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Sunday, December 1, 2019

राजनीति का गड़बड़झाला


राजनीति की विडंबनाओं और अंतर्विरोधों को समझना आसान नहीं है। पश्चिमी मूल्यों और मान्यताओं का तड़का लगने के बाद भारतीय राजनीति बड़ा गड़बड़झाला बनकर उभरी है। महाराष्ट्र के घटनाक्रम से यही साबित हुआ है। यह परिघटना नई सोशल इंजीनियरी का संकेत है या लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे पुराने मूल्यों की रक्षा का प्रयास है? या ठाकरे, पवार और गांधी-नेहरू परिवार के हितों की रक्षा का प्रयास? इसके पीछे कोई गम्भीर योजना है या फिर पाखंड, जो राजनीति के शिखर पर है? सोनिया, राहुल और मनमोहन का शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं होना पाखंड नहीं तो क्या है? दूसरी तरफ शिवसेना की धर्मनिरपेक्षता को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं, यह जाने बगैर कि इस शब्द से आपका आशय क्या है।

ऐसी क्या बात थी, जिसके कारण तीन दशक का वैचारिक गठबंधन देखते ही देखते ढह गया? इस बात में रंचमात्र भी संदेह नहीं कि भाजपा+शिवसेना गठबंधन के नाम जनादेश था, एनसीपी+कांग्रेस+शिवसेना के नाम नहीं। सरकार बनने के पहले का नाटकीय घटनाक्रम भी देश की राजनीति को लेकर तमाम सवाल खड़े करता है। देवेंद्र फडणवीस और अजित पवार की सरकार बनाने के प्रयास जितने विस्मयकारी थे, उतनी ही हैरत भरी इन प्रयासों की आलोचना थी। उद्धव ठाकरे भी सांविधानिक मर्यादाओं की बात करने लगे। सन 1966 में जबसे बाल ठाकरे ने इसका गठन किया है, शिवसेना पर सांविधानिक मर्यादाओं के उल्लंघन के न जाने कितने आरोप लगे हैं। स्वयं बाल ठाकरे के लोकतांत्रिक अधिकार छह साल के लिए छीने गए थे। उसकी पृष्ठभूमि में कांग्रेस पार्टी थी। अब यह मान लिया गया है कि मौकापरस्ती और सब कुछ भूल जाने का नाम राजनीति है। इसमें सिद्धांतों, विचारधाराओं और मूल्यों-मर्यादाओं का कोई मतलब नहीं है।

महाराष्ट्र के राजनीतिक नाटक के चालू अंक का पर्दा फिलहाल गिर गया है, पर यह मानकर नहीं चलना चाहिए कि असमंजस का दौर खत्म हो गया है। यकीनन पर्दे के पीछे के पात्रों और पटकथा लेखकों की भूमिका अभी बाकी है। भारतीय जनता पार्टी के संचालकों को पहली नजर में धक्का लगा है। उन्होंने या तो सरकार बनाने की संभावनाओं को ठोक-बजाकर देखा नहीं और धोखा खा गए। यह धोखा उन्होंने हड़बड़ी में अपनी गलती से खाया या किसी ने उन्हें दिया या इसके पीछे की कहानी कुछ और है, इसका पता शायद कुछ समय बाद लगे या शायद कभी न लगे। अलबत्ता जो बातें दिखाई पड़ रही हैं, वे कुछ सवालों को जन्म दे रही हैं।

हम आदर्श सांविधानिक व्यवस्था की बात करते हैं, पर आदर्श राजनीति की बात नहीं करते। पिछले चार दशक से देश में दूसरे या तीसरे मोर्चे की बात चल रही है, पर वह मोर्चा इसलिए नहीं बन पाता है, क्योंकि पार्टियाँ चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं करतीं। विडंबना है कि महाराष्ट्र में ‘चुनाव-पूर्व गठबंधन’ था, जो निरर्थक साबित हुआ। अब यकीन किस बात पर किया जाए? चुनाव-पूर्व गठबंधनों के साथ-साथ चुनाव-पूर्व कार्यक्रम भी घोषित होने चाहिए, पर व्यावहारिक राजनीति ‘विचारधारा-केंद्रित’ नहीं है, बल्कि बेटे-बेटियों को विरासत सौंपने की है।

इन सवालों पर राजनीति-शास्त्रियों को विचार करना चाहिए। फिलहाल विचार यह होना चाहिए कि जो सरकार अब बनी है क्या वह स्थायी होगी? क्या कोई नया राजनीतिक समीकरण राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरने वाला है? इसमें यह प्रश्न तो शामिल है ही कि क्या शिवसेना अब भारतीय जनता पार्टी से स्वतंत्र होकर राजनीति की किसी नई धारा में शामिल होने जा रही है? उसका भविष्य क्या है? उसका ही नहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी और कांग्रेस का भविष्य क्या है?

यह इस प्रकरण का अंत नहीं है, बल्कि अब एक नई दुविधा भरी राजनीति का प्रारंभ हो रहा है। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की ‘तिरंगी सरकार’ क्या टिकाऊ होगी? यह राजनीति का नया दलदल तो नहीं? इस कहानी के सूत्रधार एनसीपी के बुजुर्ग नेता शरद पवार हैं, जिन्हें राजनीतिक जोड़-तोड़ का बेहतरीन खिलाड़ी माना जाता है। सन 1978 में वे पहली बार इसी प्रकार की तोड़-फोड़ के सहारे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने थे। आज वे शिवसेना की पुश्त पर हाथ रखकर खड़े हैं, पर 2014 में उन्होंने ही परोक्ष रूप से विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी को ‘फ्लोर टेस्ट’ पार करने में मदद की थी। अब वे शिवसेना को यह समझा पाने में कामयाब हुए हैं कि ‘भारतीय जनता पार्टी की छत्रछाया में’ शिवसेना का विकास संभव नहीं है। पर यह अंतर्विरोधी बात है। एनसीपी को क्या शिवसेना की महत्वाकांक्षाओं का अनुमान नहीं है?

राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र की सबसे बड़ी भूमिका है, क्योंकि लोकसभा में सदस्य भेजने वाला वह दूसरे नम्बर का राज्य है। राष्ट्रीय राजनीति में उत्तर भारत के राज्यों के बाद महाराष्ट्र और गुजरात दो ऐसे राज्य हैं, जहाँ का मतदाता राष्ट्रवाद के नाम पर भी फैसला कतरता है। देखना होगा कि वहाँ की जनता को बीजेपी और शिवसेना का यह अलगाव रास आता है या नहीं। दूसरा सवाल यह है कि क्या अब शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस की छत्रछाया में विकसित होगी? या ये दोनों पार्टियाँ शिवसेना की छत्रछाया में अपने अस्तित्व की रक्षा करेंगी? महाराष्ट्र और खासतौर से उसकी राजधानी मुम्बई देश की राजनीति का अक्षय-कोष है। राजनीति की जीवनी-शक्ति वहीं सृजित होती है। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के कॉमन मिनिमम कार्यक्रम के लिखित और अलिखित पहलुओं को अलग-अलग पढ़ना होगा।
राजनीतिक दृष्टि से सवाल है कि कांग्रेस और एनसीपी के साथ विचारधारा के स्तर पर उसका कोई मेल है? नहीं है तो क्या वह अपनी विचारधारा में बदलाव करेगी

भाजपा-शिवसेना का 30 साल पुराना गठबंधन टूटा ही नहीं है, बल्कि एक नया गठबंधन बना भी है। दूसरी तरफ 78 घंटे की बगावत करके आए अजित पवार भले ही अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए, पर वे एनसीपी के अंतर्विरोध को भी रेखांकित कर गए हैं। कुछ न कुछ तो वहाँ भी चल ही रहा है। इसलिए इंतजार कीजिए कहाँ से कहाँ तक जाएगी यह राजनीति। 



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