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Monday, January 13, 2020

विस्फोटक समय में भारतीय विदेश-नीति के जोखिम


नए साल की शुरुआत बड़ी विस्फोटक हुई है। अमेरिका में यह राष्ट्रपति-चुनाव का साल है। देश की सीनेट को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध लाए गए महाभियोग पर फैसला करना है। अमेरिका और चीन के बीच एक नए आंशिक व्यापार समझौते पर इस महीने की 15 तारीख को दस्तखत होने वाले हैं। बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप इसके बाद चीन की यात्रा भी करेंगे। ब्रिटिश संसद को ब्रेक्जिट से जुड़ा बड़ा फैसला करना है। अचानक पश्चिम एशिया में युद्ध के बादल छाते नजर आ रहे हैं। इन सभी मामलों का असर भारतीय विदेश-नीति पर पड़ेगा। हम क्रॉसफायरिंग के बीच में हैं। पश्चिमी पड़ोसी के साथ हमारे रिश्ते तनावपूर्ण हैं, जिसमें पश्चिम एशिया में होने वाले हरेक घटनाक्रम की भूमिका होती है। संयोग से इन दिनों इस्लामिक देशों के आपसी रिश्तों पर भी बदलाव के बादल घिर रहे हैं।

यों तो अमेरिका और ईरान के बीच तनाव लंबे अर्से से चल रहा है, पर हाल में अमेरिका ने इराक़ी राजधानी बग़दाद में एक बड़ी सैनिक कार्रवाई करके ईरानी सेना के कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या कर दी। इस कार्रवाई के बाद ईरान में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई है। राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा है कि हमारे किसी भी ठिकाने या व्यक्ति पर हमला हुआ तो हम जबर्दस्त कार्रवाई करेंगे। अमेरिका का कहना है कि हमने ईरान के 52 ठिकानों पर निशाना लगा रखा है। इधर इराक़ और केन्या में अमेरिकी सैनिक ठिकानों पर हमले हुए हैं। इराक़ी संसद ने अमेरिका से कहा है कि अपनी सेना को हटाओ, पर लगता नहीं कि ट्रंप प्रशासन पर इसका कोई असर होगा। क्या यह अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है। क्या ट्रंप प्रशासन ने जानबूझकर टकराव मोल लिया है? इसके पीछे क्या सऊदी अरब और ईरान की प्रतिद्वंद्विता है, जिसमें इसरायल की भूमिका भी है। भारत के लिए इसमें क्या संदेश है और अब हम क्या करें? ऐसे तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं।
शुरुआत किसने की?
ईरान और अमेरिका के बीच टकराव तो पिछले कई महीनों से चल रहा है, पर पिछले साल के अंतिम सप्ताह में 27 दिसंबर को इराक़ के किरकुक स्थित एक अमेरिकी बेस पर दर्जनों मिसाइलों से हमला किया गया। अमेरिका का कहना है कि यह हमला ईरान समर्थक अर्धसैनिक संगठन कातेब हिज़्बुल्ला ने किया था। इस हमले में एक अमेरिकी ठेकेदार की मौत हो गई और कुछ अमेरिकी और इराक़ी सैनिक घायल भी हुए। इराक़ सरकार ने भी इस हमले पर आपत्ति व्यक्त की। इसके बाद अमेरिकी सेना ने कातेब हिज़्बुल्ला ठिकाने पर हवाई हमला किया, जिसमें कम से कम 25 सैनिक मारे गए और करीब 50 घायल हुए। इसके बाद हजारों प्रदर्शनकारियों ने बग़दाद स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमला बोला, जिसके जवाब में ट्रंप ने कहा कि ईरान को इन सब बातों की भारी कीमत अदा करनी होगी। यह चेतावनी नहीं, धमकी है।
अमेरिकी प्रशासन 16 साल पहले इराक़ में सद्दाम हुसेन के खिलाफ की गई गैर-जरूरी कार्रवाई का खामियाजा आज भुगत रहा है। गलत जानकारियों के आधार पर सद्दाम हुसेन का तख्ता पलटने के बाद अमेरिका ने इराक़ में जो सरकार बनाई वह कमज़ोर है। इसकी वजह से अमेरिका इराक़ से न तो निकल पा रहा है और न जम पा रहा है। इराक़ में शिया और सुन्नी समूहों के बीच टकराव है। ईरान का भी यहाँ जबर्दस्त प्रभाव और हस्तक्षेप है। हाल में अमेरिकी दूतावास के बाहर हुए प्रदर्शन में हादी अल-अमीरी जैसे तमाम ऐसे नेता शामिल हुए, जिनका संसद में गहरा असर है।
इराक़ी सेना अपने उपकरणों और ट्रेनिंग के लिए अमेरिका के सहारे है। उसकी कमजोरी की वजह से ही इस्लामिक स्टेट ने यहाँ सिर उठाया था और इन दिनों फिर से उसका पुनर्गठन हो रहा है। दूसरी तरफ इराक़ सरकार अमेरिकी हस्तक्षेप को पसंद भी नहीं करती। अमेरिकी सेना वहाँ इराक़ सरकार के निमंत्रण पर रह रही है, पर उसे कई तरफ से विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इराक़ में पहले से मौजूद ईरान विरोधी भावनाओं की जगह अब अमेरिका विरोधी भावनाएं ज्यादा ताकतवर होती जा रहीं हैं। ईरान और अमेरिका के बीच इराक़ अब अजीब स्थिति में फँसा हुआ है। अब भी उनके देश में हज़ारों अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं। अमेरिका का कहना है कि वह इराक़ी सैनिकों को ट्रेनिंग दे रहा है लेकिन इराक़ की सरकार कहना है कि बग़दाद में ईरानी सैन्य कमांडर जनरल सुलेमानी को मारना उसकी संप्रभुता का उल्लंघन है।
ट्रंप की राजनीति
तमाम तरह के अंतर्विरोधों के बीच ट्रंप प्रशासन ने ईरान के साथ रिश्तों को सुधारने के बजाय बिगाड़ने का फैसला किया। उसे यह भी पता है कि इराक़ में ईरान का गहरा असर है। फिर भी वह ईरान के साथ जानबूझकर रिश्ते बिगाड़ रहा है, जिन्हें ओबामा प्रशासन ने एक हद तक ठीक कर लिया था। सन 2018 में ट्रंप प्रशासन ने ईरान के साथ हुए समझौते से हाथ खींच लिया था। इस समझौते के कारण ईरानी नाभिकीय कार्यक्रम पर रोक लग गई थी। इसके बाद ट्रंप प्रशासन ने ईरान पर पाबंदियाँ लगानी शुरू कर दीं। उन्होंने ईरान पर तमाम तरह के दबाव डाले हैं, पर पिछले साल जब ईरान या उसके इशारे पर उसके समर्थक समूहों ने अमेरिकी पोतों के खिलाफ कार्रवाई की और सऊदी तेल संयंत्रों पर मिसाइलों से हमले बोले तो अमेरिका कोई बड़ी जवाबी कार्रवाई कर नहीं पाया। लगता है कि ट्रंप प्रशासन खुद अंतर्विरोधों का शिकार है। इस अंतर्विरोध में बड़ी भूमिका अमेरिका की आंतरिक राजनीति की है। सवाल है कि क्या अमेरिका में चुनाव जीतने में ईरान से लड़ाई की कोई भूमिका हो सकती है? बग़दाद में की गई फौजी कार्रवाई के बाद वॉशिंगटन, न्यूयॉर्क और शिकागो जैसे शहरों में युद्ध-विरोधी प्रदर्शन हुए हैं। अमेरिकी जनता युद्ध भी नहीं चाहती।
ट्रंप ने इतना बड़ा फैसला क्यों किया? क्या केवल चुनाव जीतने के लिए? क्या इसकी मदद से चुनाव जीता जा सकता है? खबरें हैं कि अमेरिकी इंटेलिजेंस के अनुसार सीरिया, इराक़ और लेबनॉन में अमेरिकी दूतावासों, वाणिज्य दूतों और सैनिक कार्यालयों पर हमले हो सकते हैं। इन परिस्थितियों में राष्ट्रपति ने बड़ा कदम उठाया। इसमें दो राय नहीं कि जनरल कासिम सुलेमानी ईरान के सबसे ताकतवर सैनिक अफसर थे। उनकी हत्या का फैसला छोटा नहीं है। बताते हैं कि 28 दिसंबर को अमेरिकी प्रशासन ने इस फैसले को टाल दिया था, पर अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले के बाद इस कार्रवाई को अंजाम देने का फैसला कर लिया गया।
भारत की भूमिका
अमेरिका ने पिछले साल जब ईरान पर पाबंदियाँ लगाईं तब भारत ने उनका पालन किया और ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया। बावजूद इसके भारत ने ईरान के साथ रिश्तों को ठीक से बनाए रखने की कोशिश की है। हाल में पाकिस्तान, मलेशिया और तुर्की की पहल पर ईरान ने क्वालालम्पुर में हुए मुस्लिम देशों के सम्मेलन में भाग भी लिया। उस सम्मेलन में सऊदी अरब की नाखुशी भी जाहिर हुई थी। हाल में ही ईरान-भारत संयुक्त आयोग की बैठक हुई है, जिस सिलसिले में विदेशमंत्री एस जयशंकर तेहरान गए थे। उन्होंने गत 23 दिसंबर को राष्ट्रपति हसन रूहानी से भी भेंट की और उसके पहले विदेशमंत्री जव्वाद जरीफ के साथ संयुक्त आयोग बैठक की बैठक में शामिल हुए।
कमांडर क़ासिम सुलेमानी के मारे जाने के बाद जयशंकर ने पहले जव्वाद ज़रीफ़ और फिर अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो से भी फोन पर बात की। भारत ने दोनों देशों से तनाव कम करने की अपील की, पर हमले के लिए अमेरिका की निंदा नहीं की। अलबत्ता भारत और अमेरिका के विदेशमंत्रियों की वार्ता के बाद अमेरिकी विदेश विभाग ने जो बयान जारी किया है उसमें इस बात का उल्लेख है कि दोनों विदेशमंत्रियों ने ईरानी लगातार उकसावे को रेखांकित किया। इसके बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने जो बयान जारी किया, उसमें यह भी कहा गया कि इस तनाव के कारण विश्व शांति के लिए खतरा पैदा हो गया है। ईरानी विदेशमंत्री 14 से 16 जनवरी तक दिल्ली में होने वाले रायसीना संवाद में भी आ रहे हैं। इस दौरान काफी गहमागहमी रहेगी। साथ ही इस सिलसिले में भारत के दृष्टिकोण का पता भी लगेगा। 



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