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Wednesday, January 4, 2023

भारत-रूस रिश्तों में आता बदलाव


देस-परदेश

भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जहाँ सोवियत-व्यवस्था को तारीफ की निगाहों से देखा गया. भारत की तमाम देशों से मैत्री रही. शीतयुद्ध के दौरान गुट-निरपेक्ष आंदोलन में भी भारत की भूमिका रही. देश की जनता ने वास्तव में सोवियत संघ को मित्र-देश माना. आज के रूस को भी हम सोवियत संघ का वारिस मानते हैं.

यूक्रेन पर हमले की भारत ने निंदा नहीं की. संरा राष्ट्र सुरक्षा परिषद या महासभा में लाए गए ज्यादातर रूस-विरोधी प्रस्तावों पर मतदान के समय भारतीय प्रतिनिधि अनुपस्थित रहे. जरूरत पड़ी भी तो रूस की आलोचना में बहुत नरम भाषा की हमने इस्तेमाल किया.

शंघाई सहयोग संगठन के समरकंद में हुए शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी व्लादिमीर पुतिन से सिर्फ इतना कहा कि आज युद्धों का ज़माना नहीं है, तो पश्चिमी मीडिया उस बयान को ले दौड़ा. भारत-रूस मैत्री के शानदार इतिहास के बावजूद रिश्तों में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है और परिस्थितियाँ बता रही हैं कि दोनों की निकटता का स्तर वह नहीं रहेगा, जो सत्तर के दशक में था.

व्यावहारिक धरातल

सच यह है कि आज भारत न तो रूस का उतना गहरा मित्र है, जितना कभी होता था. पर वह उतना गहरा शत्रु कभी नहीं बन पाएगा, जितनी पश्चिम को उम्मीद हो सकती है. यूक्रेन पर हमले को लेकर भारत ने रूस की सीधी आलोचना नहीं की, पर भारत मानता है कि रूस के इस फौजी ऑपरेशन ने दुनिया में गफलत पैदा की है. विदेशमंत्री एस जयशंकर कई बार कह चुके हैं कि आम नागरिकों की जान लेना भारत को किसी भी तरह स्वीकार नहीं है.

भारत और रूस के रिश्तों के पीछे एक बड़ा कारण रक्षा-तकनीक है. भारतीय सेनाओं के पास जो उपकरण हैं, उनमें सबसे ज्यादा रूस से प्राप्त हुए हैं. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर धकेला. पश्चिमी देशों ने दक्षिण एशिया में एक सैनिक तानाशाही को सहयोगी बनाया था. दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार नहीं देता था.

रक्षा-तकनीक के अलावा कश्मीर के मामले में महत्वपूर्ण मौकों पर रूस ने संरा सुरक्षा परिषद में ऐसे प्रस्तावों को वीटो किया, जो भारत के खिलाफ जाते थे. कश्मीर के मसले पर पश्चिमी देशों के मुकाबले रूस का रुख भारत के पक्ष में था. यह बात मैत्री को दृढ़ करती चली गई. फिर अगस्त,1971 में हुई भारत-सोवियत संधि ने इस मैत्री को और दृढ़ किया.

उतार-चढ़ाव

भारत की विदेश-नीति में पिछले तीस वर्षों में काफी बदलाव आया है. यूक्रेन-युद्ध के पहले दोनों देशों के बीच तल्खी के मौके भी आए थे. वास्तव में रूस की चीन से नजदीकी बढ़ी है, जिसके कारण भारत के साथ अंततः कड़वाहट बढ़ेगी. अभी वह बहुत ज्यादा नहीं बढ़ी है, तो इसकी वजह यूक्रेन-युद्ध को लेकर भारतीय दृष्टिकोण है.

रूसी सैनिक-तकनीक पर काफी हद तक आश्रित होने के कारण भारत की नीति पूरी तरह रूस-विरोधी नहीं हो सकती. रूसी-दोस्ती के पीछे भारत की मध्य एशिया से जुड़ने की दिलचस्पी भी है. यों भी भारत किसी खेमे के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ेगा.

भारत बहु-ध्रुवीय दुनिया का समर्थक है, जबकि रूस और चीन इसे अमेरिका के मुकाबले दो-ध्रुवीय बनाना चाहते हैं. जब तक हम आत्मनिर्भर नहीं हो जाएंगे या कारोबार और हथियारों के विकल्प विकसित नहीं कर लेंगे, तब तक कठोर फैसले भले ही न कर पाएं, पर यह जरूर स्पष्ट करते रहेंगे कि हम किसी के पिट्ठू नहीं हैं.

रूस और चीन की कोशिश अमेरिका के मुकाबले खड़े होकर दुनिया को एक ध्रुवीय होने से रोकने की है, पर अगले एक दशक में भारत की आर्थिक-तकनीकी और सामरिक शक्ति बढ़ने पर दूसरे ध्रुव के बराबर तीसरी शक्ति भी खड़ी हो जाएगी.

नया शक्ति-संतुलन

दुनिया को अब उसी रूप में नहीं देख सकते, जैसे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देखा गया था. वैश्विक शक्ति-संतुलन बदल रहा है और यह क्या शक्ल लेगा, यह भारत के विकास के साथ तय होगा. फिर भी यह समय काफी महत्वपूर्ण है, जब भविष्य के रिश्तों की बुनियाद पड़ रही है. एक बात स्पष्ट है कि है कि भारत और चीन एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी होंगे.

रूस भी चीन से अपनी मैत्री के आधार पर भारत के साथ अपने रिश्ते तय कर रहा है. अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता पर वापसी के पहले रूस ने मॉस्को में बातचीत का जो सिलसिला शुरू किया था, उसमें पहले भारत को शामिल किया और फिर अनदेखी भी की. इसकी एक वजह यह भी थी कि वह चीन-पाकिस्तान गठजोड़ के प्रभाव में था. 

उस दौरान रूसी विदेशमंत्री सर्गेई लावरोव ने क्वॉड की सदस्यता को लेकर भारत की आलोचना में कई तीखे बयान भी दिए. प्रतिफल यह हुआ कि दिल्ली-यात्रा के समय लावरोव को नरेंद्र मोदी से मुलाकात का समय नहीं मिला.

कारोबारी रिश्ते

भारत और रूस के बीच रक्षा-तकनीक के अलावा भी कारोबारी रिश्ते हैं. 2017तक भारत में रूस का पूँजी निवेश 18 अरब डॉलर और भारत का रूस में 13 अरब डॉलर था. दोनों देशों ने 2025 तक कुल 30 अरब डॉलर के निवेश का लक्ष्य रखा था, जो अभी उस लक्ष्य को पार कर चुका है. भारत ने रूस के पेट्रोलियम कारोबार में निवेश किया है.

भारत ने रूस के सुदूर पूर्वी व्लादीवोस्तक में हो रहे नए विकास में भी निवेश किया है. नरेंद्र मोदी सितम्बर 2019 में ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम के सालाना अधिवेशन में शामिल होने के लिए व्लादीवोस्तक गए थे। उन्हें सम्मेलन में मुख्य अतिथि बनाया गया था. 2022 में भी उन्होंने फोरम को संबोधित किया था.

भारत की तुलना में चीन के साथ रूस के कारोबारी रिश्ते ज्यादा बड़े हैं. चीन ने रूस पर लगी आर्थिक पाबंदियों को मानने से इनकार कर दिया है. दोनों देश अब डॉलर के बजाय चीनी रनमिनबी और रूसी रूबल के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा कारोबार कर रहे हैं. भारत के साथ भी रूस का रुपये में कारोबार इस महीने से शुरू हुआ है. ये बातें एक नई विश्व-व्यवस्था की ओर भी इशारा कर रही हैं.  

तलवार की धार

हमारी विदेश-नीति इस समय अमेरिका और रूस के रिश्तों को लेकर ‘तलवार की धार पर’ है. अपने महत्व को रेखांकित करने, गुटों या देशों के दबाव से मुक्त होने और खासतौर से यूक्रेन के संदर्भ में भारतीय मंतव्य बार-बार उभर रहा है कि हमें लड़ाई पसंद नहीं, पर हम रूस को घेरने में मददगार भी नहीं बनेंगे.

अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के डायरेक्टर विलियम बर्न्स ने पिछले महीने नरेंद्र मोदी की तारीफ की. उन्होंने कहा कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचारों का रूस पर प्रभाव पड़ा. इससे यूक्रेन युद्ध के दौरान एक वैश्विक आपदा को टाला जा सका.

सीआईए प्रमुख के इस बयान के पहले व्लादिमीर पुतिन ने 3 दिसंबर को स्वीकार किया था कि इस संघर्ष में थोड़ा और समय लगेगा. उन्होंने परमाणु युद्ध के खतरे के बढ़ने की भी चेतावनी दी थी. पश्चिमी देश अब मानने लगे हैं कि रूस को रास्ते पर लाने में भारत बड़ी भूमिका निभा सकता है. गत 16 दिसंबर को पुतिन के साथ फोन पर बातचीत के दौरान पीएम मोदी ने फिर इस बात को दोहराया कि रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत होनी चाहिए.

अमेरिकी दृष्टिकोण

भारत और सोवियत संघ के बीच मजबूत आर्थिक-सैनिक सहयोग सोवियत संघ के विघटन के बाद भी चलता रहा और इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक से इसमें बदलाव आना शुरू हुआ है. 1998 के नाभिकीय परीक्षण के बाद अमेरिका समेत तमाम देशों ने भारत के खिलाफ कारोबारी और तकनीकी पाबंदियाँ लगानी शुरू कर दीं.

इन पाबंदियों के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, हमारी सीमा पर एटमी ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है. हालांकि उसके साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर अविश्वास का माहौल तो है ही. इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है.’ अमेरिकी प्रशासन ने इस पत्र को सोच-समझकर लीक किया, जिससे अमेरिकी नीति में आए बदलाव पर भी रोशनी पड़ती है.

रक्षा-आयात में बदलाव

इस प्रक्रिया को अमेरिका के साथ बढ़ते सामरिक-सहयोग, खासतौर से 2008 के नाभिकीय-समझौते की रोशनी में भी देखना चाहिए. देश की रक्षा तकनीक काफी हद तक आज भी रूसी है, पर अब फ्रांसीसी, इसरायली और अमेरिकी तकनीक की भूमिका बढ़ती जा रही है. इसे पूरी तरह बदलने में कम से कम दो दशक लगेंगे. पुराने हार्डवेयर के कल-पुर्जों और रिपेयर के लिए हम रूस पर आश्रित हैं.

अमेरिकी विदेश-नीति से जुड़ी संस्था कौंसिल ऑल फॉरेन रिलेशंस की वैबसाइट पर चार्ट की मदद से दिखाया गया है कि सन 2000 के आसपास भारत के समूचे रक्षा आयात में 80 फीसदी से ज्यादा रूसी सामग्री का होता था, जो 2020 में करीब 30 फीसदी रह गया है.

वैबसाइट ने यह भी दिखाया है कि संरा में रूस के पक्ष में होने वाला भारतीय मतदान घटता चला गया है. 2022 में भारत ने रूस का साथ देने के बजाय मतदान में अनुपस्थित होने का फैसला किया. यह बड़ा बदलाव है. हाल में भारत ने रूस से पेट्रोलियम खरीदने का फैसला किया है. पर इसे भी द्विपक्षीय सहयोग के बजाय यह मानना चाहिए कि भारत सस्ता तेल मिलने पर मौके का लाभ उठाना चाहता है.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित 

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