गुलाम नबी आज़ाद ने इस्तीफा ऐसे मौके पर दिया है, जब कांग्रेस पार्टी बड़े जनांदोलन की तैयारी कर रही है। 4 सितंबर को दिल्ली में महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ रैली है। 7 सितंबर से राहुल गांधी ‘भारत-जोड़ो’ यात्रा पर निकलने वाले हैं। यह यात्रा महात्मा गांधी की यात्राओं की याद दिला रही हैं। क्या ‘गांधी’ की तरह राहुल भी इस देश का मन जीतने में समर्थ होंगे?
इस दौरान पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होगा,
जिसका कार्यक्रम घोषित कर दिया गया है। यह तय है कि नया अध्यक्ष ‘गैर-गांधी’ होगा, पर एकछत्र नेता राहुल गांधी ही होंगे। नया
अध्यक्ष चरण-पादुका धरे भरत की भूमिका में होगा। लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी की
परीक्षा गुजरात, हिमाचल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक जैसे
राज्यों के विधानसभा चुनावों में होगी।
पार्टी के तीन मसले हैं। नेतृत्व, संगठन
और विचारधारा या नैरेटिव। तीनों का अब एक स्रोत होगा, सर्वोच्च नेता। 1969 के बाद
पार्टी का यह एक और रूपांतरण है। वह कैसा होगा, इसका अभी केवल अनुमान लगाया जा
सकता है। मई 2014 में
चुनाव हारने के बाद कार्यसमिति की बैठक में ‘बाउंसबैक’ की उम्मीद जाहिर की गई थी। उस बात को आठ साल से ज्यादा
समय हो चुका है और पार्टी लड़खड़ा रही है।
इस साल फरवरी में पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार ने पार्टी छोड़ते हुए कहा था कि जल्द ही दूसरे कई नेता कांग्रेस छोड़ेंगे और सोनिया गांधी जानती हैं कि क्यों छोड़ेंगे। पलायन का यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से चल रहा है, पर किसी ने अपनी बात को ऐसी कड़वाहट के साथ नहीं कहा, जैसा गुलाम नबी आजाद ने कहा है। जयराम रमेश ने उन्हें मोदी-फाइड बताया है।
मोदी-प्रभाव कहना आसान है। यह टकराव दो
दिन में नहीं पनपा है। पलायन पुराने नेताओं का हो रहा है, पर केवल पुरानों का ही नहीं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव और आरपीएन सिंह पुरानी पीढ़ी के
नहीं हैं। समस्या नए-पुराने की नहीं, ‘विश्वासपात्र’ साबित
होने की है। नए हों या पुराने वे राहुल गांधी के ‘प्रतिस्पर्धी’ नहीं बन सकते। कुछ इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके हैं कि परिवार कारगर नहीं रहा। दूसरे मानते
हैं कि ‘परिवार की नकेल के
बगैर’ पार्टी नहीं चलेगी।
उसे चलाना पहली प्राथमिकता है।
सन 1969 के बाद से कांग्रेस की आंतरिक
प्रक्रियाएं उतनी पारदर्शी नहीं हैं, जितनी उसके पहले तक थीं। तब लगता था कि
पुरातनपंथी और दक्षिणपंथी तबका इंदिरा गांधी का विरोध कर रहा है। सन 1971 तक
पार्टी पूरी तरह इंदिरामय हो गई। देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ घोषित कर
दिया। कुछ समय तक पार्टी का नाम कांग्रेस (इंदिरा) था, बाद
में कांग्रेस (संगठन) का खत्म हुई और पार्टी की पारिवारिक शक्ल उभरती गई।
अतीत में सुभाष बोस से लेकर आचार्य
नरेंद्र देव, जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया, चौधरी चरण सिंह, जगजीवन राम,
हेमवती नंदन बहुगुणा, शरद पवार, ममता बनर्जी तक काफी बड़े नेता पार्टी छोड़कर गए,
पर कांग्रेस अपनी चाल से चलती रही। माना जा रहा है कि गुलाम नबी आज़ाद के इस्तीफे
से उत्पन्न हालात भी जल्द बदल जाएंगे।
गहराई से देखें, तो पाएंगे कि हाल के
वर्षों में हुआ पलायन अतीत के पलायनों से कई मायनों में फर्क है। पिछले दो दशकों
में तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस जैसे कम से
कम तीन राजनीतिक दल अपने-अपने इलाकों में कांग्रेस के विकल्प बन चुके हैं। तृणमूल
कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी राष्ट्रीय नेता बनकर उभरी हैं। बेशक पार्टी गुलाम
नबी के इस्तीफे से उबर जाएगी। पर अंदेशा है कि उसका मंद-ज्वर तपेदिक में तब्दील न
हो जाए।
राहुल गांधी को कांग्रेस का भावी नेता
बनाने की कोशिशें या अटकलें 2003 के आसपास से शुरू हो गई थीं। 2004 में वे अमेठी
से लोकसभा चुनाव जीतकर भी आए। जब यूपीए की सरकार बनी, तब कम-उम्र होने की वजह से
उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। फिर भी किसी न किसी रूप में उन्हें महत्वपूर्ण
बनाए रखने की कोशिशें होती रहीं। 24 सितंबर 2007 को उन्हें पार्टी का महासचिव
नियुक्त किया गया, साथ ही युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ का
कार्यभार भी दिया गया।
2009 के चुनाव में कांग्रेस को मिली
सफलता का श्रेय उन्हें दिया गया, पर जब उन्हें मंत्री बनाने की पेशकश की गई, तो वे
तैयार नहीं हुए। लगता था कि 2014 में पार्टी जीती, तो वे प्रधानमंत्री बनेंगे। तैयारी
नवंबर 2012 से ही शुरू हो गई, जब पार्टी कांग्रेस ने उनके नेतृत्व में चुनाव
समन्वय समिति बनाई। जनवरी 2013 में जयपुर में चिंतन शिविर हुआ, जिसमें चिंतन नहीं
राहुल गांधी को बेटन थमाने का काम हुआ। राहुल गांधी के इर्द-गिर्द एक समूह तैयार
हो गया।
दूसरी तरफ सोनिया गांधी के
राजनीतिक-सलाहकार अहमद पटेल के इर्द-गिर्द सीनियर नेताओं का एक अनौपचारिक ग्रुप बन
गया। जून से अगस्त, 2012 के बीच जब राष्ट्रपति चुनाव को लेकर गहमागहमी चल रही थी
और कोल-ब्लॉक आबंटन को लेकर मनमोहन सिंह को भाजपा निशाना बना रही थी, दिग्विजय
सिंह ने सलाह दी कि राहुल को अब प्रधानमंत्री पद सौंप दिया जाना चाहिए। पर राहुल
तैयार नहीं हुए।
2014 के चुनाव में यह विसंगति साफ
दिखाई पड़ी, जब पार्टी के निर्धारित वॉर रूम में सन्नाटा था और राहुल गांधी के 12
तुगलक रोड स्थित आवास से चुनाव प्रक्रिया चली। राहुल ने अमेरिका की तर्ज पर एक
आंतरिक चुनाव का पायलट प्रोजेक्ट बनाया। जब सूचियाँ जारी हुईं, तब प्राइमरी
विजेताओं के नाम गायब हो गए। इस किस्म के अंतर्विरोध शुरू से ही देखने में आए।
गुलाम नबी आजाद ने चिट्ठी में कहा है, राहुल
गांधी का रवैया 2014 में कांग्रेस पार्टी की पराजय का कारण बना। 2003 में शिमला
में और 2012 में जयपुर में चिंतन बैठकें हुईं,
लेकिन इन बैठकों में तय किए गए एक्शन
प्लान पर कभी ठीक से अमल नहीं किया गया। 2014 का चुनाव लड़ने के लिए जो योजना बनाई
गई थी, वह नौ साल से कांग्रेस के स्टोररूम में बंद है।
2014 के चुनाव परिणामों ने गुब्बारे की
हवा निकाली। परिणाम आने के दो दिन पहले से नेताओं के एक समूह ने एक स्वर से बोलना
शुरू कर दिया कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने
कहा कि वे सरकार में तो थे नहीं। गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है। यानी हार का
ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर।
अब मैदान में राहुल और उनकी कांग्रेस
है। 2019 की पराजय के बाद उन्होंने पार्टी के कुछ दिग्गजों को लेकर अपनी अरुचि
व्यक्त की थी। वह तत्व खत्म हो रहा है। लोकसभा चुनाव में डेढ़ साल से कुछ ज्यादा
समय बचा है। इसबार राहुल अपनी रणनीतियों और टीम के साथ होंगे। फिलहाल यह कांग्रेस
की सफाई या सफाए की घड़ी है।
कोलकाता के दैनिक वर्त्तमान में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार 4 सितम्बर, 2022 को "चमन में घुट रही साँसें" (चर्चा अंक-4542) (चर्चा अंक-4525)
ReplyDeleteपर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वस्तुनिष्ठ आकलन।
ReplyDeleteसामायिक चिंतन।
ReplyDeleteदेखें ऊंठ किस करवट बैठेगा।