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Saturday, February 29, 2020

राजनीतिक कर्म की कमजोरी का नतीजा है दिल्ली की हिंसा


दिल्ली के फसाद का पहला संदेश है कि राजनीतिक दलों के सरोकार बहुत संकीर्ण हैं और वे फौरी लाभ उठाने से आगे सोच नहीं पाते हैं। वे जनता से कट रहे हैं और ट्विटर के सहारे जग जीतना चाहते हैं। सन 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले मुजफ्फरनगर दंगों ने चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। उन दंगों का असर अबतक कम हो जाना चाहिए था, पर किसी न किसी वजह से वह बदस्तूर है और गाहे-बगाहे सिर उठाता है। अब दिल्ली में सिर उठाया है। बताते हैं कि फसादी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आए थे, जो अपना काम करके फौरन भाग गए।
फसाद को लेकर कई तरह की थ्योरियाँ सामने आ रही हैं। इसमें पूरी तरह से नहीं, तो आंशिक रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सामाजिक उथल-पुथल का भी हाथ है। सवाल यह भी है कि ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान फसाद भड़कने के पीछे क्या कोई राजनीतिक साजिश है? तमाम सवाल अभी आएंगे। भारत की राजनीति को अपनी राजधानी से उठे इन सवालों के जवाब देने चाहिए।

इस फसाद ने सामाजिक रूप से हमें किस कदर तोड़ा है, इसका पता देर से लगेगा। दिसम्बर के महीने में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नागरिकता कानून के खिलाफ हुए आंदोलन की चिंगारियाँ भी कहीं न कहीं सुलगी हुई थीं। हाल में हुए विधानसभा चुनाव के ठीक पहले दिल्ली में टकराव की भूमिका तैयार हो चुकी थी। जेएनयू, जामिया और फिर शाहीनबाग का नाम राष्ट्रीय सुर्खियों में था। खासतौर से शाहीनबाग को मीडिया का एक तबका धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की विजय के रूप में देख रहा था।
भय का राजनीतिक दोहन
वास्तविकता यह है कि नागरिकता कानून, जनगणना से जुड़े राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और असम की एनआरसी की प्रक्रिया ने सामान्य मुसलमान के मन में डर पैदा कर दिया है। उसे दूर करने लायक साख केंद्र की बची नहीं या उसकी दिलचस्पी इस बात में नहीं है। दूसरी तरफ कांग्रेस समेत दूसरे विरोधी दलों की दिलचस्पी इस डर को बढ़ाने तक सीमित है। वे सांविधानिक संस्थाओं का उल्लेख जरूर करते हैं, पर घूम फिरकर उसकी कमजोरियों और सीमाओं की आड़ में छिप जाते हैं। वे समाज को यह समझाने में नाकामयाब हैं कि हम सांविधानिक संस्थाओं की मदद से लड़ाई लड़ेंगे और किसी नागरिक का अहित नहीं होने देंगे।
शाहीनबाग आंदोलन के पीछे कोई सुविचारित राजनीतिक कार्यक्रम और नेतृत्व नहीं होने का नुकसान भी अब सामने आ रहा है। इसके लंबा खिंचने और देशभर में तमाम शाहीनबागों के खड़े होने पर उसकी विपरीत प्रतिक्रिया का राजनीतिक लाभ भारतीय जनता पार्टी ने दिल्ली चुनाव के अंतिम दिनों में उठाने की कोशिश भी की। आश्चर्यजनक रूप से आम आदमी पार्टी ने उस आंदोलन से खुद को दूर खींच लिया। उसने ध्रुवीकरण से बचने की कोशिश की और हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू कर दिया। इस बचाव के चक्कर में उनकी स्थिति सबसे ज्यादा खराब है। कांग्रेस भी समंजस में है, जिसके पास अमित शाह से इस्तीफा माँगने और शांति मार्च निकालने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
पार्टियों का असमंजस
फसाद ने सत्तारूढ़ भाजपा से लेकर दूसरे सभी दलों की कमजोरियों को उजागर किया है। शनिवार को हिंसा भड़कने के बाद पहले दो-तीन दिन किसी राजनीतिक दल ने आगे बढ़कर पहल नहीं की। भारी बहुमत से मुख्यमंत्री बने अरविंद केजरीवाल ने पहला ट्वीट सोमवार दोपहर साढ़े तीन बजे किया। और सिर्फ ट्वीट ही किया। अपने पहले ट्वीट में उन्होंने कहा, दिल्ली के कुछ हिस्सों से शांति व्यवस्था बिगड़ने की परेशान करने वाली ख़बरें आ रही हैं। मैं लेफ्टिनेंट गवर्नर और गृहमंत्री से क़ानून व्यवस्था बनाए रखने और शांति बहाल करने की अपील करता हूं। मंगलवार दोपहर बारह बजे उन्होंने प्रेस वार्ता की और बताया कि मैं दिल्ली के हालात पर कितना चिंतित हूँ।
केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। उनके पास पुलिस नहीं है, पर पूरा सरकारी अमला है, अपनी पार्टी का संगठन है। उन्हें जल्द से जल्द अमन कमेटियाँ बनाने या बनाने में मदद करने की जरूरत थी। ऐसा लगता है कि पहले तीन दिन प्रशासन और राजनीति दोनों ने इस दंगे और उसकी भयावहता की अनदेखी की। बावजूद इसके कि इस फसाद के पीछे सबसे बड़ा कारण वोटों की राजनीति ही है। राजनीति के विस्तार में जाएंगे, तो प्रशासनिक, सामाजिक-सांस्कृतिक, कारोबारी, आपराधिक और न्यायिक कारण भी सामने आएंगे।
संजीदा राजनीति की परीक्षा
राजनीतिक ध्रुवीकरण के भयावह परिणाम और उसकी तार्किक परिणति हमारे सामने है। यह मौका है जब संजीदा राजनीति को अपनी बात कहने का मौका मिलेगा। पर इन्हीं शक्तियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी समुदाय को डरने या डराने की जरूरत नहीं हैं। प्रशासनिक और न्यायिक संस्थाएं अपना काम करेंगी। नहीं कर रही हैं, तो हम उनसे काम कराएंगे। नागरिकता कानून की परीक्षा न्याय-व्यवस्था करेगी। यह भरोसा दिलाने वाली ताकतें कहाँ हैं? एनपीआर और एनआरसी का भय किसने पैदा किया?  
हाल में एक पत्रकार ने ट्वीट किया, ऐसे ध्रुवीकरण को मैंने अपने पूरे जीवन में कभी महसूस नहीं किया। दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम आम आदमी पार्टी की जीत से ज्यादा भारतीय जनता पार्टी की पराजय साबित हुए। सायास या अनायास इस परिणाम से भी एक प्रकार की तपिश पैदा हुई है। लंबे समय से सामाजिक जीवन में घुलता जा रहा जहर बाहर निकलने को आतुर था, और वह निकला। स्थानीय कारणों ने उसे भड़कने में मदद की। मस्जिद पर हमले हुए और स्कूल भी जलाया गया। अलबत्ता इन दंगों के पीछे कहीं न कहीं चुनाव के दौरान पैदा हुई तपिश और वह राजनीति थी, जो पिछले कई साल से टकराव के मौके खोज रही है।
रुके हुए फैसले
शुरुआत शनिवार की रात से हुई, जब दिल्ली के जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे कुछ औरतों के धरने पर बैठने की ख़बरें आईं। सोशल मीडिया पर इस प्रकार के वीडियो वायरल हुए, जिनमें दिखाया गया था कि बीच सड़क पर स्टेज लगाया जा रहा है। यह सब ऐसे वक्त में हो रहा था, जब भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद ने 23 फरवरी को भारत बंद का आह्वान किया था। रास्ता बंद होने की प्रतिक्रिया रविवार को हुई। कपिल मिश्रा ने पुलिस के नाम अल्टीमेटम जारी किया। वहीं से टकराव की स्थितियाँ पैदा हुईं। सोमवार सुबह जब एक तरफ़ डोनाल्ड ट्रंप अहमदाबाद पहुंचने वाले थे, ठीक तभी दिल्ली के इस इलाके से हिंसक झड़पों की ख़बरें आने लगीं।
धरने पर बैठने वाली महिलाओं का कहना था, हम 45 दिनों से कुछ किलोमीटर पहले विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन सरकार का कोई भी नुमाइंदा हमसे मिलने नहीं आ रहा था। जब तक हम सरकार पर प्रेशर नहीं बनाएंगे, तब तक सरकार नहीं सुनेगी। दिल्ली में यह आंदोलन अब दो महीने से ज्यादा पुराना हो चुका है। इस आंदोलन में उठाए जा रहे सवालों के साथ-साथ यह भी बताया जाना चाहिए कि इसकी तार्किक परिणति क्या है। पुलिस प्रशासन ने कार्रवाई करने में देरी की, पर देरी तो कई जगह हुई है। शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों के साथ कोर्ट के मध्यस्थों की वार्ता का कोई परिणाम नहीं निकला। कब निकलेगा? चुनाव के दौरान हेट स्पीच के आरोपों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। कब होगी?


1 comment:

  1. Rudra Shiv Mishra5:47 PM

    बहुत अच्छा विश्लेषण। पूरे मामले में सरकारी लापरवाही तो है ही मीडिया का एक वर्ग भी निष्पक्ष नहीं रहा।

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