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Sunday, March 22, 2020

कोरोना-युद्ध और राष्ट्रीय संकल्प


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से किए गए रविवार के 'जनता कर्फ्यू' के आह्वान का देश और विदेश में बड़ी संख्या में लोगों ने समर्थन किया है। इस अपील को राष्ट्रीय ‘संकल्प और संयम’ के रूप में देखा जा रहा है। करीब-करीब ऐसी ही अपीलें महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में की थीं। गांधी के चरखा यज्ञ की सामाजिक भूमिका पर आपने ध्यान दिया है? देशभर के लाखों लोग जब चरखा चलाते थे, तब कपड़ा बनाने के लिए सूत तैयार होता था साथ ही करोड़ों लोगों की ऊर्जा एकाकार होकर राष्ट्रीय ऊर्जा में तब्दील होती थी। ऐसी ही प्रतीकात्मकता का इस्तेमाल लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ के नारे के साथ किया था।  
यह एकता केवल संकटों का सामना करने के लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय निर्माण के लिए भी इसकी जरूरत है। स्वच्छ भारत और बेटी बचाओ जैसे अभियानों को राष्ट्रीय संकल्प के रूप में देखना चाहिए और रविवार के ‘जनता कर्फ्यू’ को भी। यह कार्यक्रम पूरे देश के संकल्प और मनोबल को प्रकट करेगा। प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संदेश के बाद ज्यादातर प्रतिक्रियाएं सकारात्मक रही हैं। इनमें शशि थरूर और पी चिदंबरम जैसे राजनेता, शेहला रशीद जैसी युवा नेता, सागरिका घोष, राजदीप सरदेसाई और ट्विंकल खन्ना जैसे पत्रकार और लेखक तथा शबाना आज़मी और महेश भट्ट जैसे सिनेकर्मी भी शामिल हैं, जो अक्सर मोदी के खिलाफ टिप्पणियाँ करते रहे हैं।

औपचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया सकारात्मक रही है। फिर भी देश और विदेश की कुछ प्रतिक्रियाओं पर ध्यान जाता है, जिनसे पता लगता है कि या तो सत्ता की राजनीति को लेकर या भारत के क्रमशः बढ़ते प्रभाव को लेकर पैदा हुए राग-द्वेष इस वक्त भी व्यक्त हो रहे हैं। कुछ प्रत्यक्ष और कुछ परोक्ष रूप में। भारत की राजनीतिक-प्रशासनिक कुशलता और नीतियों को लेकर जो आलोचनात्मक टिप्पणियाँ अतीत में होती रही हैं, वे कोविड-19 के विरुद्ध अभियान के दौरान दूसरे रूप में सामने आई हैं।
सम्भव है कि कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर ऐसा कुछ कहा हो कि एक दिन के कर्फ्यू से या ताली-थाली बजाने से कोविड-19 का सफाया हो जाएगा, पर भारत सरकार या नरेंद्र मोदी ने तो ऐसा नहीं कहा। संयम और संकल्प की अपील ही की। इसमें क्या गलत किया? सम्भव है आपको सरकारी प्रयत्न अपर्याप्त लगते हों या गलत दिशा में जाते नजर आते हों। बेशक आप उस तरफ इशारा कीजिए या सही रास्ता बताइए। हमारे पास सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी जो व्यवस्था है, वही है। उसी के सहारे काम होगा।
गत शुक्रवार देर रात तक दुनियाभर में इस बीमारी से प्रभावित लोगों की संख्या ढाई लाख के ऊपर हो चुकी थी। चीन में इसका प्रभाव खत्म सा हैअब सबसे ज्यादा तेजी इटली में है। भारत में इससे प्रभावित लोगों की संख्या 236 हो चुकी थी और इससे मरने वालों की तादाद चार थी। हालांकि यह संख्या अपने आप में खतरनाक है, पर वैश्विक संख्या को देखते हुए काफी कम है। यह भी कहा जा रहा है आने वाला समय भारत के लिए चुनौती पूर्ण होगा। इसे हम सब जानते और मानते हैं, पर सवाल दूसरे हैं। क्या हम दृढ़-प्रतिज्ञ हैं?
कश्मीर से लेकर भारत के नागरिकता कानून पर भारत-विरोधी रुख अपनाने वाले वैश्विक मीडिया को कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई को लेकर भी संदेह हैं। इनमें न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और इकोनॉमिस्ट जैसे पत्र और उनके भारतीय प्रतिनिधि शामिल हैं। भारत को हिकारत की नजरों से देखने वाले पश्चिमी विद्वान भी। मरीजों की संख्या कम रहने के कारणों पर टिप्पणियाँ करते हुए ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने लिखा, अबतक भारत भाग्यशाली है। चीन जैसे देश के साथ जुड़ा होने के बावजूद वहाँ कोरोना वायरस का असर कम है। भारत में जो मामले आए हैं, वे ऐसे लोगों के हैं, जिन्हें यह वायरस विदेश में लगा।
हालांकि इस पत्रिका ने भारत सरकार के प्रयत्नों का उल्लेख किया है, पर उसमें भी केरल सरकार के प्रयासों का उल्लेख खासतौर से किया है। यह एक राजनीतिक नजरिया है। पश्चिम के मीडिया को भारत की टेस्टिंग व्यवस्था और स्वास्थ्य नीतियों और क्षमताओं को लेकर संदेह है। उनका कहना है कि अमेरिका और यूरोप में बीमारों की इतनी बड़ी संख्या इसलिए है, क्योंकि वहाँ खुले स्तर पर टेस्टिंग हो रही है। भारत में तो किट ही नहीं हैं वगैरह।
पश्चिमी मीडिया का नजरिया किस तरह का है इसे समझने के लिए कुछ उदाहरणों को देखना होगा। गुरुवार की रात में नरेंद्र मोदी के टीवी प्रसारण के फौरन बाद समाचार एजेंसी एएफपी ने ट्वीट किया, ‘इंडिया पीएम मोदी ऑर्डर्स वन-डे नेशनवाइड कर्फ्यू टु कॉम्बैट कोरोना वायरस। मोदी ने जनता से अपील की थी कि वे इसे आत्मारोपित करें। यह कोई जबरन आदेश तो नहीं था। इसी तरह बीबीसी की दक्षिण एशिया ब्यूरो प्रमुख निकोला करीम ने शब्द प्रयोग किया ‘ट्रायल इनफॉर्मल कर्फ्यू।’ इसके अलावा उन्होंने थालियाँ बजाने का उल्लेख हास्यास्पद तरीके से किया और लिखा ‘दिस इज़ रियल।’ इसके पीछे भारत को लेकर उनकी मंशा झलकती है। इन दिनों भारत को कवर कर रहे विदेशी प्रतिनिधियों के ट्वीटों को सावधानी से पढ़ें, तो किसी न किसी रूप में उनकी खीझ नजर आएगी।
विदेशी पत्रकारों की भारत के प्रति भावना या चिंताएं फिर भी समझ में आती हैं, ज्यादा गौर करने वाली टिप्पणियाँ राना अयूब जैसे भारतीय पत्रकारों की है। राना अयूब ने एनडीटीवी की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए 20-21 मार्च की रात के 12 बजे के आसपास ट्वीट किया, भारत में कोरोना मरीजों की जो संख्या बताई जा रही है, वह आइसबर्ग के टिप (चोटी) जैसी है। वास्तविक संख्या कई गुना ज्यादा होगी: डॉ अरविंद कुमार। जरूर होगी, पर यदि भारी संख्या में नौतें हुईं, जैसा इटली या अमेरिका में हो रहा है, तो वह छिपाया नहीं जा सकेगा। यह बात इस हफ्ते या अगले हफ्ते में स्पष्ट हो जाएगी।
यह बात मानी जा सकती है कि अभी बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें टेस्ट नहीं किया गया है। दूसरी तरफ भारत सरकार ने अब उन लोगों को भी टेस्ट करने का फैसला किया है, जिनमें निमोनिया के लक्षण पाए जाएंगे। सरकारी एजेंसियाँ लगातार जनता के बीच सैम्पल जाँच कर भी रही हैं। फिलहाल अभी तक नहीं लगता कि यह बीमारी सामुदायिक स्तर पर फैल रही है।
सद्भावना और दुर्भावना के इस संवाद के बीच एक खबर पढ़ने को मिली कि शुक्रवार को शाहीनबाग की आंदोलनकारियों ने कहा है कि हम रविवार को भी अपना आंदोलन जारी रखेंगे। इसके पहले सोमवार को दिल्ली सरकार ने 50 से ज्यादा लोगों के एक स्थान पर एकत्र होने पर रोक लगा दी थी। उसके बाद यह संख्या कम करके 20 कर दी गई। शुक्रवार को शाहीनबाग की आंदोलनकारी महिलाओं ने कहा कि एक बार में 50 से ज्यादा की संख्या होती भी नहीं है। रविवार को भी हम लोग बैठेंगे और एक टेंट में दो लोग ही होंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनके अधिकार को चुनौती नहीं दी जाएगी, पर तिरंगे झंडे और देश की सांविधानिक व्यवस्था के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर सवाल जरूर खड़े होंगे।





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