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Sunday, March 8, 2020

संसदीय मर्यादा को बचाओ


गुरुवार को कांग्रेस के सात लोकसभा सदस्यों के निलंबन के बाद संसदीय मर्यादा को लेकर बहस एकबार फिर से शुरू हुई है। सातों सदस्यों को सदन का अनादर करने और ‘घोर कदाचार' के मामले में सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित किया गया है। इस निलंबन को कांग्रेस ने बदले की भावना से उठाया गया कदम करार दिया और दावा किया,यह फैसला लोकसभा अध्यक्ष का नहीं, बल्कि सरकार का है। जबकि पीठासीन सभापति मीनाक्षी लेखी ने कहा कि कांग्रेस सदस्यों ने अध्यक्षीय पीठ से बलपूर्वक कागज छीने और उछाले। ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण आचरण संसदीय इतिहास में संभवतः पहली बार हुआ है।

कांग्रेस के सदस्य चाहते थे कि दिल्ली-दंगों पर संसद में तुरंत बहस कराई जाए। लोकसभा अध्यक्ष ने इसे होली बाद कराने की बात कही, तो हंगामा हो गया। बजट सत्र का यह दूसरा हिस्सा है और इसमें विधायी कामकाज काफी ज्यादा होता है। बजट के विभिन्न प्रस्तावों के साथ ही विभिन्न मंत्रालयों की अनुपूरक मांगों को भी इसी दौरान पास किया जाता है। निरंतर व्यवधान की वजह से कामकाज रुक रहा है। अब सरकार प्रस्तावों पर चर्चा को गिलोटिन करने पर विचार कर रही है। इस व्यवस्था के तहत सरकार बिना बहस के ही महत्वपूर्ण प्रस्तावों को पास करा सकती है। बगैर चर्चा के प्रस्तावों को पास कराना और भी दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाएगा।
लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिनके कारण यह व्यवस्था सफल है। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और देश के सामने उपस्थित सवालों के जवाब खोजने में दोनों की जबर्दस्त भूमिका है। दुर्भाग्य से दोनों के सामने सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। चुनाव के दौरान सामाजिक-जीवन की विसंगतियाँ भड़काई जाने लगी हैं। दूसरी तरफ संसदीय कर्म को भूलकर राजनीतिक दल सड़क छाप हरकतें करने लगे हैं। संसदीय कर्म में कड़वाहट बढ़ रही है। यह पहला मौका नहीं है, जब सदस्यों का निलंबन हुआ हो या सदन में हंगामा हुआ हो।
यह सब पहली बार नहीं हुआ है और न संसदीय कर्म को लेकर पहली बार सवाल उठे हैं। फरवरी 2014 में पंद्रहवीं लोकसभा के अंतिम दिनों में तेलंगाना राज्य के गठन का विधेयक जिस तरह पास हुआ, उसे हमारे संसदीय इतिहास के सबसे काले दिन के रूप में याद किया जाएगा। इस बिल पर चर्चा से लेकर उसके पारित होने तक की 90 मिनट की प्रक्रिया के दौरान सदन एक तरह से युद्ध का मैदान बन गया। सदन में पैपर स्प्रे का इस्तेमाल हुआ, किसी ने चाकू भी निकाला। इस बिल के खिलाफ लगाए जा रहे नारों के बीच लोकसभा टीवी से लाइव टेलीकास्ट रोक दिया गया था। ऐसा पहली बार किया गया। इस तरह जनता से छिपाकर वह विधेयक पास हुआ।
गतिरोध भी संसदीय-कर्म है। मिर्च के स्प्रे, चाकू के प्रदर्शन, सदस्यों के निलंबन और लगातार शोर-गुल संसदीय कर्म में गिरावट परिचय दे रहा है। लगता है सदस्यों को उन विधेयकों की फिक्र नहीं है, जिनपर विचार करने के लिए जनता ने उन्हें भेजा है। कुछ साल पहले कांग्रेस के नेता आनन्द शर्मा ने कहा था, ‘विधेयक हमारी प्राथमिकता नहीं है। देश में जो हो रहा है उसे देखना हमारी प्राथमिकता है। संसदीय लोकतंत्र केवल एक या दो विधेयकों तक सीमित नहीं हो सकता।’ बेशक अनेक अवसरों पर व्यवधान की सकारात्मक भूमिका होती है। संसद में विरोध दर्ज कराना भी लोकतांत्रिक गतिविधि है। दिल्ली की हिंसा महत्वपूर्ण विषय है। उसपर चर्चा किस तरह से होगी, यह बात सत्तापक्ष और विपक्ष मिलकर भी तो तय कर सकते थे।
विरोध व्यक्त करने के तमाम मर्यादित तरीके भी हैं। दिल्ली में हुई हिंसा पर एक अच्छी बहस इसके पीछे के कारणों को समझने में मददगार होती। ऐसा नहीं हुआ। संसदीय-कर्म को लेकर जो सवाल उभरे हैं, वे निराश कर रहे हैं। संसदीय गतिरोधों के कारण जनता का विश्वास अपनी व्यवस्था पर से उठ रहा है। सामान्य नागरिक को समझ में नहीं आ रहा है कि इस सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच पर यह सब क्या होने लगा है?
यह भी सच है कि संख्या में कम विपक्ष हंगामे को अपना लोकतांत्रिक अधिकार समझता है। अल्पसंख्या में होने के कारण वह शोर के सहारे अपने अस्तित्व को बनाए रखना चाहता है। पर उसकी भी सीमा होनी चाहिए। सन 2015 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने जब कांग्रेस के 44 में से 25 सांसदों को निष्कासित करने के लिए नियम 374ए का उपयोग किया, तब कहा गया था कि यह काफी कड़ा फैसला है। उसके बाद से प्रत्येक सत्र के पहले सर्वदलीय बैठक में कुछ सर्वानुमतियाँ बनती हैं और फिर वे टूटती रहती हैं। हमें संसदीय व्यवहार के सर्वमान्य नए मानक तय करने चाहिए।  
सवाल है कि यह सब क्यों होता है? इसके लिए जिम्मेदार सरकार है या विपक्ष? या समूची राजनीति, जिसे संसदीय कर्म की मर्यादा को लेकर किसी प्रकार की चिंता नहीं है? सदन के संचालन के लिए पीठासीन अधिकारी के पास अधिकार होते हैं। गतिरोध पैदा करने वाले सदस्यों को सदन से बाहर निकालने,  उनकी सदस्यता निलंबित करने के अधिकार पीठासीन अधिकारी के पास हैं। हालात काबू से बाहर हो जाएं, तो इन अधिकारों का इस्तेमाल होना ही चाहिए। जनता तक गलत संदेश नहीं जाना चाहिए। राजनीति को मजाक बनने से रोकने की जरूरत है।
अंततः संसद विमर्श का फोरम है जिसके साथ विरोध-प्रदर्शन चलता है। पर संसद केवल विरोध प्रदर्शन का मंच नहीं है, बल्कि वह हमारे विमर्श का सर्वोच्च मंच है। 13 मई, 2012 को जब उसके 60 वर्ष पूरे हुए थे, तब उसकी एक विशेष सभा हुई। उस सभा में सांसदों ने आत्म-निरीक्षण किया। उन्होंने संसदीय गरिमा को बनाए रखने और कुछ सदस्यों के असंयमित व्यवहार पर और संसद का समय बर्बाद होने पर चिंता जताई और यह संकल्प किया था कि यह गरिमा बनाए रखेंगे। बहस के दौरान ऐसा मंतव्य व्यक्त किया गया कि हर साल कम से कम 100 बैठकें अवश्य हों। यह संकल्प उसके बाद न जाने कितनी बार टूटा है।
जन प्रतिनिधियों को आमने-सामने बैठकर ऐसे प्रश्नों पर विचार करना चाहिए और कुछ बातों पर आमराय बनानी चाहिए। देश की संसद विमर्श का सबसे ऊँचा फोरम है। उसकी मर्यादा और सम्मान बनी रहनी चाहिए और विमर्श की गुणवत्ता का स्तर भी ऊँचा बना रहना चाहिए। देश की जनता यही चाहती है।


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