कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के रावण वाले बयान को लेकर राजनीति गर्म है। इस मामले में जयराम रमेश और पवन खेड़ा ने खड़गे जी के बयान का बचाव करते हुए कहा है कि मोदी जी आप हमारे नेताओं और बुजुर्गों के बारे में बोलते हो, तो सुनने की भी हिम्मत रखिए। आप क्या छुई-मुई बनकर राजनीति करेंगे? आप किसी को कुछ भी बोलते रहें...मसलन इटली की बेटी, जर्सी गाय, 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड और शूर्पनखा। आप क्या खास हैं? स्वर्ग से आए हैं? राजनीति में आए हैं, बोलना जानते हैं, तो सुनना भी सीखिए। जयराम रमेश ने भी सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बारे में की गई मोदी की टिप्पणियों का उल्लेख किया। कांग्रेसी नेताओं की टिप्पणी के पीछे के तर्कों और राजनीतिक-भाषा की गरिमा पर अलग से विचार करने की जरूरत है। जो सवाल खेड़ा और रमेश ने किए हैं, वैसे ही सवाल बीजेपी की तरफ से भी हैं। फिलहाल यहाँ एक व्यावहारिक प्रश्न है। गुजरात के चुनाव में ऐसी बात कहने से क्या कोई फायदा होगा? 2007 के चुनाव की शुरुआत सोनिया गांधी ने ‘मौत का सौदागर’ से की थी, हासिल क्या हुआ? मोदी के खिलाफ इस किस्म की अपमानजनक टिप्पणियाँ कांग्रेस की पुरानी और फेल रणनीति रही है। इस बार भी शुरुआत मधुसूदन मिस्त्री ने मोदी की ‘औकात’ बताने से की है। पार्टी का मन मोदी को कोसते हुए भर नहीं रहा है। इससे मोदी ही केंद्रीय विषय बन गए हैं। भले ही यह प्रसिद्धि नकारात्मक है, पर मोदी को गुजरात से उठकर राष्ट्रीय नेता बनने में इस बात का बड़ा योगदान है।
बदलती रणनीति
टिप्पणियाँ ही रणनीति है, तो फिर उसे पूरी शक्ल
दीजिए। दिसंबर, 2017 में ऐसी ही एक टिप्पणी पर मणि शंकर अय्यर को हाथोंहाथ निलंबित
कर दिया गया। जिस वक्त मणि शंकर अय्यर की मुअत्तली की खबरें आ रहीं थीं उसी वक्त
अमित शाह का ट्वीट भी सायबर-स्पेस में था। उन्होंने एक सूची देकर बताया था कि
कांग्रेस मोदी को किस किस्म की इज्जत बख्शती रही है। इनमें से कुछ विशेषण हैं,
यमराज, मौत का सौदागर, रावण,
गंदी नाली का कीड़ा, मंकी, वायरस,
भस्मासुर, गंगू तेली, गून
वगैरह। दिसंबर, 2017 में कांग्रेस पार्टी अपनी छवि किसी और दिशा में बना रही थी। अनुभव
बताता है कि कांग्रेस का दांव बार-बार उल्टा ही पड़ा है।
उल्टा पड़ा निशाना
आज मोदी जब अपने को ‘चायवाला’ बताते हैं, तो लगता है कि वे अपना प्रचार कर रहे हैं। याद करें कि किसने उन्हें ‘चायवाला’ कहा था? 2014 के चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस महा समिति की बैठक में मणि शंकर ने ही मोदी को चाय बेचने का सुझाव दिया था, जो पार्टी पर भारी पड़ा था। बीजेपी ने ‘चाय पर चर्चा’ को राजनीतिक रूप दे दिया। चाय वाले का वह रूपक मौके-बेमौके आज भी कांग्रेस को तकलीफ पहुँचाता है। नरेंद्र मोदी ने भी व्यक्तिगत टिप्पणियों को सुनने और उन्हें अपने पक्ष में करने में महारत हासिल कर ली है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जब कांग्रेस ने सीधे तौर पर पीएम मोदी पर हमला किया, लेकिन हर बार उन्होंने सफलतापूर्वक बाजी पलट दी और विजयी हुए। इस समय ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि गुजरात में क्या होने वाला है? गुजरात में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति को लेकर उसकी रणनीति क्या है?
‘सेल्फ गोल’ की आदत
राहुल गांधी ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ पर निकले
हैं। चुनाव-प्रचार के बजाय वे दूसरे रास्ते से सफल होना चाहते हैं और पार्टी इस
यात्रा से आह्लादित है। 2017 में उन्होंने गुजरात में पूरी ताकत लगा दी थी, इसबार उधर देख नहीं रहे हैं। क्या इससे 2024 के चुनाव में फायदा मिलेगा? यात्रा के दौरान भीड़ के वीडियो वायरल करने के परिस्थितियां नहीं
बदलेंगी। गुजरात और हिमाचल में सफलता मिली, तो जरूर बदलेंगी। लोकसभा चुनाव को अब
सिर पर ही मानिए। लोकसभा से पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद के चुनावों को भी
जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। हिमाचल प्रदेश और गुजरात के परिणाम इसी हफ्ते आने वाले हैं। सोनिया
गांधी के राजनीतिक सलाहकार रहे अहमद पटेल की बेटी मुमताज पटेल ने पार्टी को इस तरह
की टिप्पणियों से बचने की सलाह दी है, क्योंकि इसका कोई फायदा नहीं है और दूसरी
पार्टी को चुनाव में असली मुद्दों से बचने का मौका मिल जाता है। हुआ भी यही, खड़गे
की टिप्पणी को भाजपा ने गुजरात के लोगों का अपमान करार दिया। सवाल है कि कांग्रेस
के नेता बड़े मौकों पर ‘सेल्फ गोल’ क्यों कर
लेते हैं?
टिक-टिक टाइम-बम
पार्टी ने मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष चुन
लिया है और राहुल गांधी देशाटन पर हैं। रणनीति शायद यह है कि राहुल की चुनाव-फेस
छवि की जगह राष्ट्र-नेता की छवि बने और खड़गे संगठन को बेहतर बनाएं। पर कुछ
टाइम-बम टिक-टिक कर रहे हैं। इस हफ्ते गुजरात और हिमाचल के चुनाव-परिणामों के साथ
ही राहुल गांधी की यात्रा राजस्थान में प्रवेश करने जा रही है, जहाँ अशोक गहलोत और
सचिन पायलट के बीच नेतृत्व को लेकर झगड़ा है। इस बम को फिलहाल फटने से रोक लिया
गया है। कुछ समय बाद ही यह विवाद फिर खड़ा होगा और इसका असर मल्लिकार्जुन खड़गे की
अध्यक्षता पर पड़ेगा। पिछले कुछ दिनों में गहलोत और पायलट खेमों के बीच नाकारा,
निकम्मा के बाद ग़द्दार जैसे शब्दों का आदान-प्रदान हुआ है। पार्टी
ने फिलहाल आग पर पानी डाल दिया है, पर धुआँ नज़र आ रहा है।
राहुल की राजनीति
राहुल गांधी ने यह कहकर कि दोनों हमारे असेट
हैं, मामले को अपनी तरफ से निपटा दिया, पर उनके बयान से भी विसंगतियाँ पैदा हुई
हैं। पार्टी महासचिव केसी वेणुगोपाल ने गत 29 नवंबर को जयपुर पहुँचकर दोनों गुटों
को चेतावनी दी कि अगर अब किसी ने एक भी शब्द बोला तो आज वह जहां है, कल वहां नहीं रहेंगे। गहलोत और पायलट ने जयपुर की एक सभा में हाथ भी
मिला लिए। पर यह बच्चों का झगड़ा नहीं है, जो हाथ मिलवाने मात्र से खत्म हो जाता है।
वस्तुतः यह झगड़े की समाप्ति नहीं है, बल्कि राहुल गांधी की ‘भारत-जोड़ो
यात्रा’ के राजस्थान प्रवेश के पहले की आरोपित शांति
है। राहुल गांधी के बयान के भी कई तरह के मायने निकाले गए हैं। अभी तक माना जाता है
कि सचिन पायलट को प्रियंका गांधी ने कुछ आश्वासन दिए हैं, इसलिए उन्हें परिवार का
समर्थन प्राप्त है। पर अब अशोक गहलोत ने कहा कि राहुल गांधी के 'असेट' वाले बयान के मायने हैं कि कांग्रेस का
हर कार्यकर्ता महत्वपूर्ण है। यानी कि राहुल इस झगड़े में किसी के साथ नहीं हैं। उधर
अजय माकन की तकलीफ यही है कि हम जयपुर में नए नेता का चुनाव कराने गए थे, तब गहलोत
समर्थक आए नहीं और अपनी समानांतर बैठक कर ली। उन कार्यकर्ताओं के खिलाफ कोई
कार्रवाई नहीं हुई। गहलोत का कहना है कि अनुशासनहीनता तो 2020 में हुई थी, जब सचिन
पायलट पार्टी छोड़ने को तैयार थे।
राजस्थान की चिंता
लगता यह भी है कि पार्टी गहलोत को छेड़ना नहीं
चाहती। उसे 2023 के चुनाव की चिंता है। जिस तरह से पंजाब के चुनाव के ठीक पहले
नेतृत्व के साथ छेड़खानी होने का परिणाम अच्छा नहीं हुआ, कहीं वैसा ही न हो जाए। पार्टी
को भरोसा नहीं है कि पायलट चुनाव जिता पाएंगे, खासतौर से ऐसे माहौल में जब गहलोत
का खेमा उनका विरोध करेगा। उधर गुजरात के चुनाव को देखते हुए भी पार्टी इस प्रकरण
को दबाकर ही रखना चाहती है। अशोक गहलोत गुजरात में पार्टी के प्रभारी भी हैं। अशोक
गहलोत को पता है कि उनके बगैर राजस्थान में पार्टी को पैर जमाने में दिक्कतें पेश
आएंगी। गहलोत ने एक राष्ट्रीय चैनल में खुलकर कहा कि जिस आदमी के पास 10 विधायक
नहीं हैं, जिसने बगावत की हो, जिसे
गद्दार नाम दिया गया है, उसे लोग कैसे स्वीकार कर लेंगे? जिनके कारण हम 34 दिन होटलों में बैठे रहे, वे सरकार
गिरा रहे थे। आप सर्वे करवा लीजिए कि मेरे मुख्यमंत्री रहने से सरकार आ सकती है तो
मुझे रखिए। दूसरे चेहरे से सरकार आ सकती है तो उसे बनाइए। उन्होंने यह भी कहा कि 25
सितंबर को बगावत नहीं हुई थी। 2019 में बगावत हुई थी। एक तरह से यह हाईकमान के नाम
संदेश है।
हाईकमान कौन?
यह सवाल हर ज़ुबान पर है कि कांग्रेस इस समस्या
का समाधान क्यों नहीं कर पा रही है? ठीकरा खड़गे पर ही फूटेगा, क्योंकि
हाईकमान के नाम पर अब वे ही हैं। इस समस्या का समाधान क्या है? या
तो गहलोत कुर्सी छोड़ें या पायलट कुर्सी से कम पर मान जाएं। खड़गे यह फैसला नहीं
कर पाएंगे। इन दोनों बातों में से कोई एक तभी मानी जाएगी, जब गांधी परिवार जोर देकर
किसी एक पक्ष से मानने को कहेगा। बताया जाता है कि प्रियंका गांधी ने जुलाई 2020
में सचिन पायलट को बगावत से रोका था और कोई आश्वासन दिया था। फिलहाल दोनों पक्ष
राहुल गांधी की प्रतिष्ठा के नाम पर कुछ देर के लिए खामोश हो गए हैं, पर कब तक?
कालीन के नीचे
कचरा
परिवार कहेगा, तो गहलोत के साथी विधायक उस
फैसले को मानने को मजबूर होंगे। पर क्या पायलट 2023 का चुनाव जिता पाएंगे? यह
कांग्रेस का तरीका है, जिसमें संकट को फौरी तौर पर टाल दिया जाता है, पर पूरा
समाधान नहीं हो पाता। तकरीबन ऐसा ही छत्तीसगढ़ में हुआ। राजस्थान-प्रकरण सुलझ भी गया, तो अगला सवाल पार्टी के वैचारिक और
संगठनात्मक बदलावों की योजना से जुड़ा उठेगा। 50 प्रतिशत पद 50 साल से कम उम्र वालों को और ‘एक परिवार, एक पद’ के
सिद्धांतों की व्यावहारिक दिक्कतें हैं। खड़गे जी को यदि राज्यसभा में विपक्ष का
नेता बनाया गया, तो यह सिद्धांत सबसे पहले टूटेगा।
No comments:
Post a Comment