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Wednesday, December 14, 2022

तालिबान-भारत रिश्तों में गर्मजोशी का माहौल

 देस-परदेश

एक अरसे से अफगानिस्तान से जुड़ी ज्यादातर खबरें नकारात्मक रही हैं, पर हाल में मिले कुछ संकेतों से लगता है कि भारत-अफगान रिश्तों में सुधार के आसार हैं. तालिबान-शासन आने के बाद से वहाँ बंद पड़ा भारतीय दूतावास आंशिक रूप से खुल गया है, और दोनों सरकारों के बीच बातचीत चलने लगी है. भारत ने तालिबान प्रशासन को मान्यता नहीं दी है, पर संपर्कों को बनाकर रखा है.

दूसरी तरफ अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों को भी बारीक निगाहों से देखा जाता है, जिसमें गिरावट आई है. बढ़ती बदमज़गी का नवीनतम उदाहरण है इसी रविवार को सरहदी शहर चमन में हुई गोलाबारी, जिसमें छह लोगों की मौत और 17 लोगों के जख्मी होने की खबर है. पाकिस्तान का कहना है कि ये गोले सरहद पार से अफगान सेना ने दागे थे.

हामिद करज़ाई या अशरफ ग़नी की सरकारों के साथ भारत के रिश्ते जैसे थे, वैसे या उसके आसपास की कल्पना करना अभी सही नहीं है, पर तालिबान के पिछले प्रशासन की तुलना में भी इस वक्त के रिश्ते बेहतर स्थिति में हैं. 1996 से 2001 के बीच दोनों देशों के बीच किसी किस्म का संवाद नहीं था. आज कम से कम इतना हुआ है कि भारतीय दूतावास खुल गया है, और सीधे बातचीत संभव है.   

भारतीय परियोजनाएं

तालिबान ने भारत से अपील की है कि आप अफगानिस्तान में अधूरी पड़ी परियोजनाओं को पूरा करें. इतना ही नहीं गत 7 दिसंबर को अफगानिस्तान के रक्षा मंत्रालय ने कहा कि हम चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए भारत को हर तरह की सुविधा उपलब्ध कराने को तैयार हैं.

चाबहार में बंदरगाह के विकास का काम भारत कर रहा है. अफगान विदेश मंत्रालय ने चाबहार पोर्ट को उत्‍तर-दक्षिण अंतरराष्ट्रीय ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर में शामिल किए जाने का स्‍वागत भी किया है. यह कॉरिडोर मुंबई को ईरान तथा अजरबैजान से होकर मॉस्को से जोड़ने के लिए प्रस्तावित है. चीन के बीआरआई के मुकाबले यह कॉरिडोर हिंद महासागर और फारस की खाड़ी को ईरान के ज़रिए कैस्पियन सागर और रूस होते हुए उत्तरी यूरोप से जोड़ेगा. इसमें ईरान, अज़रबैजान और रूस के रेल मार्ग भी जुड़ेंगे.  

पिछले साल तक भारत तालिबान से संपर्क बनाने में हिचकिचाता था, पर अब वह हिचक दूर हो चुकी है. दूसरी तरफ तालिबान-विरोधी ताकतों के साथ भी भारत का संपर्क है. इलाके की स्थिरता में भारत भूमिका निभा सकता है, बल्कि सेतु बन सकता है, बशर्ते परिस्थितियाँ साथ दें. अफगानिस्तान के मामलों से जुड़े अमेरिका के विशेष दूत टॉमस वेस्ट गत 6 दिसंबर को भारत आए थे. उन्होंने दिल्ली में डिप्टी एनएसए विक्रम मिसरी, विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव जेपी सिंह और अन्य उच्चाधिकारियों से मुलाकात की.

इस दौरे में टॉमस वेस्ट ने अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सुलह परिषद के अध्यक्ष डॉ अब्दुल्ला अब्दुल्ला से भी मुलाकात की है. हामिद करज़ाई और डॉ अब्दुल्ला का तालिबान के साथ संपर्क बना हुआ है. अफगानिस्तान को दुनिया के वित्तीय-नेटवर्क से जोड़ने की चुनौती भी है.

मान्यता नहीं

तमाम फैसले अभी होने हैं. बहुत से फैसले वैश्विक जनमत के आधार पर होंगे, खासतौर से उसे वैश्विक मान्यता दिलाने में अमेरिका की भूमिका होगी. तालिबान के अधीन अफगानिस्तान में स्त्रियों की दशा और अन्य सामाजिक मापदंडों पर किसी किस्म का सुधार नहीं है. बावजूद इन बातों के तालिबान से संपर्क बनाया गया है. 

पिछले 15 महीनों में संरा सुरक्षा परिषद और महासभा में अफगानिस्तान को लेकर कई बार विचार-विमर्श हुआ है, पर तालिबान-प्रशासन को मान्यता नहीं मिली है. अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने हाल में कहा है कि अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी गोलबंद हो रहे हैं. अमेरिका का दावा है कि हमने अल कायदा के नेता अल जवाहिरी को अफगानिस्तान की जमीन पर मार गिराया है.  

हाल में पाकिस्तानी दूतावास पर हुए हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है. इस इलाके में अपने प्रभाव को कायम करने के लिए अमेरिका एकबार फिर से पाकिस्तान का सहारा लेता नजर आ रहा है, जबकि पिछले साल तालिबान की विजय के लिए बाइडन प्रशासन ने पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया था.

भारत का दोस्त  

केवल 1996 से 2001 के तालिबान शासन को छोड़ दें, तो अफगानिस्तान के साथ भारत के रिश्ते हमेशा अच्छे रहे हैं. दूसरी तरफ 1947 में भारत के विभाजन के बाद उनके पाकिस्तान के साथ शायद ही कभी अच्छे रिश्ते रहे हों. 1947 में अफगानिस्तान अकेला देश था, जिसने पाकिस्तान को संरा का सदस्य बनाने का विरोध किया था.

अफगानिस्तान ने पाकिस्तान का विरोध उस दौर में इसलिए किया था, क्योंकि वह पश्तूनिस्तान को अपने देश का हिस्सा मानता था. यह राष्ट्रीय-हितों से जुड़ा मामला था. दोनों देशों की सीमा बनाने वाली डूरंड लाइन को वे स्वीकार नहीं करते हैं. उनका जनजातीय समाज भी पाकिस्तान से पूरी तरह मेल नहीं खाता.

सुरक्षा की फिक्र

अफगानिस्तान में भारत की दिलचस्पी दो कारणों से है. वह हमारा परंपरागत मित्र रहा है, पर अस्सी और नब्बे के दशक में पाकिस्तान आए अफगान शरणार्थियों के बीच मदरसों के माध्यम से पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान ने भारत-विरोधी प्रचार किया। नब्बे के दशक में कश्मीर में हिंसा भड़काने के लिए अफगान लड़ाकों का सहारा लिया था. बावजूद इसके अफगान समाज में भारत की छवि दोस्त की बनी हुई है.

गत 6 दिसंबर को मध्य एशियाई देशों के सुरक्षा-सलाहकारों के भारत द्वारा आयोजित सम्मेलन का केंद्रीय विषय अफगानिस्तान था. सम्मेलन में भारत के सुरक्षा एनएसए अजित डोभाल ने आतंकवाद के वित्तपोषण का सवाल उठाया. भारत और मध्य एशिया के देश चाहते हैं कि अफगानिस्तान फिर से आतंकी गतिविधियों का केंद्र न बने. तालिबान के साथ संपर्क होना इस सिलसिले में सकारात्मक परिघटना है.  

गत 27 जनवरी को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत-मध्य एशिया वर्चुअल शिखर सम्मेलन की मेजबानी की थी, जिसमें कजाकिस्तान, किर्गीज़ गणराज्य, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज्बेकिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया था. उसी क्रम में नई दिल्ली में भारत-मध्य एशिया सचिवालय बनाने का फैसला हुआ और अब एनएसए स्तर की बैठक हुई.

मध्य एशिया से संपर्क

भारत को मध्य एशिया से कारोबार के लिए रास्ते की जरूरत है. पाकिस्तान हमें रास्ता देगा नहीं. हमने ईरान के रास्ते अफगानिस्तान को जोड़ने की योजना बनाई थी. भारत ने ईरान में चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन का विकल्प तैयार किया. हमारे सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है.

भारत-ईरान और अफगानिस्तान ने 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था, जिसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक कॉरिडोर बनाने की बात थी. भारत ने अफगानिस्तान को इस रास्ते से गेहूँ भेजकर इसकी शुरुआत भी की थी.

इस प्रोजेक्ट को उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर के साथ भी जोड़ने की बात है. अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम के अलावा दो और तथ्य भारत की भूमिका को निर्धारित करेंगे. एक, भविष्य में ईरान के साथ हमारे रिश्तों की भूमिका और दूसरे इस क्षेत्र में चीन की पहलकदमी. ईरान की दिलचस्पी भी अफगानिस्तान में है.

दृष्टिकोण में बदलाव

तालिबान के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया है. उन्हें पता है कि भारत ने अफगानिस्तान के विकास में मदद की है, जिसकी आज उन्हें जरूरत है. भारत ने पिछले 20 वर्ष में अफगानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर पर करीब तीन अरब डॉलर का पूँजी निवेश किया है. सड़कों, पुलों, बाँधों, रेल लाइनों, शिक्षा, चिकित्सा, खेती और विद्युत-उत्पादन की तमाम योजनाओं पर भारत ने काम किया है और जब भारत वहाँ से हटा था, तब काफी पर काम चल रहा था.

सलमा बाँध और देश का संसद-भवन इस सहयोग की निशानी है. जिस वक्त तालिबानी शासन की वापसी हुई थी, उन दिनों काबुल नदी पर शहतूत बाँध पर काम शुरू ही हुआ था. फिलहाल इन सभी परियोजनाओं पर काम रुक गया है और हजारों इंजीनियर तथा कर्मचारी भारत वापस चले गए.

हालात बदले हुए हैं. तब तालिबान पुलों, बाँधों और सड़कों पर हमला करते थे, आज वे इनकी सुरक्षा की गारंटी दे रहे हैं. हाल में खबर थी कि अफगान नेताओं ने भारत से आग्रह किया है कि आप कम से कम 20 परियोजनाओं पर काम शुरू करें, जो अधूरी पड़ी हैं. मोटे तौर पर 400 से अधिक परियोजनाएं अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में शुरू की गई थीं. ये फिलहाल बंद पड़ी हैं.

आसान नहीं

परियोजनाएं शुरू करना आसान नहीं है. बिजली, सड़क और संचार से जुड़ी परियोजनाओं के लिए उपकरण भेजना ही दिक्कत तलब है. मानवीय सहायता के रूप में गेहूं भेजने में काफी परेशानी हुई. पाकिस्तान हमें सड़क के रास्ते माल भेजने की अनुमति नहीं देता है.

अपने श्रमिकों और परियोजनाओं से जुड़े कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर भी भारत आश्वस्त होना चाहेगा. कारोबारों के लिए बीमा कवरेज अभी वहाँ उपलब्ध नहीं है. बैंकिंग व्यवस्था दुनिया से कटी हुई है. अफगानिस्तान की परियोजनाओं के अलावा भारत में पढ़ने वाले छात्रों के लिए वीज़ा वगैरह की सुविधाओं से जुड़े मसले भी हैं.

इस साल 2 जून को भारत के वरिष्ठ अधिकारियों की एक टीम ने अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेशमंत्री अमीर खान मुत्तकी से काबुल में मुलाकात की. उसके बाद दूतावास में कामकाज फिर से शुरू करने का फैसला हुआ. अभी वहाँ छोटी सी टीम तैनात है. उसका काम राजनयिक संपर्कों को बनाए रखना और खासतौर से मानवीय सहायता से जुड़े कामों को देखना है. जापान भी काबुल में अपना दूतावास खोलने पर विचार कर रहा है.

तालिबान के वर्तमान प्रशासन के साथ भारत के रिश्ते 1996 से 2001 वाले पिछले तालिबानी प्रशासन के मुकाबले फर्क हैं. उस वक्त भारत के तालिबान के साथ किसी प्रकार के संबंध नहीं थे और किसी प्रकार की राजनयिक उपस्थिति भी नहीं थी.

उस समय भारत के रिश्ते नॉर्दर्न एलायंस के साथ थे, जो तालिबान के खिलाफ लड़ाई में शामिल था. 2001 में अमेरिकी कार्रवाई के बाद वहाँ स्थापित सरकार के साथ भारत के रिश्ते बहुत अच्छे थे और काबुल स्थित दूतावास के अलावा हेरात, कंधार, जलालाबाद और मज़ार-ए-शरीफ में भारत के वाणिज्य दूतावास भी थे.

प्रतिरोधी ताकतें

तालिबान का शासन स्थापित होने के बावजूद नॉर्दर्न अलायंस के नेतृत्व में प्रतिरोधी ताकतें भी सक्रिय हो रही हैं. इसके नेता अहमद शाह मसूद के पुत्र अहमद मसूद हैं. पंजशीर घाटी में इसी गुट का वर्चस्व है. भारत के इस गठबंधन के साथ भी अच्छे रिश्ते हैं.

हाल में ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में आयोजित एक सम्मेलन में अमेरिका की एक वरिष्ठ राजनयिक करेन डेकर ने कहा कि हम तालिबान विरोधी रेसिस्टेंस ग्रुप के साथ हैं. सम्मेलन में सशस्त्र विद्रोह के जरिए अफगानिस्तान में तालिबान शासन का विरोध करने वाले समूह नेशनल रेसिस्टेंस फ्रंट (एनआरएफ) के कई वरिष्ठ सदस्यों ने भी भाग लिया था. हालांकि तालिबान-विरोधी गठबंधन बहुत ताकतवर नहीं है, पर पश्चिमी देश उसे बढ़ावा देने पर भी विचार कर सकते हैं.

पाकिस्तान की भूमिका

साल के शुरू में वियना में इसी तरह का सम्मेलन हुआ था. उसमें किसी अमेरिकी अधिकारी ने हिस्सा नहीं लिया था. इसबार एक अमेरिकी राजनयिक के भाग लेने से लगता है कि इस गठबंधन के हाथ मजबूत करने की कोशिश होगी.

उधर पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रांत में सक्रिय तहरीके तालिबान ने पाकिस्तान के साथ अपने करार को तोड़कर पाकिस्तानी सेना पर हमले शुरू कर दिए हैं. हाल में काबुल में पाकिस्तानी राजदूत को जान से मारने की कोशिश भी हुई. पाकिस्तानी राजनीति में भी बदलाव आया है. फिलहाल राजनीतिक-दृष्टि से संशय का माहौल है. 

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

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