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Wednesday, December 28, 2022

चीन के करीब क्यों जाना चाहता है नेपाल


भारत-नेपाल रिश्ते-3

ताकतवर पड़ोसी देश होने के कारण नेपाल का चीन के साथ अच्छे रिश्ते बनाना स्वाभाविक बात है, पर इन रिश्तों के पीछे केवल पारंपरिक-व्यवस्था नहीं है, बल्कि आधुनिक जरूरतें हैं. दोनों के बीच 1 अगस्त 1955 को राजनयिक रिश्ते की बुनियाद रखी गई. दोनों देशों के बीच 1,414 किलोमीटर लंबी सीमा है. यह सीमा ऊँचे और बर्फ़ीले पहाड़ों से घिरी हुई है. हिमालय की इस लाइन में नेपाल के 16.39 फ़ीसदी इलाक़े आते हैं. शुरुआती समझ जो भी रही हो, पर नेपाल ने हाल के वर्षों में चीन को खुश करने वाले काम ही किए हैं.

21 जनवरी 2005 को नेपाल की सरकार ने दलाई लामा के प्रतिनिधि ऑफिस, जिसे तिब्बती शरणार्थी कल्याण कार्यालय के नाम से जाना जाता था, उसे बंद कर दिया. काठमांडू स्थित अमेरिकी दूतावास ने इसपर आपत्ति जताई, लेकिन नेपाल फ़ैसले पर अडिग रहा. ज़हिर है कि चीन ने नेपाल के इस फ़ैसले का स्वागत किया.

युद्ध में तटस्थ

भारत के साथ रक्षा-समझौता होने के बावजूद 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेपाल तटस्थ रहा. उसने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर दिया, जबकि भारत चाहता था कि भारत के साथ नेपाल खुलकर आए. नेपाल की इस तटस्थता का एक परिचय 1969 में देखने को मिला, जब नेपाली प्रधानमंत्री कीर्ति निधि बिष्ट ने धमकी दी कि यदि भारत ने नेपाल की उत्तरी सीमा पर तैनात अपने सैनिकों को नहीं हटाया, तो मैं अनशन करूँगा.

इसके बाद भारत ने अपनी सेना हटाई, जबकि 1962 के युद्ध के समय भारतीय सेना वहाँ तैनात थी. भारत-नेपाल के बीच 1950 की संधि के अंतर्गत इसकी व्यवस्था है. नेपाल ऐसा करके अपनी तटस्थता को साबित करना चाहता था और शायद चीन को भरोसा दिलाना चाहता था कि हम आपके खिलाफ भारत के साथ नहीं हैं. 2017 में जब डोकलाम-विवाद खड़ा हुआ, तब सवाल था कि क्या नेपाल अपनी तटस्थता को लंबे समय तक बनाए रख सकेगा.  

2015 में नेपाल जब संविधान लागू कर रहा था, तब भारत के तत्कालीन विदेश सचिव एस जयशंकर नेपाल गए और संविधान की निर्माण-प्रक्रिया में भारत के पक्ष पर विचार करने का आग्रह उन्होंने किया. ये चिंताएं तराई में रहने वाले मधेसियों को लेकर थीं. नेपाल के संविधान में देश को धर्मनिरपेक्ष बनाने की घोषणा की गई है. इसके निहितार्थ को लेकर भी कुछ संदेह थे. 26 मई 2006 को बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था, ''नेपाल की मौलिक पहचान एक हिंदू राष्ट्र की है और इस पहचान को मिटने नहीं देना चाहिए. बीजेपी इस बात से ख़ुश नहीं होगी कि नेपाल अपनी मौलिक पहचान माओवादियों के दबाव में खो दे.''

नेपाल के राजनेताओं को इस बात पर आपत्ति है कि भारत उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता है. बहरहाल संविधान बन गया और वहाँ सरकार भी बन गई. दूसरी तरफ उन्हीं दिनों यानी 2015 में भारत ने अघोषित नाकेबंदी शुरू कर दी. नेपाल में पेट्रोल और डीजल का संकट पैदा हो गया. इसपर नेपाल ने चीन के ट्रांज़िट रूट को खोलने की घोषणाएं कीं. पर वह मुश्किल काम है. नेपाल में चीन की राजदूत के व्यवहार से यह भी स्पष्ट था कि इन राजनेताओं को चीनी हस्तक्षेप पर आपत्ति नहीं थी. नेपाल को यह भी लगता है कि भारत उसकी निर्भरता का फ़ायदा उठाता है, इसलिए चीन के साथ ट्रांज़िट रूट को और मज़बूत करने की ज़रूरत है.

हिरण्य लाल श्रेष्ठ ने अपनी किताब '60 ईयर्स ऑफ़ डायनैमिक पार्टनरशिप' में लिखा है, ''नेपाल ने चीन के साथ 15 अक्तूबर 1961 को दोनों देशों के बीच रोड लिंक बनाने के लिए एक समझौता किया. इसके तहत काठमांडू से खासा तक अरनिको राजमार्ग बनाने की बात हुई. इस समझौते का भारत समेत कई पश्चिमी देशों ने भी विरोध किया. समझौते के हिसाब से चीन ने अरनिको हाइवे बनाया और इसे 1967 में खोला गया. कहा जाता है कि इस सड़क का निर्माण चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने किया. यह भारत से निर्भरता कम करने की शुरुआत थी.''

इस हाइवे को दुनिया की सबसे ख़तरनाक रोड कहा जाता है. भूस्खलन यहाँ लगातार होता है और अक्सर यह सड़क बंद रहती है. नेपाल इसी रूट के ज़रिए चीन से कारोबार करता है, लेकिन यह बहुत ही मुश्किल है. यहाँ भारी बारिश होती है जिससे, भूस्खलन यहाँ आम बात है. 112.83 किलोमीटर लंबी इस सड़क के दोनों तरफ खड़े ढाल हैं और कहा जाता है कि इस पर गाड़ी चलाना जान जोखिम में डालने जैसा है. यह पुराने ज़माने में याकों के आवागमन का मार्ग था. चीन-नेपाल मैत्री सेतु पर यह सड़क चीन के राजमार्ग 318 से मिलती है, जो ल्हासा तक ले जाती है. उसके बाद शंघाई तक जाने वाली सड़क है.

भारत के बाद नेपाल का दूसरा सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर चीन है. हालाँकि इसके बावजूद कारोबार का आकार बहुत छोटा है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2017-18 में नेपाल ने चीन से कुल 2.3 करोड़ डॉलर का निर्यात किया. इसी अवधि में नेपाल ने चीन से डेढ़ अरब डॉलर का आयात किया. नेपाल का चीन से कारोबार घाटा लगातार बढ़ रहा है.

2009 के बाद से चीन 8,000 नेपाली उत्पादों को बिना किसी शुल्क के अपने यहाँ आने देता है. नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार नेपाल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई का सबसे बड़ा स्रोत चीन है. मार्च 2017 में काठमांडू में आयोजित नेपाल इन्वेस्टमेंट समिट में चीनी निवेशकों ने 8.3 अरब डॉलर के निवेश का वादा किया था. नेपाल में विदेशी पर्यटकों का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत चीन है. 2018 में 164,694 चीनी पर्यटक नेपाल आए. एक जनवरी, 2016 से नेपाल की सरकार ने चीनी पर्यटकों के लिए वीज़ा शुल्क ख़त्म कर दिया था.

इसके पहले 1989 में राजीव गाँधी की सरकार ने नेपाल और चीन ट्रांज़िट संधि और बढ़ती क़रीबी की प्रतिक्रिया में आर्थिक नाकेबंदी लगाई थी. नवंबर 1989 में चीनी प्रधानमंत्री ली फेंग नेपाल के दौरे पर आए. तब भारत ने नेपाल पर आर्थिक नाकेबंदी लगा दी थी और दोनों देशों में भारी तनाव पैदा हो गया. नेपाल ने चीन से हथियार आयात करने का फ़ैसला किया था, इसीलिए राजीव गाँधी की सरकार ने नाकेबंदी लगा दी थी.

चीनी प्रधानमंत्री ने नेपाल की हर संभव सहायता की घोषणा की. 21 नवंबर, 1989 को ली फेंग ने काठमांडू में प्रेस कॉन्फ़्रेंस की और कहा कि चीन ने अपने दोस्त राष्ट्रों को सैन्य उपकरण मुहैया कराया है. सुरक्षा उपकरणों को भेजना बिल्कुल उचित फ़ैसला है और यह किसी भी देश के ख़िलाफ़ नहीं है. चीन से नेपाल के रिश्ते हमेशा अच्छे रहे. राजा वीरेंद्र 1966 से 2001 तक 10 बार चीन गए. भारत की चिंता चीनी गतिविधियों को लेकर ही है. नेपाल में केवल सरकारी स्तर पर ही चीन की उपस्थिति नहीं है, बल्कि कई प्रकार के ऐसे एनजीओ जो चीनी पैसे से चलते हैं, नेपाल में सक्रिय हैं. उन्हें लेकर भी फिक्र है.

भारत से रिश्ते

नेपाल में बढ़ती भारत-विरोधी भावना पर बीबीसी हिंदी ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. नेपाल के साथ भारत के पाँच राज्यों- सिक्किम, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की 1850 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है. दोनों देशों के बीच बिना वीज़ा के आवाजाही है. तराई के इलाक़े के लोगों का रोज़ी-रोटी का संबंध काठमांडू के मुकाबले भारत से कहीं ज़्यादा है.

1950 में भारत और नेपाल के बीच हुई शांति और मैत्री संधि को भी दोनों देशों के रिश्तों में अहम माना जाता है. नेपाल इस संधि पर पुनर्विचार चाहता है. नेपाल का कहना है कि भारत ने ये संधि तब की थी, जब नेपाल में राणाशाही थी. अब नेपाल लोकतांत्रिक गणतंत्र है और सारी संधियाँ गणतंत्र के हिसाब से ही होंगी.

1950 की मैत्री संधि के अनुच्छेद दो के अनुसार नेपाल और भारत दोनों किसी पड़ोसी देश से टकराव और ग़लतफ़हमी की सूरत में एक दूसरे को सूचित करेंगे. नेपाल का कहना है कि भारत ने इस उपबंध का कभी पालन नहीं किया. नेपाल का तर्क है कि भारत का चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ, तो उसने नेपाल को इसे लेकर कोई सूचना नहीं दी.

इस संधि के अनुच्छेद पाँच के अनुसार भारत या भारत के ज़रिए ही नेपाल हथियार, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री ख़रीद सकता है. नेपाल का कहना है कि भारत इसका पालन नहीं करता है. नेपाल का कहना है कि उसने 1989 में चीन से एंटी-एयरक्राफ्ट गन ख़रीदने का फ़ैसला किया, तो भारत ने इसकी प्रतिक्रिया में नाकेबंदी लगा दी.

इस संधि के अनुच्छेद छह से नेपाल और भारत के नागरिकों को दोनों देशों में औद्योगिक और आर्थिक गतिविधि की अनुमति मिली हुई है. नेपाल इस उपबंध की समीक्षा चाहता है. नेपाल का तर्क है कि इस उपबंध के कारण नेपाली अपनी ही ज़मीन पर भारतीयों से पिछड़ जा रहे हैं.

1950 की मैत्री संधि के अनुच्छेद सात में नेपाल और भारत के लोगों को दोनों देशों में संपत्ति की ख़रीद और कारोबार की अनुमति मिली हुई है. नेपाल चाहता है कि भारत जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के नागरिकों को इस तरह का अधिकार नहीं मिलना चाहिए. लेकिन नेपाल ये चाहता है कि नेपालियों को भारत में संपत्ति की ख़रीद का अधिकार मिलना चाहिए.

भारत का कहना है कि इस संधि से नेपालियों को फ़ायदा है. भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार भारत में 80 लाख नेपाली भारतीयों की तरह रहते हैं और काम करते हैं और क़रीब छह लाख भारतीय नेपाल में रहते हैं.

सवाल है कि नेपाल खुलकर क्यों नहीं कहता कि अरुणाचल प्रदेश भारत का है और पूरा जम्मू-कश्मीर भी भारत का है? इस पर नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री रमेशनाथ पांडे कहते हैं, यह भी सोचना चाहिए कि नेपाल ने आज तक ऐसा क्यों नहीं किया. आख़िर भारत की ऐसी कौन सी नीति है, जिसकी वजह से नेपाल इस मामले में खुलकर सामने नहीं आया. इस मामले में नेपाल का स्टैंड है कि चीन और भारत का संबंध मधुर रहे और हम इसमें ही योगदान दे सकते हैं.

नेपाल का भारत सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है. भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार 2019-20 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार सात अरब डॉलर का रहा. भारत से नेपाल को होने वाला निर्यात नेपाल की जीडीपी का करीब 22 प्रतिशत होता है.

भारत से नेपाल पेट्रोलियम उत्पाद, मोटर-गाड़ी, स्पेयर पार्ट्स, चावल, दवा, मशीनरी, बिजली उपकरण, सीमेंट, कृषि उपकरण, कोयला और कई तरह के उत्पादों का आयात करता है. नेपाल के साथ चीन की तुलना में भारत का कारोबार आठ गुना ज़्यादा है.

नेपाल में भारत का निवेश भी बहुत बड़ा है. भारतीय विदेश मंत्रालय के अनुसार नेपाल में कुल मंज़ूर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारत का हिस्सा 33 फ़ीसदी से भी ज्यादा है. नेपाल में भारत के 150 उपक्रम काम कर रहे हैं. इनमें बैंक से लेकर कई मैन्युफैक्चरिंग कंपनियाँ तक शामिल हैं. पर अब नेपाल भारत पर अपनी निर्भरता कम करना चाहता है. इसके लिए उसे चीन के साथ अपने रिश्ते सुधारने होंगे.

चीन के साथ रिश्ते जोड़ने में भौगोलिक दिक़्क़तें हैं. नेपाल और भारत के बीच 27 बॉर्डर पॉइंट्स हैं, जबकि चीन और नेपाल के बीच केवल एक बॉर्डर पॉइंट तातोपानी है. चीनी पोर्ट ग्वांगझो काठमांडू से 2,844 किलोमीटर दूर है, जबकि कोलकाता पोर्ट काठमांडू से 866 किलोमीटर ही दूर है. चीनी माल लाना भी कोलकाता के रास्ते सस्ता पड़ता है. तब सवाल है कि भारत पर उसका इतना आश्रय है, तब वह अपनी किस सामर्थ्य पर भारत को आँखें दिखाता है?

अग्निवीर योजना

भारतीय सेना में नेपाल के 32 हजार से ज्यादा सैनिक काम करते हैं. नेपाल में रहने वाले पूर्व सैनिकों को पेंशन देने के लिए भारत ने विशेष व्यवस्था की है, फिर भी नेपाल ने हाल में अग्निवीर कार्यक्रम में अड़ंगा लगाया है. इस साल भारतीय सेना में गोरखा सैनिकों भरती शुरू नहीं हो पाई. नेपाल की सरकार एवं विरोधी दलों ने अग्निपथ योजना का विरोध किया है. नेपाल सरकार की मंजूरी नहीं मिलने के कारण भरती को स्थगित करना पड़ा.

नेपाली गोरखा 'अग्निवीर' बनने के लिए नहीं आए, तो उनकी खाली जगह को भारत में रह रहे गोरखों से भरा जाएगा. भारत सरकार भी इस मुद्दे पर अपनी नीति बदलना नहीं चाहती. गतिरोध जारी रहा, तो भारतीय सेना में नेपाली गोरखों की भरती बंद हो सकती है. पर इससे नुकसान किसे होगा?

मौजूदा समय में 32 हजार से अधिक गोरखा, भारतीय सेना में हैं. इसके अलावा एक लाख चालीस हजार पेंशनर हैं। वेतन और पेंशन की कुल रकम देखें तो यह धनराशि लगभग 4,100 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष है, जो नेपाल के रक्षा बजट लगभग 43 करोड़ डॉलर (करीब 3,500 करोड़ रुपये) से ज्यादा है. ऐसे में नेपाल को आर्थिक तौर से भी बड़ा नुकसान संभव है। ज़हिर है कि नुकसान नेपाल के नागरिकों को ही होगा. अब खबरें सुनाई पड़ी हैं कि चीन अपनी सेना में गोरखों को भरती करने को तैयार हो रहा है. पर यह बात कहना आसान है, उसे लागू करना मुश्किल है. अलबत्ता इस आशय की सूचनाएं उपलब्ध हैं कि 1962 की लड़ाई के दौरान चीन ने भारतीय सेना के जो युद्धबंदी बनाएं थे, उनमें से गोरखों को अलग करके उन्हें भारतीय अफसरों के खिलाफ पट्टी पढ़ाई और कहा कि चीनी और नेपाली भाई है. पाकिस्तान भी नेपाल की नाराजगी का फायदा उठाना चाहता है. आईएसआई इस दिशा में सक्रिय है. (पूर्ण)

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