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Sunday, November 24, 2019

क्यों उठा नागरिकता का सवाल?


असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) पर चली करीब चार साल की वरजिश के बावजूद असम में विदेशी नागरिकों की घुसपैठ का मामला सुलझा नहीं। अब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने बुधवार को संसद में कहा कि पूरे देश में एनआरसी को लागू किया जाएगा और असम में इसकी नए सिरे से शुरूआत की जाएगी। इस साल 31 अगस्त को जारी की गई असम की एनआरसी से करीब 19 लाख लोग बाहर रह गए हैं। इस सूची से बाहर रह गए लोगों के पास अभी चुनौती देने के विकल्प हैं, पर इस प्रक्रिया से पूरे पूर्वोत्तर में कई प्रकार के भय पैदा हो गए हैं। इस एनआरसी को भारतीय जनता पार्टी ने भी अस्वीकार कर दिया है। सवाल है कि इसे तार्किक परिणति तक कैसे पहुँचाया जाएगा?
भारत के सांप्रदायिक विभाजन से उपजी इस समस्या के समाधान के लिए गंभीर विमर्श की जरूरत है। इसके कारण पिछले कई दशकों से असम में अस्थिरता है। बेशक इसकी जड़ों में असम है, पर यह समस्या पूरे देश को परेशान करेगी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के दौर में चाय बागान में काम के लिए पूर्वी बंगाल से बड़ी संख्या में मुसलमान यहाँ आए। मारवाड़ी व्यापारियों के साथ भी काफी बड़ी संख्या में मजदूर आए, जिनमें बड़ी संख्या मुसलमानों की थी। विभाजन के समय मुस्लिम लीग की कोशिश थी कि असम को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल किया जाए, पर स्थानीय नेता गोपीनाथ बोरदोलोई के प्रतिरोध के कारण ऐसा सम्भव नहीं हुआ। बोरदोलोई को सरदार पटेल और महात्मा गांधी का समर्थन हासिल था।

देश की वर्तमान राजनीति के अनेक सूत्र असम के साथ जुड़े हैं। राज्य के पहले मुख्यमंत्री बोरदोलोई और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच मुस्लिम आबादी को लेकर विवाद थे। कहीं न कहीं ये मतभेद आज की राजनीति में बदस्तूर हैं। यह भी सच है कि राज्य में मुस्लिम आबादी का विस्तार हुआ है। सन 2001 में राज्य के 6 जिलों में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक थी, 2011 में यह संख्या बढ़कर 9 हो गई। हालांकि हाल के वर्षों में इस अनुपात में गिरावट आने की खबरें भी हैं। असम के मुसलमानों की संस्कृति उदार है। वे असमिया संस्कृति में रचे-बसे हैं। उनके रीति-रिवाज, परम्पराएं और उत्सव वही हैं, जो हिन्दुओं के हैं। सन 1979 से 1985 के बीच चले असम आंदोलन का निशाना बंगाली मुसलमान थे और आज भी उन्हें लेकर ही विवाद है।
सन 1983 के असम विधानसभा चुनावों का एक बड़े तबके ने बहिष्कार किया था। उसके बाद 15 अगस्त 1985 को असम के आंदोलनकारियों और केंद्र सरकार के बीच जो समझौता हुआ था, उसकी मूल भावना थी कि 1971 के बाद भारत आए बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा। इस समझौते के पहले इंदिरा गांधी की सरकार ने 1983 में अवैध परिव्रजन अधिनियम पास किया, जिसके तहत 25 दिसम्बर 1971 के पहले भारत आए बांग्लादेशी नागरिकों की नागरिकता को वैध करार दिया गया। सन 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया। एक एनजीओ की अपील पर सन 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को एनआरसी की प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया है, जो अब अपनी तार्किक परिणति पर पहुँच रही है।
अमित शाह के बयान ने इस बहस को ताजा कर दिया है। अमित शाह ने यह भी कहा है कि हम नागरिकता संशोधन विधेयक फिर से संसद में पेश करेंगे। यह विधेयक मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में भी पेश किया था, जो इस साल जनवरी में लोकसभा से पास होने के बाद लैप्स हो गया। विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को बिना किसी वैध कागजात के भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है।
बीजेपी का कहना है कि हम इन तीनों देशों के अल्पसंख्यकों की बात कर रहे हैं, जो प्रताड़ना के शिकार है। ऐसे सवाल भारतीय राजनीति को प्रभावित करते रहेंगे, जो विभाजन की देन हैं। नागरिकता से जुड़े इन सवालों पर हमें विचार करना ही होगा। यह आसान काम नहीं है, पर यह इतना निरर्थक भी नहीं है, जितना इसे साबित किया जा रहा है। हाल में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का कहना है कि एनआरसी का महत्व आज के लिए ही नहीं भविष्य के लिए है।
असम में जो एनआरसी तैयार की गई है, वह सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर और उसकी देख-रेख में तैयार हुई है। अभी ऐसा कोई फैसला नहीं हुआ है कि जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उनका क्या होगा, पर कभी न कभी इस बात पर भी फैसला करना होगा। यह मसला राजनीति को इसलिए प्रभावित करता है, क्योंकि इसके सहारे मतदाताओं का एक वर्ग तैयार हो रहा है। असम में बड़ी संख्या में बांग्लादेश के नागरिक आए हैं। मजबूरी में कटऑफ तारीख बदली गई। 1947 से 1971 के बीच आए लोगों को हमने कानूनन स्वीकार कर लिया। सवाल है कि क्या हमें एक और कटऑफ तारीख तय करनी होगी?
यह विवाद अब भारतीय राजनीति के शिखर पर पहुँच रहा है। बंगाल में भी यह वोट की राजनीति का विषय है। कोई आश्चर्य नहीं कि 2024 के चुनाव में यह भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनकर उभरे। कहना मुश्किल है कि नागरिकता संशोधन विधेयक संसद से पास होगा या नहीं। यह तभी संभव होगा, जब इस विषय पर राष्ट्रीय आमराय हो। अलबत्ता आने वाले समय में यह सवाल राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित जरूर करेगा। बेहतर है कि हम इस बारे में संजीदगी से विचार करें। इससे बचकर भागेंगे, तो यह सवाल हमारा पीछा करेगा।
भारत में असम अकेला राज्य है, जहाँ सन 1951 में इसे जनगणना के बाद तैयार किया गया था। सन 1951 में देश के गृह मंत्रालय के निर्देश पर असम के सभी गाँवों, शहरों के निवासियों के नाम और अन्य विवरण इसमें दर्ज किए गए थे। इस एनआरसी का अब संवर्धन किया गया है। इसकी जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि सीमा-पार से नागरिकों का आगमन हो रहा था। यह अभी रुका नहीं है। भारत में नागरिकता संघ सरकार की सूची में है, इसलिए एनआरसी से जुड़े सारे कार्य केंद्र सरकार के अधीन होते हैं। उधर पूर्वोत्तर के राज्यों में नागरिकता (संशोधन) विधेयक का विरोध है। यह मुद्दा इस साल लोकसभा चुनावों के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद उभरा था। आज या कल हमें इस समस्या का समाधान खोजना ही होगा।

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