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Sunday, April 12, 2020

लॉकडाउन के किन्तु-परन्तु


आगामी मंगलवार यानी 14 अप्रैल को तीन हफ्ते के लॉकडाउन की अवधि समाप्त हो जाएगी। ओडिशा और पंजाब समेत कुछ राज्यों ने इसे बढ़ाने की घोषणा पहले ही कर दी है। शनिवार को प्रधानमंत्री के साथ हुई वार्ता में इस बारे में करीब-करीब आम सहमति थी कि लॉकडाउन कम से कम दो हफ्ते के लिए बढ़ाना चाहिए। बड़ी संख्या में राज्यों ने, बल्कि लगभग सभी ने इसे आगे बढ़ाने की सलाह दी है। दूसरी तरफ एक सोशल मीडिया सर्वे में 63 फीसदी लोगों की राय थी कि कुछ प्रतिबंधों को कायम रखते हुए लॉकडाउन को खत्म करना चाहिए। इस सर्वे में तकरीबन 26,000 लोगों ने ऑनलाइन हिस्सा लिया। लॉकडाउन को ख़त्म करने की बात अर्थशास्त्री कह रहे हैं, जबकि चिकित्सकों की सलाह है कि इसे आगे बढ़ाना चाहिए। बहरहाल केंद्र सरकार की औपचारिक घोषणा का इंतजार करना चाहिए। यह तो स्पष्ट लग रहा है कि लॉकडाउन बढ़ेगा, पर किसी न किसी स्तर पर ढील भी दी जाएगी।

लॉकडाउन फौरी जरूरत है, स्थायी उपचार नहीं है। इसका फैसला करना जितना आसान था, उतना आसान उसे जारी रखना नहीं है। पर उसे खत्म करने के लिए गहरे आत्मविश्वास की जरूरत है। साथ ही यह देखने की जरूरत है कि लॉकडाउन जारी रखने की क्या कीमत हमें चुकानी होगी। यह भी कि यदि हम लॉकडाउन उठा लेंगे, तो किस प्रकार का जोखिम सामने है। दो हफ्ते पहले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था कि हम अमेरिकी अर्थव्यवस्था को खोले रखेंगे और देखिएगा कि यह ईस्टर तक गति पकड़ लेगी। आज ईस्टर है और अमेरिका में मरने वालों की संख्या उन्नीस हजार पार कर चुकी है। ट्रंप को भी झुकना पड़ा और अंततः लॉकडाउन की घोषणा करनी पड़ी। भारत की तरह अमेरिका में भी अलग-अलग राज्यों की स्थिति अलग-अलग है, पर ट्रंप की दिलचस्पी जल्द से जल्द अर्थव्यवस्था को खोलने की ताकि वह दौड़ में पीछे न रह जाए। पहली नज़र में ट्रंप हृदयहीन व्यक्ति लगते हैं, जिन्हें नागरिकों की जिंदगी की कोई फिक्र नहीं है। सवाल जीवन को चलाए रखने का भी है।

भारत में अर्थव्यवस्था के पीछे रह जाने से ज्यादा बड़ी चिंता इस बात की है कि असंगठित क्षेत्र को कामगारों के सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाएगा। इसीलिए कहा जा रहा है कि जिन इलाकों में कोरोना का असर देखा गया है, वहाँ लॉकडाउन का पालन कड़ाई से करते हुए उन क्षेत्रों को खोल दिया जाए, जहाँ कोरोना का प्रभाव नहीं है। पर प्रशासन को सुनिश्चित करना होगा कि लॉकडाउन खत्म करने से इन क्षेत्रों में भी वायरस का प्रसार नहीं होगा। ‘आगे कुआँ और पीछे खाई’ की स्थिति में फैसले करना काफी मुश्किल काम है, पर फैसले तो करने ही होंगे। 

अमेरिका हो या भारत बेरोज़गारी बढ़ने और अर्थव्यवस्था में निरंतर गिरावट आने से कमज़ोर वर्गों के स्वास्थ्य और ज़िंदगी पर बहुत गहरा प्रतिकूल असर पड़ेगा। लॉकडाउन अंतत: आजीविका और ज़िंदगी दोनों को ही नष्ट करने की वजह बन सकता है। लॉकडाउन खत्म करने की तारीख तक भारत में कोविड-19 संक्रमण के मामले 10,000 के आसपास हो चुके होंगे। मृतकों की संख्या ढाई सौ से ऊपर जा चुकी है, जो शेष विश्व को देखते हुए मामूली है, पर संक्रमण में गिरावट अभी तक नहीं है। जाहिर है कि सरकारें लॉकडाउन को आगे बढ़ाना चाहती हैं, क्योंकि बचाव का यह सरल रास्ता है, पर दूर की सोचें तो नुकसान भी कम नहीं हैं।

बेशक, लॉकडाउन को एक झटके में खत्म नहीं किया जा सकता। या कहें कि सामान्य स्थितियाँ बहाल नहीं की जा सकतीं। पर लम्बे समय तक बंद भी नहीं किया जा सकता। आज भी कई तरह के उद्योग काम कर रहे हैं। आपके पास ब्रेड, मक्खन और बिस्कुट रोज पहुँच रहे हैं। इसका मतलब है कि कोई काम कर रहा है। थोक मंडियों में हर रोज पुलिस के डंडों की मार झेलते हुए गरीब सब्जी वाले आपके घर तक सब्जी पहुँचा ही रहे हैं। दूध आ रहा है, दवाइयों के कारखाने चल रहे हैं। रक्षा उद्योगों में काम हो रहा है। बैंकिग व्यवस्था चालू है। रेलगाड़ियाँ बंद हैं, पर मालगाड़ियाँ पहले से ज्यादा तेजी से चल रही हैं। ट्रक और कार्गो विमान चल रहे हैं। नितिन गडकरी चाहते हैं कि हाईवे निर्माण कार्य फिर से शुरू कराया जाए। रेलवे लाइनों को बिछाने और विद्युतीकरण के काम शुरू किए जा सकते हैं। उत्तर भारत में यह गेहूँ की फसल का मौसम है। उससे रोजगार जुड़े हैं, साथ ही करोड़ों लोगों की खाद्य समस्या भी। 

सरकारी मशीनरी की निगाहें सतर्क रहें, तो सभी उद्योगों में सोशल डिस्टेंसिंग के नियम लागू कराते हुए काम शुरू किया जा सकता है। यह भी उन क्षेत्रों की बात है, जहाँ कोरोना का प्रसार नहीं हुआ है। कोरोना से इतर बीमारियों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को भी शुरू होना चाहिए। महामारियाँ और ऐसे ही संकट कुछ लोगों के लिए सौगातें लेकर भी आते हैं। नेताओं को अपने इलाके में महत्वपूर्ण बनने का अवसर मिलता है। इस बीच कई तरह के नए रोजगारों के जुगाड़ तैयार हो रहे हैं, जो अब सामने आएंगे।

बड़े उद्योग-व्यवसाय चौपट होंगे, तो उनसे जुड़े कई छोटे कारोबार और धंधे भी चौपट होंगे। प्लम्बरों, इलेक्ट्रीशियनों, मेकैनिकों का काम बंद है। हेयर कटिंग सैलून और ब्यूटी क्लिनिकों पर ताले पड़े हैं। कोरोना की मार पड़ने के पहले से ही छोटे और मझोले कारोबार संकट में थे। उन्हें बचाने की चुनौती भी है। लॉकडाउन लम्बे चले, तो वैश्विक पूँजी ऑटोमेशन की दिशा में कदम बढ़ाएगी। हाथ के तमाम काम रोबोटों के हवाले हो जाएंगे। लॉकडाउन लंबा खिंचा, तो मानव श्रम की जगह तकनीकी विकल्प तैयार होने लगेंगे। अमेरिका का अनुभव है कि हर मंदी के बाद पहले की तुलना में रोज़गार कम होते गए हैं।

भारत में ऑनलाइन पोर्टलों ने छोटे सब्जी-फल वालों और किराना व्यापारियों के कारोबारों को छीनना शुरू कर दिया है। अब तो घर में काम करने आने वाली महिलाओं और अखबार बाँटने वाले लड़कों के काम पर भी बन आई है। वर्क-फ्रॉम-होम का चलन बढ़ा, तो रिक्शे-ऑटो वालों और ऊबर-ओला के ड्राइवरों की ज़रूरत कम हो जाएगी। पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लॉकडाउन की वजह से पलायन करने वाले कामगारों के स्वास्थ्य और उनके प्रबंधन से जुड़े मुद्दों से निबटने के लिए रास्ते खोजे जाएं। पलायन करने वाले कामगारों के जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा और उनका मेहनताना दिलाने की जरूरत भी है। सरकारों ने तो आदेश जारी कर दिया कि मकान का किराया न दें, पर कौन देगा किराया? तमाम मकान-मालिकों का जीवनाधार वही किराया है। हमें ऐसी तमाम बातों के बारे में भी सोचना चाहिए।

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