शेख हसीना और नरेंद्र मोदी की मुलाकात और दोनों देशों के बीच हुए सात समझौतों से ज्यादा चार दिन की इस यात्रा का राजनीतिक लिहाज से महत्व है. दोनों की कोशिश है कि विवाद के मसलों को हल करते हुए सहयोग के ऐसे समझौते हों, जिनसे आर्थिक-विकास के रास्ते खुलें.
बांग्लादेश में अगले साल के अंत में आम चुनाव हैं
और उसके तीन-चार महीने बाद भारत में. दोनों चुनावों को ये रिश्ते भी प्रभावित करेंगे.
दोनों सरकारें अपनी वापसी के लिए एक-दूसरे की सहायता करना चाहेंगी.
पिछले महीने बांग्लादेश के विदेशमंत्री अब्दुल मोमिन
ने एक रैली में कहा था कि भारत को कोशिश करनी चाहिए कि शेख हसीना फिर से जीतकर आएं,
ताकि इस क्षेत्र में स्थिरता कायम रहे. दो राय नहीं कि शेख हसीना के कारण दोनों देशों
के रिश्ते सुधरे हैं और आज दक्षिण एशिया में भारत का सबसे करीबी देश बांग्लादेश है.
विवादों का निपटारा
असम के एनआरसी और हाल में रोहिंग्या शरणार्थियों
से जुड़े विवादों और बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के भारत-विरोधी आंदोलनों के बावजूद
दोनों देशों ने धैर्य के साथ मामले को थामा है.
दोनों देशों ने सीमा से जुड़े तकरीबन सभी मामलों
को सुलझा लिया है. अलबत्ता तीस्ता जैसे विवादों को सुलझाने की अभी जरूरत है. इन रिश्तों
में चीन की भूमिका भी महत्वपूर्ण है, पर बांग्ला सरकार ने बड़ी सफाई से संतुलन बनाया
है.
बेहतर कनेक्टिविटी
पाकिस्तान के साथ बिगड़े रिश्तों के कारण पश्चिम
में भारत की कनेक्टिविटी लगभग शून्य है, जबकि पूर्व में काफी अच्छी है. बांग्लादेश
के साथ भारत रेल, सड़क और जलमार्ग से जुड़ा है. चटगाँव बंदरगाह के मार्फत भारत अपने
पूर्वोत्तर के अलावा दक्षिण पूर्व के देशों से कारोबार कर सकता है.
इसी तरह बांग्लादेश का नेपाल और भूटान के साथ कारोबार
भारत के माध्यम से हो रहा है. बांग्लादेश की इच्छा भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय
राजमार्ग कार्यक्रम में शामिल होने की इच्छा भी है.
शेख हसीना सरकार को आर्थिक मोर्चे पर जो सफलता मिली
है, वह उसका सबसे बड़ा राजनीतिक-संबल है. भारत के साथ विवादों के निपटारे ने इसमें
मदद की है. इन रिश्तों में विलक्षणता है.
सांस्कृतिक समानता
दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं. 1947 में
जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस
था, और आज भी दोनों के अंतर्विरोधी रिश्ते हैं. पर ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश
में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं.
बेशक वहाँ भी भारत-विरोध है, पर सरकार के नियंत्रण
में है. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि पिछले एक दशक में शेख हसीना के कारण भारत का बांग्लादेश
पर प्रभाव बहुत बढ़ा है. क्या यह मैत्री केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो कभी नेतृत्व बदला तो क्या
होगा?
यह केवल हसीना शेख तक सीमित मसला नहीं है. अवामी
लीग केवल एक नेता की पार्टी नहीं है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश
की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत
महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और.
आर्थिक सफलता
केवल साजिशों की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था.
पिछले पचास साल से ज्यादा का अनुभव है कि बांग्लादेश
जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है.
जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी. पिछले 13
वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों
पर रोक लगाने में काफी मदद की है.
भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को
उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है. शेख हसीना की सरकार पर अलोकतांत्रिक तरीके
अपनाने का आरोप है. जब तक वे सत्ता में हैं, हमें अच्छे रिश्तों की उम्मीद है.
समझदारी इस बात में है कि हम दूसरे हालात के लिए
भी तैयार रहें. वैसा भी संभव है, जैसा अफगानिस्तान में हुआ. पाकिस्तान से अलग होने
का मतलब यह नहीं कि बांग्लादेश पूरी तरह भारत का दोस्त या पिछलग्गू बन गया.
जोखिम भी कम नहीं
भारत के साथ उसके रिश्तों में तमाम पेच हैं और हमारे
रिश्ते तलवार की धार पर चलने जैसे हैं. हम बांग्लादेश की न तो अनदेखी कर सकते हैं और
न वहाँ की राजनीति में अतिशय हस्तक्षेप कर सकते हैं.
जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं. उस चुनाव
में खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था, जो
देश का मुख्य विरोधी दल था. तब भारत की भूमिका का विपरीत प्रभाव भी पड़ा था. उस विवाद
से सबक लेकर भारत ने 2018 के चुनाव में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे लगे कि हम उनकी चुनाव-व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहे हैं.
मुस्लिम-बहुल देशों में बांग्लादेश का एक अलग स्थान
है. वहाँ धर्मनिरपेक्षता बनाम शरिया-शासन की बहस है. बांग्लादेश इस अंतर्विरोध का समाधान
करने में सफल हुआ, तो उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता
मानी जाएगी.
धर्मनिरपेक्षता
बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद 1972 में भारत-बांग्लादेश
के बीच 25-वर्ष की एक मैत्री-संधि हुई थी. उस संधि के बाद 1973 में एक व्यापार समझौता
हुआ और 1974 में मुजीब-इंदिरा सीमा समझौता हुआ.
इन समझौतों में भविष्य की योजनाएं थीं, पर 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद इन रिश्तों को
धक्का लगा. बांग्लादेश में भारत-विरोधी ताकतें सक्रिय हो गईं. उसके बाद 2009 में अवामी
लीग की सरकार की वापसी तक जितनी सरकारें भी वहाँ बनीं उन्होंने इतिहास को विकृत किया. उस दौरान वहाँ दो बार फौजी
सरकारें भी बनीं.
अब बांग्लादेश एक निराला प्रयोग करना चाहता है.
स्वतंत्र देश बनने के बाद उसने धर्मनिरपेक्षता को अंगीकार किया था, पर 1975 में शेख मुजीब की हत्या के बाद व्यवस्था बदली और 1977
में जियाउर्रहमान की सरकार ने संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द हटा दिया.
1988 में फौजी शासक एचएम इरशाद ने इस्लाम को राष्ट्रीय
धर्म घोषित कर दिया. अवामी लीग सकी सरकार
आने के बाद 2010 में वहाँ के सुप्रीम कोर्ट ने 1977 में धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाए जाने
को गैर-कानूनी करार दिया. वहाँ राष्ट्रीय धर्म इस्लाम है और यह बहस जारी है कि व्यवस्था
कैसी हो.
पिछले साल अक्तूबर में सूचना मंत्री मुराद हसन ने
कहा कि देश में 1972 के धर्मनिरपेक्ष संविधान की वापसी और राष्ट्रीय धर्म के तौर पर
इस्लाम की मान्यता ख़त्म होगी. उनकी घोषणा के जवाब में जमात-ए-इस्लामी और हिफ़ाज़त-ए-इस्लाम
जैसे संगठनों ने धमकी दी कि ऐसा कोई बिल पेश किया गया तो खून की नदियाँ बहेंगी.
जनता क्या चाहती है?
शेख हसीना धर्मनिरपेक्षता की वापसी चाहती हैं, पर जनता क्या चाहती है? क्या अवामी लीग के भीतर इस प्रश्न पर आम सहमति है? कहना मुश्किल है. अफगानिस्तान
का अनुभव है कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारें यदि आत्मरक्षा न कर पाएं, तो उनका अस्तित्व दाँव पर रहता है.
अगले चुनाव 2023 में होंगे. पिछला चुनाव जीतने के
बाद शेख हसीना ने कहा था कि 2023 के बाद मेरी दिलचस्पी प्रधानमंत्री बनने में नहीं
है. फिलहाल नहीं लगता कि वे अवकाश लेंगी.
श्रीलंका और पाकिस्तान
में आर्थिक-संकट पैदा होने के बाद बांग्लादेश को लेकर भी सवाल खड़े हुए हैं, पर फिलहाल
उसके सामने कोई संकट नहीं है. फिर भी शेख हसीना के प्रति दबा हुआ राजनीतिक-विरोध किस
समय उठ खड़ा होगा, कहना मुश्किल है.
पिछले चुनावों में
शेख हसीना को मिली विजय विवादास्पद रही हैं. यह भी सच है कि पिछले 12-13 साल से राजनीतिक
स्थिरता के कारण आर्थिक विकास संभव सेना अब देश के संविधान और शासन से प्रतिबद्ध है.
सांविधानिक व्यवस्थाएं भी इतनी कठोर हैं कि बगावत की हिम्मत करने वालों के सामने बड़ा
जोखिम है.
इतना होने के बावजूद
यह भी मानकर चलना चाहिए कि बगावतें सांविधानिक मर्यादाओं पर चलते हुए नहीं होतीं. मुख्य
विरोधी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के बेटे तारिक
रहमान के नेतृत्व में सक्रिय है. उनकी माँ भ्रष्टाचार के आरोपों में कैद हैं.
तारिक रहमान को भी
अदालतों ने सजाएं दी हैं,
पर वे 2008 में इलाज के नाम पर लंदन चले गए थे. तब अवामी लीग की सरकार आई नहीं थी.
वे लंदन से पार्टी
का संचालन कर रहे हैं. शेख हसीना सरकार को मिली सफलता के पीछे देश की अर्थव्यवस्था
का हाथ है. उनके विरोधी प्रचार कर रहे हैं कि बांग्लादेश भी विदेशी कर्ज का भुगतान
नहीं कर पाएगा, पर ऐसा लगता नहीं.
देश में इस समय दस
मेगा प्रोजेक्ट चल रहे हैं, जिन्हें लेकर अंदेशा है कि कहीं इनपर हो रहे व्यय से अर्थव्यवस्था
डगमगा न जाए. पर बांग्लादेश की स्थिति श्रीलंका जैसी नहीं है.
2019 में श्रीलंका
पर जीडीपी का 42.8 प्रतिशत कर्ज था, जबकि बांग्लादेश पर 13 प्रतिशत था. देश में मुद्रास्फीति
का स्तर 6 फीसदी से नीचे है, जीडीपी की संवृद्धि दर 6.94 प्रतिशत और प्रति व्यक्ति
आय 2,511 डॉलर है. विदेशी मुद्रा कोष 44 अरब डॉलर का है.
देश में अनाज की कमी
नहीं है. बिजली का पर्याप्त उत्पादन है. कहा जा सकता है कि देश की स्थिति अच्छी है,
पर सबसे बड़ा सवाल है कि क्या सरकार जनता को यह बात समझाने में सफल होगी?
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