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Thursday, November 28, 2019

महाराष्ट्र: कहानी का यह अंत नहीं


महाराष्ट्र की राजनीति के नाटक का पर्दा फिलहाल गिर गया है। ऐसा लगता है कि असमंजस के एक महीने का दौर पूरा हो गया। पर लगता है कि पर्दे के पीछे के पात्र और पटकथा लेखकों की भूमिका समाप्त नहीं हुई है। इसमें दो राय नहीं कि भारतीय जनता पार्टी के संचालकों को पहली नजर में धक्का लगा है। उन्होंने या तो सरकार बनाने की संभावनाओं को ठोक-बजाकर देखा नहीं और धोखा खा गए। यह धोखा उन्होंने हड़बड़ी में अपनी गलती से खाया या किसी ने उन्हें दिया या इसके पीछे की कहानी कुछ और है, इसे लेकर कुछ बातें शायद कुछ समय बाद सामने आएं। संभव है कि कभी सामने न आएं, पर मोटे तौर पर जो बातें दिखाई पड़ रही हैं, वे कुछ सवालों को जन्म दे रही हैं, जिनके उत्तर अभी या कुछ समय बाद देने होंगे।


1.पहला सवाल देश की सांविधानिक व्यवस्था और राज्यपालों की भूमिका से जुड़ा है। महाराष्ट्र से पहले कर्नाटक, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर वगैरह के प्रसंग हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप की नौबत भी आई है। हम एक तरफ अतिशय आदर्श परिस्थितियों की बातें करते हैं, पर जैसे ही मौका लगता है ‘व्यावहारिक राजनीति’ यानी ‘दंद-फंद’ का पल्ला थाम लेते हैं। यह किसी एक दल की कहानी नहीं है।

2.दूसरा सवाल पहले सवाल से ही निकलता है। हम आदर्श सांविधानिक व्यवस्था की बात करते हैं, पर आदर्श राजनीति की बात नहीं करते। पिछले चार दशक से देश में दूसरे या तीसरे मोर्चे की बात चल रही है, पर वह मोर्चा इसलिए नहीं बन पाता है, क्योंकि पार्टियाँ चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं करतीं। विडंबना है कि महाराष्ट्र में ‘चुनाव-पूर्व गठबंधन’ भी निरर्थक साबित हुआ। चुनाव-पूर्व गठबंधनों के साथ-साथ चुनाव-पूर्व कार्यक्रम भी घोषित होने चाहिए, पर व्यावहारिक राजनीति ‘विचारधारा-केंद्रित’ नहीं है, बल्कि बेटे-बेटियों को विरासत सौंपने की है।

3.उपरोक्त दोनों सवालों पर राजनीति-शास्त्रियों को विचार करना चाहिए। फिलहाल महाराष्ट्र के वर्तमान घटनाक्रम के संदर्भ में विचार यह होना चाहिए कि जो सरकार अब बनने वाली है क्या वह स्थायी होगी? क्या कोई नया राजनीतिक समीकरण राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरने वाला है? इसमें यह प्रश्न तो शामिल है ही कि क्या शिवसेना अब भारतीय जनता पार्टी से स्वतंत्र होकर राजनीति की किसी नई धारा में शामिल होने जा रही है? उसका भविष्य क्या है? उसका ही नहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी और कांग्रेस का भविष्य क्या है? इस आलेख में इस तीसरे प्रश्न को ही केंद्र में रखा गया है। अलबत्ता पहले दो प्रश्न इस विमर्श के प्रस्थान-बिंदु हैं।

कितनी टिकाऊ होगी तिरंगी राजनीति?  
पहले इस बात को समझ लिया जाना चाहिए कि यह इस प्रकरण का अंत नहीं है, बल्कि अब एक नई दुविधा भरी राजनीति का प्रारंभ हो रहा है। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की ‘तिरंगी सरकार’ क्या टिकाऊ होगी? इस कहानी के सूत्रधार एनसीपी के बुजुर्ग नेता शरद पवार हैं, जिन्हें राजनीतिक जोड़-तोड़ का बेहतरीन खिलाड़ी माना जाता है। सन 1978 में वे पहली बार इसी प्रकार की तोड़-फोड़ के सहारे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने थे। आज वे शिवसेना की पुश्त पर हाथ रखकर खड़े हैं, पर 2014 में उन्होंने ही परोक्ष रूप से विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी को ‘फ्लोर टेस्ट’ पार करने में मदद की थी। और अब वे शिवसेना को यह समझा पाने में कामयाब हुए हैं कि ‘भारतीय जनता पार्टी की छत्रछाया में’ शिवसेना का विकास संभव नहीं है। पर यह अंतर्विरोधी बात है।

क्या अब शिवसेना एनसीपी और कांग्रेस की छत्रछाया में विकसित होगी? या ये दोनों पार्टियाँ शिवसेना की छत्रछाया में अपने अस्तित्व की रक्षा करेंगी? इस बदलाव के पीछे एक बड़ा कारण जातीय राजनीति है। शिवसेना और एनसीपी दोनों का जातीय आधार ओबीसी मराठा वोट है। उसके साथ मुस्लिम वोट भी शामिल है, पर शिवसेना ने पिछले तीन दशक से हिंदुत्व का दामन भी पकड़ा है। क्या अब उसकी विचारधारा में बदलाव होगा? 

अस्तित्व-रक्षा के इस यज्ञ में कई प्रकार के निजी हित टकराते हैं। महाराष्ट्र राज्य देश के आर्थिक क्रिया-कलाप का केंद्र है। नेताओं के ही नहीं कारोबारी व्यक्तियों के हित भी इस राज्य से जुड़े हैं। शरद पवार केवल किसानों के हितैषी ही नहीं हैं, वे देश के उद्योग-व्यापार के संरक्षक भी है। पर इस शतरंज की बिसात का मायाजाल बहुत जटिल है। बहरहाल इस राउंड में बाजी उनके हाथ में लगी है।

अब नई सरकार बनने की प्रक्रिया शुरू हुई है। सरकार बनते ही सवाल खड़ा होगा कि जिस सरकार को बनाने के पहले इतना लंबा विमर्श चला कि एक-दूसरी सरकार बनी और बिगड़ी, उसकी स्थिरता की गारंटी क्या है? क्या वजह है कि महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद एक महीने से ज्यादा समय हो गया और सरकार का पता नहीं? मंगलवार को अपने इस्तीफे की घोषणा करते हुए देवेंद्र फडणवीस ने मीडिया से कहा कि महाराष्ट्र में बीजेपी को पूरा जनादेश मिला। हमने शिवसेना के साथ चुनाव लड़ा और दोनों को मिलकर सरकार बनाने का जनादेश मिला। यह जनादेश इसलिए बीजेपी का था क्योंकि हमारा स्ट्राइक रेट शिवसेना से ज्यादा था। उधर शिवसेना हमसे चर्चा करने की जगह एनसीपी से चर्चा कर रही थी। एक बात साफ है कि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का कॉमन मिनिमम कार्यक्रम है, बीजेपी को सत्ता से बाहर रखना।

मतदाता देख रहा है
वस्तुतः फडणवीस यह बात वोटर से कह रहे थे। हमारा वोटर भुलक्कड़ है, पर कई बातें याद रखता है। सन 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का एक वोट से गिरना अगले ही चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की विजय में सहायक बना। अब इस राजनीति का दूसरा दौर शुरू होगा। अब सवाल है कि महाराष्ट्र के नए राजनीतिक गठजोड़ का अर्थ क्या है? क्या यह कांग्रेस की वैकल्पिक राजनीति है?  इसमें शिवसेना का भूमिका क्या है? क्या वह भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सफल हो सकेगी?

कांग्रेस और एनसीपी के साथ विचारधारा के स्तर पर उसका कोई मेल है? क्या वह अपनी विचारधारा में बदलाव करेगी? भाजपा-शिवसेना का 30 साल पुराना गठबंधन टूटा ही नहीं है, बल्कि एक नया गठबंधन बना भी है। दूसरी तरफ 78 घंटे की बगावत करके आए अजित पवार भले ही अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए, पर वे एनसीपी के अंतर्विरोध को भी रेखांकित कर गए हैं। कुछ न कुछ तो वहाँ भी चल ही रहा है। सवाल एनसीपी के भी भविष्य का भी है।

पारिवारिक पार्टियाँ
कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना तीनों की पारिवारिक राजनीति है. उद्धव ठाकरे अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को जमाना चाहते हैं। उन्हें समझ में आ गया है कि बीजेपी की छत्रछाया में शिवसेना का विकास नहीं होगा। तो क्या एनसीपी और कांग्रेस की छत्रछाया में होगा? यदि बीजेपी के गठबंधन में उन्हें मुख्यमंत्री पद मिल जाता, तो क्या सब ठीक हो जाता। यह सारी बातें अपनी जगह हैं, पर भविष्य के राजनीति के कुछ सवाल भी इससे जुड़े हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे वरिष्ठ नेता भविष्य की गठबंधन राजनीति पर भी विचार कर रहे हैं। शरद पवार ने पेशकश की थी कि कांग्रेस से निकले दल राष्ट्रीय स्तर पर एक साथ आ सकते हैं।

ममता बनर्जी ने अपने महागठबंधन में शिवसेना को शामिल करने की योजना भी बनाई थी। लोकसभा चुनाव के पहले खबरें थीं कि ममता बनर्जी ने शिवसेना को फेडरल फ्रंट में खींचने की कोशिश भी की। फरवरी में ‘सामना’ में प्रकाशित एक सम्पादकीय में कहा गया कि ममता बनर्जी शेरनी की तरह लड़ रही हैं. तब शिवसेना का आकलन था कि बीजेपी को लोकसभा में करीब सौ सीटें कम मिलेंगी। वह अनुमान गलत साबित हुआ, पर शिवसेना अपने अस्तित्व को लेकर बेचैन है। उसके पास बालासाहेब ठाकरे जैसा नेता नहीं है। क्या उद्धव ठाकरे अब प्रभावशाली नेता बनकर उभरेंगे?  क्या कांग्रेस और एनसीपी उसे बचाने आई हैं? कांग्रेस और एनसीपी के साथ उनके अंतर्विरोध अब सामने आएंगे, नई सरकार बनने के बाद। कर्नाटक में यही हुआ था। वहाँ केवल दो दल थे, यहाँ तीन हैं।

शिवसेना का क्या होगा?
शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के आंतरिक-विग्रह की पृष्ठभूमि सन 2009 में तैयार हो गई थी, जब विधानसभा चुनाव में बीजेपी को शिवसेना से ज्यादा सीटें मिलीं। उसके पहले तक महाराष्ट्र में शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में थी। उसके बाद उसे समझ में आ गया था कि भूमिका बदल रही है। सन 2014 में शिवसेना ने बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा, पर बीजेपी की ताकत और बढ़ गई। घबराकर शिवसेना ने सरकार में शामिल होना स्वीकार किया,  पर उसके अलग होने की भूमिका तैयार होने लगी। मंगलवार को देवेंद्र फडणवीस इसी बात को रेखांकित कर रहे थे कि महाराष्ट्र में हम अब ज्यादा बड़ी शक्ति हैं। इसबार के विधानसभा चुनाव में चुनाव-पूर्व समझौते के आधार पर बीजेपी ने 164 और शिवसेना ने 124 सीटों प्रत्याशी खड़े किए। इतनी सीटों पर लड़ने के बावजूद बीजेपी का जीत प्रतिशत शिवसेना से बेहतर रहा। एनडीए में रहना अब शिवसेना की मजबूरी थी। शिवसेना का कहना है कि मुख्यमंत्री पद को लेकर हमें आश्वासन दिया गया था। यदि ऐसा था तो शिवसेना को अपने चुनाव प्रचार के दौरान जनता के बीच जाकर इस बात को कहना चाहिए था।

दोनों दलों के बीच राजनीतिक सत्ता का फैसला 2014 में हो गया था। इस चुनाव के बाद बनी सरकार में शिवसेना को महत्वपूर्ण मंत्रालय नहीं दिए गए। उनके मंत्रियों की फाइलों को लेकर सवाल किए गए। बीजेपी नेताओं ने ‘मातोश्री’ जाकर राय-मशविरा बंद कर दिया। शायद यह सब सोच-समझकर हुआ, ताकि शिवसेना को अपनी जगह का पता रहे। सन 2017 के बृहन्मुंबई महानगरपालिका के चुनाव में बीजेपी और शिवसेना करीब-करीब बराबरी पर आ गईं। शिवसेना का क्षरण क्रमिक रूप से हो रहा था। उसके नेता पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल होने लगे। उद्धव ठाकरे के सामने राज ठाकरे भी खड़े हैं। फिलहाल वे भी साइड-लाइन पर खड़े होकर खेल देख रहे हैं। शायद अब वे भी सक्रिय होंगे।

सवाल दो हैं, क्या भारतीय जनता पार्टी से पृथक शिवसेना का कोई अस्तित्व सम्भव है? कांग्रेस और एनसीपी उसे कितना निभाएंगे? महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी किस आधार पर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएगी, उसपर अलग से विचार करना चाहिए। पर क्या शिवसेना को कांग्रेस और शरद पवार की रणनीति समझ में नहीं आ रही है? क्या ये दोनों पार्टियाँ भी बाला साहेब ठाकरे की इच्छापूर्ति के लिए शिवसेना के साथ आई हैं?  प्रश्न यह भी है कि शिवसेना के मन में असुरक्षा का भाव था, तो उसने बीजेपी के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन क्यों किया? चुनाव के दौरान उसने इस बात को साफ-साफ जनता से क्यों नहीं कहा कि हम अपना मुख्यमंत्री राज्य में लाने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं। कहा जा रहा है कि शिवसेना विचारधारा के स्तर पर भी बदलाव करने जा रही है। यह कैसे होगा, इसे देखना चाहिए।


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