कीचड़ उनके पास था, मेरे पास गुलाल। जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल। जितना कीचड़ उछालोगे, कमल उतना ही ज्यादा खिलेगा। राज्यसभा में प्रधानमंत्री का भाषण शुरू होने के पहले ही विपक्ष ने नारेबाजी शुरू कर दी, जो उनके 90 मिनट के भाषण के दौरान लगातार जारी रही। इस पर मोदी बोले, देश देख रहा है कि एक अकेला कितनों पर भारी पड़ रहा है। नारे बोलने के लिए भी लोग बदलने पड़ रहे हैं। मैं अकेला घंटे भर से बोल रहा हूं, रुका नहीं। उनके अंदर हौसला नहीं है, वे बचने का रास्ता ढूंढ रहे हैं। एक अकेला, सब पर भारी 2024 के चुनाव में यह राजनीतिक नारा बनकर उभरे तो हैरत नहीं होगी। बजट सत्र शुरू होने के ठीक पहले गौतम अडानी की कंपनियों को लेकर हिंडनबर्ग रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद कांग्रेस के पास इससे जुड़े सवाल करने का यह बेहतरीन मौका था। राहुल गांधी ने अपने भाषण में इन सवालों को उठाया, जबकि प्रधानमंत्री ने इनका जिक्र भी नहीं किया। क्यों नहीं किया? इसके दो कारण बताए गए हैं। पहला कारण तकनीकी है। राहुल गांधी के वक्तव्य के वे अंश कार्यवाही से निकाल दिए गए हैं, जिनमें अडानी से जुड़े सवाल थे। जब सवाल ही कार्यवाही में नहीं है, तब जवाब कैसे? दूसरा कारण रणनीतिक है। जवाब देने पर उसमें विसंगतियाँ निकाली जातीं। पार्टी अभी उनसे बचना चाहती है।

Saturday, February 11, 2023

भारत जोड़ने के बाद, क्या बीजेपी को तोड़ पाएंगे राहुल?

भारत-जोड़ो यात्रा से हासिल अनुभव और आत्मविश्वास राहुल गांधी के राजनीतिक कार्य-व्यवहार में नज़र आने लगा है। पिछले मंगलवार को राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान लोकसभा में उनका भाषण इस यात्रा को रेखांकित कर रहा था। उन्होंने कहा, हमने हजारों लोगों से बात की और जनता की आवाज़ हमें गहराई से सुनाई पड़ने लगी। यात्रा हमसे बात करने लगी। किसानों ने पीएम-बीमा योजना के तहत पैसा नहीं मिलने की बात कही। आदिवासियों से उनकी जमीन छीन ली गई। उन्होंने अडानी का मुद्दा भी उठाया।  

राहुल गांधी की संवाद-शैली में नयापन था। वे कहना चाह रहे थे कि देश ने जो मुझसे कहा, उन्हें मैं संसद में रख रहा हूँ। ये बातें जनता ने उनसे कहीं या नहीं कहीं, यह अलग विषय है, पर एक कुशल राजनेता के रूप में उन्होंने अपनी यात्रा का इस्तेमाल किया। उनके भाषण से वोटर कितना प्रभावित हुआ, पता नहीं। इसका पता फौरन लगाया भी नहीं जा सकता। फौरी तौर पर कहा जा सकता है कि यात्रा के कारण पार्टी की गतिविधियों में तेजी आई है, कार्यकर्ताओं और पार्टी के स्वरों में उत्साह और आत्मविश्वास दिखाई पड़ने लगा है।

यात्रा का लाभ

राहुल गांधी ने भारत-जोड़ो यात्रा को राजनीतिक-यात्रा के रूप में परिभाषित नहीं किया था। यात्रा राष्ट्रीय-ध्वज के पीछे चली, पार्टी के झंडे तले नहीं। देश में यह पहली राजनीतिक-यात्रा भी नहीं थी। महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से लेकर आंध्र प्रदेश के एनटी रामाराव, राजशेखर रेड्डी, चंद्रशेखर और सुनील दत्त, नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेता तक अपने-अपने संदेशों के साथ अलग-अलग समय पर यात्राएं कर चुके हैं। बेशक इनका असर होता है।

घोषित मंतव्य चाहे जो रहा है, अंततः यह राजनीतिक-यात्रा थी। सफल थी या नहीं, यह सवाल भी अब पीछे चला गया है। अब असल सवाल यह है कि क्या इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस को मिलेगा? मिलेगा तो कितना, कब और किस शक्ल में? सत्ता की राजनीति चुनावी सफलता के बगैर निरर्थक है। जब यात्रा शुरु हो रही थी तब ज्यादातर पर्यवेक्षकों का सवाल था कि इससे क्या कांग्रेस का पुनर्जन्म हो जाएगा? क्या पार्टी इस साल होने वाले विधानसभा के चुनावों में और 2024 के लोकसभा चुनाव में सफलता पाने में कामयाब होगी?

Wednesday, February 8, 2023

आतंकवाद और आर्थिक-संकट से रूबरू पाकिस्तान


गत 30 जनवरी को, पेशावर की पुलिस लाइन की एक मस्जिद में हुए विस्फोट ने दिसंबर, 2014 में पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल पर हुए हमले की याद ताजा कर दी है. इस विस्फोट में सौ से ज्यादा लोग मरे हैं, और ज्यादातर पुलिसकर्मी हैं. इस बात से खैबर पख्तूनख्वा सूबे की पुलिस के भीतर बेचैनी है. दूसरी तरफ देश की अर्थव्यवस्था पर विदेशी ऋणों की अदायगी में डिफॉल्ट का खतरा पैदा हो गया है.

इन दोनों संकटों ने पाकिस्तान की विसंगतियों को रेखांकित किया है. स्वतंत्रता के बाद भारत-पाकिस्तान आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में मिलकर काम करते, जैसा विभाजन से पहले था, तो यह इलाका विकास का बेहतरीन मॉडल बनकर उभरता. पर भारत से नफरत विचारधारा बन गई. हजारों साल से जिस भूखंड की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और समाज एकसाथ रहे, उसे चीर कर नया देश गढ़ने तक बात सीमित होती, तब भी ठीक था. आर्थिक-ज़मीन को तोड़ने के दुष्परिणाम सामने हैं.

अविभाजित भारत में आर्थिक-संबंध सामाजिक वर्गों में बँटे हुए थे, जो मिलकर परिणाम देते थे. विभाजन के बाद अचानक एक बड़े वर्ग के तबादले ने कारोबार की शक्ल बदल दी. भारत में भूमि-सुधार के कारण ज़मींदारी-प्रथा खत्म हुई, पाकिस्तान में वह बनी रही. आधुनिक राज-व्यवस्था पनप ही नहीं पाई. बहरहाल अब वहाँ जो हो रहा है, उसके सामाजिक-आर्थिक कारणों पर अलग से शोध की जरूरत है. 

इस्लामी अमीरात

टीटीपी की मांग है कि कबायली जिलों सहित पूरे देश में शरीअत कानून को लागू किया जाए और इन इलाकों से सेना को हटा लिया जाए. वे पाकिस्तान में वैसी ही व्यवस्था चाहते हैं, जैसी तालिबान के अधीन अफगानिस्तान में है. वे एक इस्लामी अमीरात स्थापित करना चाहते हैं, पर पाकिस्तान की सांविधानिक-व्यवस्था ब्रिटिश-जम्हूरियत पर आधारित है, इस्लामी परंपराओं पर नहीं है. यह वैचारिक विसंगति है.

देश की अर्थव्यवस्था अर्ध-सामंती है. एक तबका आज भी सोने-चाँदी के बर्तनों में भोजन करता है. राजनीति में इन्हीं जमींदारों और साहूकारों का वर्चस्व है और प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला है. हुक्मरां जनता को किसी अदृश्य खतरे से डराते हैं, जिससे लड़ने के लिए सेना चाहिए, जबकि खतरा अशिक्षा और गरीबी से है.

Tuesday, February 7, 2023

करगिल के ‘विलेन’ मुशर्रफ, जो शांति-प्रयासों के लिए भी याद रहेंगे


भारत और पाकिस्तान को आसमान से देखें तो ऊँचे पहाड़, गहरी वादियाँ, समतल मैदान, रेगिस्तान और गरजती नदियाँ दिखाई देंगी. दोनों के रिश्ते भी ऐसे ही हैं. उठते-गिरते और बनते-बिगड़ते. सन 1988 में दोनों देशों ने एक-दूसरे पर हमले न करने का समझौता किया और 1989 में कश्मीर में पाकिस्तान-परस्त आतंकवादी हिंसा शुरू हो गई. 1998 में दोनों देशों ने एटमी धमाके किए और उस साल के अंत में वाजपेयी जी और नवाज शरीफ का संवाद शुरू हो गया, जिसकी परिणति फरवरी 1999 की लाहौर बस यात्रा के रूप में हुई.

लाहौर के नागरिकों से अटल जी ने अपने टीवी संबोधन में कहा था, ‘यह बस लोहे और इस्पात की नहीं है, जज्बात की है. बहुत हो गया, अब हमें खून बहाना बंद करना चाहिए.‘ भारत और पाकिस्तान के बीच जज्बात और खून का रिश्ता है. कभी बहता है तो कभी गले से लिपट जाता है. संयोग की बात है कि वाजपेयी जी की भारत वापसी के कुछ दिन बाद देश की राजनीति की करवट कुछ ऐसी बदली कि उनकी सरकार संसद में हार गई. दूसरी ओर उन्हीं दिनों पाकिस्तानी सेना कश्मीर के करगिल इलाके में भारतीय सीमा के अंदर ऊँची पहाड़ियों पर कब्जा कर रही थी.

कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी को अचानक आन पड़ी आपदा का सामना करना पड़ा. नवाज़ शरीफ के फौजी जनरल परवेज मुशर्रफ की वह योजना गलत साबित हुई, पर वह साल बीतते-बीतते शरीफ साहब को हटाकर परवेज मुशर्ऱफ़ देश के सर्वे-सर्वा बन गए. उन्हें सबसे पहली बधाई अटल जी ने दी, जो चुनाव जीतकर फिर से दिल्ली की कुर्सी पर विराजमान हो गए थे.

तख्ता-पलट

12 अक्तूबर, 1999 की बात है. उन दिनों भारत के केबल नेटवर्क पर पाकिस्तान टीवी भी दिखाई पड़ता था. शाम को पीटीवी पर खबर आई कि प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ ने अपने सेनाध्यक्ष जनरल परवेज़ मुशर्ऱफ़ की छुट्टी कर दी. यह बड़ी सनसनीखेज खबर थी, क्योंकि पाकिस्तान में सेनाध्यक्ष के आदेश से प्रधानमंत्री तो हटते देखे गए हैं, पर प्रधानमंत्री किसी सेनाध्यक्ष को हटाने की घोषणा करे, ऐसा दूसरी बार हो रहा था.

यह हिम्मत भी नवाज शरीफ ने ही दोनों बार की थी. इसके पहले 1998 में उन्होंने तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जहांगीर करामत को बर्खास्त किया था. बहरहाल 12 अक्तूबर 1999 को जब परवेज मुशर्रफ श्रीलंका के दौरे से वापस लौट रहे थे, नवाज शरीफ ने उनकी बर्खास्तगी के आदेश जारी कर दिए. पर इसबार नवाज शरीफ कामयाब नहीं हुए.

Thursday, February 2, 2023

अमृतकाल की बुनियाद का बजट


वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत सालाना आम बजट पहली नज़र में संतुलित और काफी बड़े तबके को खुश करने वाला नज़र आता है। आप कह सकते हैं कि यह चुनाव को देखते हुए बनाया गया बजट है। इसमें गलत भी कुछ नहीं है। बहरहाल इसकी तीन महत्वपूर्ण बातें ध्यान खींचती हैं। एक, सरकार की नजरें संवृद्धि पर हैं, जिसके लिए पूँजी निवेश की जरूरत है। प्राइवेट सेक्टर आगे आने की स्थिति में नहीं है, तो सरकार को बढ़कर निवेश करना चाहिए। इंफ्रास्ट्रक्चर पर दस लाख करोड़ के निवेश की घोषणा से सरकार के इरादे स्पष्ट हैं। एक तरह से इसे नए भारत की बुनियाद का बजट कह सकते हैं। ध्यान दें दो साल पहले 2020-21 के बजट में यह राशि 4.39 लाख करोड़ थी।

वित्तमंत्री ने इसे मोदी सरकार का दसवाँ बजट नहीं अमृतकाल का पहला बजट कहा है। अमृतकाल का मतलब है स्वतंत्रता के 75वें वर्ष से शुरू होने वाला समय, जो 2047 में 100 वर्ष पूरे होने तक चलेगा। सरकार इसे भविष्य के साथ जोड़कर दिखाना चाहती है। वित्तमंत्री ने स्त्रियों और युवाओं का कई बार उल्लेख किया। यह वह तबका है, जो भविष्य के भारत को बनाएगा और जो राजनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। इस बजट में 2024 के चुनाव की आहट सुनाई पड़ रही है। इसमें कड़वी बातों का जिक्र करने से बचा गया है।   

दूसरी बात है, राजकोषीय अनुशासन। सरकारी खर्च बढ़ाने के बावजूद राजकोषीय घाटे को काबू में रखा जाएगा। बजट में अगले साल राजकोषीय घाटा 5.9 प्रतिशत रखने का भरोसा दिलाया गया है। तीसरे उन्होंने व्यक्ति आयकर के नए रेजीम को डिफॉल्ट घोषित करके आयकर व्यवस्था में सुधार की दिशा भी स्पष्ट कर दी है। यानी छूट वगैरह की व्यवस्थाएं धीरे-धीरे खत्म होंगी। नए रेजीम की घोषणा पिछले साल की गई थी। अभी इसे काफी लोगों ने स्वीकार नहीं किया है, पर अब जो छूट दी जा रही हैं, वे नए रेजीम के तहत ही हैं। इस वजह से लोग नए रेजीम की ओर जाएंगे।  

सप्तर्षि की अवधारणा पर वित्तमंत्री ने बजट की सात प्राथमिकताओं को गिनाया जिनमें इंफ्रास्ट्रक्चर, हरित विकास, वित्तीय क्षेत्र और युवा शक्ति शामिल हैं। बजट में कुल व्यय 45.03 लाख करोड़ रुपये का रखा गया है, जो चालू वर्ष की तुलना में 7.5 प्रतिशत अधिक है। इसमें सबसे बड़ी धनराशि 10 लाख करोड़ रुपये इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए रखी गई है। यह काफी लंबी छलाँग है। अर्थव्यवस्था की सेहत के लिहाज से देखें, तो इसके फौरी और दूरगामी दोनों तरह के परिणाम हैं।

फौरी परिणाम रोजगार और ग्रामीण उपभोग में वृद्धि के रूप में दिखाई पड़ेगा, जिससे अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद मिलेगी। साथ ही संवृद्धि के दूसरे कारकों को सहारा मिलेगा। दूरगामी दृष्टि से देश में निजी पूँजी निवेश के रास्ते खुलेंगे और औद्योगिक विस्तार का लाभ मिलेगा, जिसके सहारे अर्थव्यवस्था की गति तेज होगी। सरकार मानती है कि पूँजीगत निवेश पर एक रुपया खर्च करने पर तीन रुपये का परिणाम मिलता है।

Wednesday, February 1, 2023

सिंधु नदी के पानी में घुलती कड़वाहट


 देश-परदेस

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में पहले से जारी बदमज़गी में सिंधुजल विवाद के कारण कुछ कड़वाहट और घुल गई है. भारत ने पाकिस्तान को नोटिस दिया है कि हमें सिंधुजल संधि में बदलाव करना चाहिए, ताकि विवाद ज्यादा न बढ़ने पाए. इस नोटिस में 90 दिन का समय दिया गया है.

इस मसले ने पानी के सदुपयोग से ज्यादा राजनीतिक-पेशबंदी की शक्ल अख्तियार कर ली है. पाकिस्तान इस बात का शोर मचा रहा है कि भारत हमारे ऊपर पानी के हथियार का इस्तेमाल कर रहा है, जबकि भारत में माना जा रहा है कि हमने पाकिस्तान को बहुत ज्यादा रियायतें और छूट दे रखी हैं, उन्हें खत्म करना चाहिए.

भारतीय संसद की एक कमेटी ने 2021 में सुझाव दिया था कि इस संधि की व्यवस्थाओं पर फिर से विचार करने और तदनुरूप संशोधन करने की जरूरत है. उससे पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा भी इस आशय के प्रस्ताव पास कर चुकी थी. कुल मिलाकर पाकिस्तान को उसकी आतंकी गतिविधियों का सबक सिखाने की माँग लगातार की जा रही है.  

आर्बिट्रेशन का सहारा

पाकिस्तान की फौरी प्रतिक्रिया से लगता नहीं कि वह संधि में संशोधन की सलाह को मानेगा. वह विश्वबैंक द्वारा नियुक्त पंचाट-प्रक्रिया के सहारे इन समस्याओं का समाधान करना चाहता है. यह प्रक्रिया शुक्रवार 27 जनवरी को शुरू हो गई है. उसके शुरू होने के दो दिन पहले भारत ने यह नोटिस दिया है.

भारत को शिकायत है कि पाकिस्तान ने संधि के अंतर्गत विवादों के निपटारे के लिए दोनों सरकारों के बीच बनी व्यवस्था की अनदेखी कर दी है. भारत का यह भी कहना है कि विवादों के निपटारे के लिए संधि के अनुच्छेद 9 में जो चरणबद्ध व्यवस्था की गई थी, उसे भी तोड़ दिया गया है.

खास बात यह भी है कि भारत के जिन बाँधों को लेकर विवाद खड़ा हुआ है, वे इस दौरान ही बने हैं और अब काम कर रहे हैं. यानी पानी अब पूरी तरह बहकर पाकिस्तान जा रहा है. किशनगंगा बाँध झेलम पर और रतले बाँध चेनाब नदी पर बना है. झेलम की सहायक नदी है किशनगंगा, जिसका नाम पाकिस्तान में नीलम है.