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Wednesday, August 14, 2019

चिदंबरम खुद तो डूबेंगे…


कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने जम्मू-कश्मीर से जुड़े सरकारी फैसलों को सांप्रदायिक रंग देकर न तो अपनी पार्टी क हित किया है और न मुसलमानों का। और कुछ हो न हो, कांग्रेस को एक धक्का और लगा है। उन्होंने रविवार को चेन्नई में कहा कि मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला इसलिए लिया क्योंकि वहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं। अगर वहां हिंदू बहुसंख्यक होते तो यह फैसला नहीं होता।
संयोग से मंगलवार के अखबारों में चिदंबरम के इस बयान के साथ-साथ वरिष्ठ लेखिका नयनतारा सहगल का भी बयान छपा है। उन्होंने कहा है कि सरकार को एक मुस्लिम बहुल राज्य फूटी आँखों नहीं सुहाता, इसलिए यह फैसला हुआ है। सन 2015 में पुरस्कार वापसी अभियान की शुरुआत नयनतारा सहगल ने की थी। तब भी कहा गया था कि इस मुहिम के पीछे राजनीतिक कारण ज्यादा है, अभिव्यक्ति से जुड़े कारण कम। यह राजनीति तबसे लेकर अबतक कई बार मुखर हुई है।
चिदंबरम कांग्रेस पार्टी की दृष्टि से कोई बयान देते, तो इसमें गलत कुछ नहीं है, पर सवाल है कि क्या कांग्रेस का यही नजरिया है? है तो इस बात को पार्टी कहे और उसके निहितार्थ को भुगते। सच है कि पाकिस्तान की कोशिश है कि कश्मीर में नागरिकों की धार्मिक भावनाओं का दोहन किया जाए। पर भारतीय मुसलमान धर्मनिरपेक्ष-व्यवस्था के समर्थक हैं। विभाजन के समय उन्होंने भारत में रहना इसीलिए मंजूर किया था। कश्मीर को धार्मिक-राज्य बनाने की कोशिश होगी या साम्प्रदायिक जुमलों से आंदोलन चलाया जाएगा, तो भारत के राष्ट्रवादी मुसलमान उसका समर्थन नहीं करेंगे।  

कश्मीर में स्थितियाँ बेहतर हो जातीं और वहाँ के राजनीतिक दल मुख्यधारा की राजनीति से जुड़े होते, तो दिक्कत क्या थी? वहाँ केवल जैशे-मोहम्मद, हिज्बुल मुजाहिदीन और लश्करे तैयबा की समस्या नहीं है। वहाँ हुर्रियत जैसे संगठन सक्रिय हैं, जो भारतीय संविधान को ही स्वीकार नहीं करते। चिदंबरम जब गृहमंत्री थे, तब उन्होंने सन 2010 में सांसदों के एक दल को कश्मीर भेजा था। उस दल ने क्या हासिल किया? 
चिदंबरम ने अब कहा है कि अनुच्छेद 370 हटाए जाने का विरोध कर रहे हजारों प्रदर्शनकारियों को दबाया गया। उन पर गोलियां चलाईं गईं, आंसू गैस के गोले छोड़े गए। क्या यह बात सच है? प्रतिबंध हैं, पर गोलियाँ कहाँ चलीं? पाकिस्तान तो चाहता यही है कि गोलियाँ चलें। कश्मीरियों की आग से उसकी रोटियाँ सिंकतीं हैं। चिदंबरम साहब किस तरफ खड़े हैं? सोमवार को उनका बयान जब चैनलों पर दिखाया जा रहा था, तब उनके साथ वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का यह बयान भी चल रहा था कि कश्मीर की वास्तविक स्थिति को जानने के लिए विदेशी मीडिया को देखें। ऐसे बयान यकीनन कांग्रेस को ले डूबेंगे।
यह सच है कि कश्मीर में हालात तनावपूर्ण हैं और नागरिकों पर प्रतिबंध जारी हैं, पर 5 अगस्त के बाद से अबतक वहाँ से ऐसी कोई खबर नहीं मिली है कि हजारों प्रदर्शनकारियों को दबाया गया है या वहाँ गोलियाँ चली हैं। अल जज़ीरा और बीबीसी ने कुछ क्लिपिंग्स दिखाई हैं, जिनकी विश्वसनीय संदिग्ध है। उनमें भी किसी खास घटना का विवरण नहीं है। उनका उद्देश्य प्रचार करना ही है। वास्तव में पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई खुलकर प्रचार-युद्ध चला रही है। क्या कांग्रेस को उसपर यकीन है?  
अनुच्छेद 370 को लेकर पार्टी के भीतर असहमतियाँ हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, दीपेंद्र हुड्डा और जनार्दन द्विवेदी से लेकर डॉ कर्ण सिंह तक ने इसे हटाने पर अपनी सहमति, जताई है। यह छोटी बात नहीं है। देश की मुख्यधारा जिस दिशा में सोच रही है, आप उससे विपरीत दिशा में क्यों जाना चाहते हैं? कौन से मानवीय, लोकतांत्रिक सिद्धांत आपके आड़े आ रहे हैं?
चिदंबरम अच्छी तरह जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्ज दिया ही इसलिए गया था कि वह मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य था और भारत के तत्कालीन प्रशासक चाहते थे कि देश की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में एक मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य भी सफलता के साथ रह सकता है। हिन्दू बहुल राज्य होता, तो उसे विशेष दर्जे की जरूरत क्या होती? कश्मीर पाकिस्तान की सीमा से जुड़ा राज्य है, जहाँ पाकिस्तानी आतंकी गिरोह सक्रिय हैं, जो जनता की धार्मिक भावनाओं का दोहन करके अपने एजेंडा को पूरा करना चाहते हैं।
पाकिस्तान के सत्ताधारी भारत की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में एक मुस्लिम बहुल राज्य को खुशहाल नहीं देख सकते। इससे उनकी अपनी व्यवस्था गलत साबित हो जाएगी। इसलिए पिछले सत्तर साल में कोई दिन ऐसा नहीं गया, जब कश्मीर में साजिश नहीं की गई हो। अनुच्छेद 370 एक अस्थायी व्यवस्था थी। उसे क्रमशः हटना ही था और उसे हटाने का काम कांग्रेस सरकारों ने पचास के दशक से ही शुरू कर दिया था। जब वह बजाय उपयोगी होने के नुकसानदेह साबित होने लगा, तब उसके उपबंधों को त्यागने की जरूरत महसूस हुई।
यह एक बड़ी सर्जरी जैसा फैसला है, जिसमें शरीर को बचाने के लिए उसके कुछ अंगों को तकलीफ सहन करनी होती है। यह तकलीफ कितनी देर तक चलेगी, कहना मुश्किल है। सवाल दूसरे हैं। क्या कांग्रेस चाहती है कि कश्मीर में प्रतिरोध हो और हिंसा हो? कश्मीर में हुर्रियत की नई रणनीति के रूप में पत्थर मार आंदोलन सन 2010 में शुरू हुआ था, तब चिदंबरम ही गृहमंत्री थे। वे इस समस्या का समाधान नहीं कर पाए थे और बीमारी साल-दर-साल बढ़ती गई थी। बुरहान वानी उसी दौर की देन था।
यह विषय राष्ट्रीय हितों से जुड़ा है। यदि वे ठीक तरीके से राष्ट्रीय हितों के अनुरूप विचार व्यक्त करेंगे, तभी उनकी राजनीति भी बेहतर होगी, वर्ना उन्हें नुकसान होगा, जो यों भी हो रहा है। कांग्रेस के लिए आने वाला वक्त चुनौतियों से भरा है। चुनौतियाँ बचे-खुचे राज्यों में इज्जत बचाए रखने और पार्टी के भीतर सम्भावित बगावतों से निपटने की भी। पर उससे बड़ी चुनौती पार्टी के वैचारिक आधार को बचाए रखने की है।
सन 2014 के चुनाव की पराजय के बाद से पार्टी यह जानने की कोशिश में है कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी की है? वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने छानबीन करके बताया कि हाँ ऐसा है। जून, 2014 में उन्होंने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को सुधारना होगा। उनके बयान से लहरें उठी थीं, पर जल्द थम गईं। गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से राहुल गांधी ने मंदिरों में जाना शुरू कर दिया। उनके गोत्र तक का प्रचार हुआ, पर छवि नहीं सुधरी।
कांग्रेस की रणनीति यदि साम्प्रदायिकता-विरोध और धर्म निरपेक्षता की है, तो वह उसे साबित करने में विफल रही। उसने अल्पसंख्यकों से रिश्ता बनाने की कोशिश जरूर की, पर इसमें भी सफलता नहीं मिली। ‘प्याज खाई और जूते भी पड़े’ वाली कहावत उसपर चरितार्थ हुई। चिदंबरम साहब यही काम कर रहे हैं। इन बातों से वे मुसलमानों का समर्थन तो जुटा नहीं पाएंगे, पार्टी की छवि जरूर खराब करेंगे। पार्टी क्या यही चाहती है या यह बयान उस अराजकता को दिखा रहा है, जिसमें पार्टी फँसी है?






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