फेसबुक, ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया पर लाइक के बटन का मतलब है बात अच्छी लगी। फेसबुक लेखक अपनी पोस्ट पर विपरीत टिप्पणियाँ पसंद नहीं करते, लाइक पसंद करते हैं। इसकी वजह से अक्सर 'लाइक-बटोर लेखकों' के बीच प्रतियोगिता चलती रहती है।
'लाइक-सहयोग समझौतों' का
चलन भी है। तू मेरी लाइक कर मैं तेरी करता हूँ। 'लाइक
सहयोग परिषदें' और 'लाइक-मंडलियाँ'
बन गईं हैं। अलाँ-फलाँ-लाइक संघ। अलाँ-फलाँ जैकारा समाज। अलाँ-फलाँ
गरियाओ समाज भी है।
जब लाइक-प्रिय लेखक को पर्याप्त लाइक नहीं
मिलते तो वह अपने भक्तों को ब्लॉक करने की धमकी देने लगता है। लाइक में गुण बहुत
हैं। किसी को खुश करना है तो उसकी अल्लम-गल्लम को लाइक कर दीजिए। नाराज़ करना है
तो उसकी 'महान-रचना' की
अनदेखी कर दीजिए।
एक नया 'लाइक
समुदाय' पैदा हो गया है। फेसबुक साहित्य की इस
प्रवृत्ति को देखते हुए हिंदी विभागों को चाहिए कि लाइक की अधुनातन प्रवृत्तियों
पर शोध कराएं। 'इक्कीसवीं सदी के दशोत्तरी पोस्ट लेखन
में लाइक-प्रवणता: झुमरी तलैया के दस
फेसबुक लेखकों का एक तुलनात्मक अध्ययन।'
कई साल पहले लिखी यह पोस्ट मामूली संशोधन के
साथ फिर से लगा दी है, क्योंकि प्रासंगिक लग रही है। मैं इसमें
दो बातें और जोड़ना चाहता हूँ। मैंने कई साल पहले जब यह पोस्ट लिखी थी, तब लाइक के साथ हँसने वाले इमोजी नहीं लगते थे। अब लगने लगे हैं।
इसे पढ़े-लिखों
यानी अंग्रेजी के जानकारों की भाषा में lol कहते
हैं। आँसू बहाने वाला भी है। यानी कि अब यह केवल इस बात की रसीद नहीं है कि पढ़
लिया या देख लिया। अब का मामला है कि मजा आ गया, परेशान
हैं या दुखी हो गए।
शायद मंदी का पता भी इसी से लगता है। इस पोस्ट को फेसबुक पर लगाया, तो किसी ने अपनी
प्रतिक्रिया में ऊपर वाला कार्टून (चप्पल मारूँ क्या?) लगा दिया। यानी इस विषय पर काफी लोग काम कर भी रहे हैं। चप्पल-जूते,
थप्पड़ और लातों की जरूरत भी है।
भक्त गुरु परमपरा का एक स्वरूप ये भी है। लाईक करे जाने से मरहूम रह जाने वाला अन्त में खुद मित्र मण्डली से खुद को अलग कर एक फ़ेसबुक पेज हो जाता है और जबरन खुद को फ़ोलौ करवाने के येन केन प्रकारेण जुगाड बन्दी में लग जाता है।
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