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Monday, August 5, 2019

‘तीन तलाक’ पर मुस्लिम समाज भी विचार करे


तीन तलाक को अपराध की संज्ञा देने वाला विधेयक अब कानून बन चुका है। इस कानून के दो पहलू हैं. एक है इसका सामाजिक प्रभाव और दूसरा है इसपर होने वाली राजनीति. मुस्लिम समाज इस कानून को किस रूप में देखता है?ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका विरोध करते हुए कहा कि हम इसे अदालत में चुनौती देंगे. साथ ही उसने विरोधी दलों के रवैये की निंदा की है. बोर्ड ने ट्वीट करते हुए कहा कि हम कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, एआईएडीएमके, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), वाईएसआर कांग्रेस की कड़ी निंदा करते हैं.
बोर्ड इस मामले को राजनीतिक नजरिए से देखता है और परोक्ष रूप से पार्टियों को ‘वोट’ खोने की चेतावनी दे रहा है. यह संगठन इस सवाल पर मुसलमानों के बीच बहस को चलाने के बजाय इसे राजनीतिक रूप से गरमाने की कोशिश करेगा. इस सिलसिले में पश्चिम बंगाल के मंत्री और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष सिद्दिकुल्ला चौधरी ने कहा कि यह कानून इस्लाम पर हमला है. हम इस कानून को स्वीकार नहीं करेंगे. यह बात उन्होंने व्यक्तिगत रूप से कही जरूर है, पर इससे बंगाल की राजनीति पर भी असर पड़ेगा.

इस मसले को सन 1985 के शाहबानो मसले से जोड़कर देखा जा रहा है. उस मसले ने देश की राजनीति में एक दरार पैदा की थी, जिसके बाद भारतीय जनता पार्टी के प्रभाव का विस्तार हुआ था. ट्रिपल तलाक कानून क्या वास्तव में ‘इस्लाम पर हमला’ है? एक तरफ कहा जा रहा है कि तलाक की यह व्यवस्था इस्लाम के अनुरूप नहीं है और बड़ी संख्या में मुस्लिम देशों में इसपर रोक है, तो इसे हमला क्यों माना जाए? दूसरी बात कांग्रेस समेत कुछ दूसरे दलों की है कि इसे आपराधिक कृत्य नहीं बनाना चाहिए था.
कहा जा रहा है कि महिला की शिकायत पर पति को तीन साल के लिए जेल भेज दिया जाएगा, तो बच्चों का भरण-पोषण कैसे होगा?  दो साल पहले पेश किए गए कानून के मुकाबले अब पास हुए कानून की कठोरता में कमी आई है और जमानत की व्यवस्था भी की गई है. यह कहना कि पति के जेल जाने के बाद बच्चों का क्या होगा, अधूरे सच की तरफ इशारा करता है. सवाल है कि पति एक झटके में पत्नी को छोड़ देगा, तो पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण का जिम्मा किसका होगा?
मुस्लिम समाज में महिलाओं का एक तबक़ा निजी कानूनों में सुधार चाहता है. उनकी बात मुस्लिम समाज के बीच सुनी जानी चाहिए. सन 1972 में केरल हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस पी ख़ालिद ने मोहम्मद हनीफा बनाम पतुम्माल बीवी केस में इस परम्परा को इस्लाम और संविधान दोनों की मूल भावना के खिलाफ क़रार दिया था. उसके बाद 1981 में गुवाहाटी हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस बहरुल इस्लाम ने (जो बाद में सुप्रीम कोर्ट के जज भी बने) जियाउद्दीन अहमद बनाम अनवारा बेगम मामले में व्यवस्था दी थी कि बग़ैर सुलह सफाई की कोशिशों के दिए गए तलाक़ से निकाह नहीं टूट सकता. सन 2002 में शमीम आरा के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी ही व्यवस्था दी. इनके अलावा भी अदालतों ने इसके अलग-अलग पहलुओं पर फैसले सुनाए हैं.
सवाल दो हैं. एक यह कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ट्रिपल तलाक को उचित क्यों ठहराना चाहता है वहीं सरकार ने इसे पास करने में जल्दी क्यों की? इसे प्रवर समिति के पास भेजने में क्या बुराई थी? कम से कम इसके सभी पहलुओं पर विचार हो जाता. करीब दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल तलाक को गैर-कानूनी माना था. गैर-इस्लामिक भी. इसबार जो विधेयक पेश किया गया, वह दिसम्बर, 2017 के विधेयक से कुछ फर्क है. फिर भी सवाल है कि क्या सरकार ने सभी आशंकाओं का जवाब दे दिया है? विवाद की प्रकृति दीवानी है, तो इसे फौजदारी का मसला क्यों बनाया गया है?
देश की सांविधानिक व्यवस्था धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप को उचित नहीं मानती. साथ ही मानवाधिकारों की रक्षा भी करती हैं. मोदी सरकार के दूसरे दौर की शुरुआत में ‘सबका साथ, सबका विकास’ के सिद्धांत में ‘सबका विश्वास’ को भी जोड़ा गया है. क्या यह कदम मुस्लिम समाज के विश्वास को हासिल करने वाला साबित होगा? दूसरी तरफ सवाल मुस्लिम नेतृत्व से भी है. क्या उनका नजरिया शुरू से ही कठोर नहीं रहा है? क्या उनकी कठोरता ही बीजेपी के उदय का कारण नहीं बनी है? मुस्लिम नेतृत्व के अलावा राजनीतिक दलों के नेतृत्व को भी इसपर विचार करना चाहिए. 
सवाल ही यही है कि यदि कभी मानवाधिकारों और सांविधानिक उपबंधों और धार्मिक प्रतिष्ठान के बीच विवाद हो, तब क्या करना चाहिए. कुछ साल पहले कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने कहा था कि धार्मिक प्रतिष्ठान की बात मानी जानी चाहिए. धार्मिक प्रतिष्ठान माने क्या? मुसलमानों के बीच भी कई किस्म की धारणाएं हैं. ऐसी सलाहों की तार्किक परिणति को भी समझना चाहिए. अलबत्ता ऐसी एकतरफा टिप्पणियाँ बीजेपी के काम को आसान बनाती हैं.
तीन तलाक से हटकर बहस पहले समान नागरिक संहिता पर जाती है, फिर ‘हिंदू राष्ट्र’ के अंदेशे पर. इससे मुस्लिम मन उद्विग्न होता है. दूसरी ओर भाजपाई राजनीति इसे ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ पर रोक लगाने की कोशिश बताती है. सन 1985 में जब शाहबानो का मामला उठा था, दिल्ली में कांग्रेस सरकार थी, जिसने प्रगतिशील मुसलमानों की बात नहीं सुनी थी. पर इस वक्त दिल्ली में उसके उलट व्यवस्था है. इसका वोट की राजनीति से जुड़े होना भी इसे समस्या का रूप देता है.
यह सवाल जब भी उठेगा तब उसे राजनीति से प्रेरित माना जाएगा. पर इसका समाधान इसी राजनीति को करना होगा. उसके पहले मुसलमानों को आत्मचिंतन करना चाहिए. कुछ साल पहले पूर्व कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने ‘ट्रिपल तलाक’ के संदर्भ में मुसलमानों से आग्रह किया था कि वे सामाजिक सुधार के बारे में विचार करें. यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण है.




1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नये भारत का उदय - अनुच्छेद 370 और 35A खत्म - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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