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Saturday, June 29, 2019

कांग्रेस का नया तराना ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!’

अचानक न्यू इंडिया शब्द विवाद के घेरे में आ गया है। हाल में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सेना की ‘डॉग यूनिट' के कार्यक्रम से जुड़ी तस्वीरें शेयर करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट किया, जिसमें लिखा, न्यू इंडिया'। उनका आशय क्या था, इसे लेकर अपने-अपने अनुमान हैं, पर सरकारी पक्ष ने उसे देश की नई व्यवस्था पर तंज माना। लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी के कुछ सदस्यों ने देशद्रोह, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद जैसी बातों को चुनाव में पराजय का कारण माना। हालांकि कांग्रेस ने इस आशय का कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया है, पर परोक्ष रूप से बीजेपी के नए भारत पर लानतें जरूर भेजी जा रही हैं।

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चली बहस के दौरान संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस के सदस्यों ने पिछली सरकार के पाँच साल पर निशाना लगाया। खासतौर से राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा, मैं आपसे निवेदन करता हूं कि नया भारत आप अपने पास रखें और हमें हमारा पुराना भारत दे दें जहां प्‍यार और भाईचारा था। जब मुस्‍लिम और दलित को चोट पहुंचती थी, तब हिंदुओं को पीड़ा का अहसास होता था और जब हिंदुओं की आंखों में कुछ पड़ जाता था तब मुस्लिमों और दलितों की आंखों से आंसू निकल जाते थे।

नहीं चाहिए ऐसा 'नया भारत'
गुलाम नबी आजाद ने कहा, ‘झारखंड लिंचिंग और हिंसा की फैक्‍ट्री बन गया है। हर सप्‍ताह यहां दलित और मुस्‍लिम मारे जा रहे हैं। प्रधानमंत्री, सबका साथ सबका विकास की लड़ाई में हम आपके साथ हैं लेकिन यह जनता को दिखना चाहिए। हम इसे कहीं नहीं देख सकते हैं…नए भारत में लोग एक दूसरे के दुश्मन बन गए हैं। आप जंगल में जानवरों से नहीं डरेंगे लेकिन कॉलोनी में मनुष्यों से डर जाएंगे। हमें वह भारत दे दो जहां हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई एक दूसरे के लिए जीते हैं।
इस पुराने भारत की पुकार पर नरेन्द्र मोदी ने मौका लगते ही प्रहार किया। उन्होंने कहा, वे पुराना भारत वापस चाहते हैं, जिसमें कैबिनेट के प्रस्ताव को प्रेस कांफ्रेंस में फाड़कर फेंक दिया जाता है। जहाँ नौसैनिक पोत का इस्तेमाल निजी यात्राओं के लिए होता था, जहाँ टुकड़े-टुकड़े गिरोह का समर्थन किया जाता था।
हाल में कांग्रेस के राष्ट्रीय मीडिया कोऑर्डिनेटर रचित सेठ ने अपने एक ब्लॉग पोस्ट में लिखा कि कांग्रेस के पराभव के लिए वामपंथी झुकाव वाले सहायक जिम्मेदार हैं। पोस्ट के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही इसे हटा लिया गया, पर उतनी देर में ही यह चर्चा का विषय बन गई। इससे इतना जाहिर हुआ कि जो बात बाहर कही जा रही थी, वह भीतर भी चल रही है।
दंगों का पुराना फसाना
कांग्रेस की यह लाइन आज पहली बार सामने नहीं आई है। इसका विकास पिछले पाँच साल में भी नहीं हुआ है, बल्कि यह बीजेपी के उदयकाल से ही चल रही है। नब्बे के दशक में जब आजादी के बाद दूसरी बार कांग्रेस सत्ताच्युत हुई उसने अपने पुराने भारत का हवाला देना शुरू कर दिया। बेशक विचारधारा के स्तर पर कांग्रेस मुकाबले बीजेपी के बेहतर धरातल पर खड़ी है, पर ऐसा नहीं है कि उसके कार्यकाल में मलियाना और भागलपुर जैसे प्रसंग नहीं हुए हों। सन 1984 का प्रसंग सबसे बड़ा कलंक है। यों भी अस्सी के उत्तरार्ध तक देश में ज्यादातर समय कांग्रेस की सरकारें ही रहीं।
सन 2012 में आरटीआई के तहत पूछे गए एक सवाल के जवाब में गृह मंत्रालय ने जो जानकारी दी थी उसके अनुसार 1984 से लेकर 2012 तक सिर्फ एक साल ऐसा गुजरा, जिसमें 500 से कम दंगे हुए और दंगों में 100 से कम लोगों की मौत हुईं। इन 28 साल में देश में दंगों की कुल 26817 वारदातें हुई हैं, जिनमें 12902 लोगों ने जान गंवाई. ये सरकारी आंकड़े हैं. वास्तव में मरने वालों की संख्या ज्यादा भी हो सकती है। इन 28 साल में से 18 साल देश पर कांग्रेस का राज रहा। इस दौरान कुल 8619 लोगों ने दंगों में जान गंवाई यानी औसतन हर साल 478 लोग दंगों में मारे गए। वहीं दस साल गैर-कांग्रेसी शासन रहा, जिस दौरान 4283 लोग दंगों में मारे गए यानी हर साल औसतन 428 लोगों की दंगों में मौत हुई।
दंगों के आँकड़े कुछ नहीं कहते, सिवाय इसके कि वे हमारे सामाजिक अंतर्विरोधों और प्रशासनिक अकुशलता की कहानी कहते हैं। उससे भी ज्यादा वे राजनीतिक मौकापरस्ती के प्रतीक हैं। यह सवाल अपनी जगह है कि किस पार्टी की भूमिका कम और ज्यादा है। पर कांग्रेस के सामने ज्यादा बड़ा सवाल खड़ा है विचारधारा का। बीजेपी का नया भारत  उसे नामंजूर है, तो इसमें हैरत नहीं। पर जिस पुराने भारत को वापस लाना चाहती है, वह क्या है? नेहरू के समय का या 1991 के बाद का? लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने अपनी हार के कारणों पर शायद अभी विचार नहीं किया है। वह विचार आंतरिक स्तर पर होगा और जरूरी नहीं कि सारी बातें सामने आएं, पर पार्टी को जनता के सामने ईमानदारी से अपने दोषों को स्वीकार करना होगा। उसे यह बताना होगा कि जनता ने उसे अस्वीकार क्यों किया। वर्ना यही माना जाएगा कि गलती कांग्रेस की नहीं जनता की है।
क्यों फेल हुई रणनीति?
दिसम्बर, 2018 में यानी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुई कांग्रेस महासमिति की हुई में दिए गए बयानों और पास किए गए प्रस्तावों पर नजर डालें तो नजर आता है कि पार्टी व्यक्तिगत रूप से नरेन्द्र मोदी पर हमलों को अपनी रणनीति बनाएगी। राफेल मामले को उठाने के बाद राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ नारा दिया था। महासमिति के अधिवेशन में सोनिया गांधी ने ‘अहंकार मुक्त भारत’ बनाने का आह्वान किया। पर यह फौरी टैक्टिक्स थी, दीर्घकालीन विचारधारा नहीं।
ज्यादा बड़ा सवाल था कि कांग्रेस किस विचार की जमीन पर खड़ी है और वह देश को क्या संदेश देना चाहती है? उत्तर के तीन राज्यों में कांग्रेस ने खेती से जुड़े संकट को निशाना बनाया था। इसके अलावा उसने नौजवानों की बेरोजगारी और छोटे व्यापारियों और लघु उद्यमियों की परेशानियों को लक्ष्य किया, जिसमें जीएसटी और नोटबंदी शामिल हैं। खेती की समस्या का उसका समाधान है कर्ज-माफी। पता नहीं, देश के औद्योगीकरण और आर्थिक-विकास का क्या कार्यक्रम उसके पास है?
गुलाम नबी आजाद ने जिस पुराने भारत को वापस पाने की इच्छा व्यक्त की है, क्या उसके लिए उन्हें नरेन्द्र मोदी से याचना करनी होगी? उनके इस अनुरोध को तो वोटर ही पूरा करेगा? उन्हें केवल अपनी परिकल्पना की श्रेष्ठता को साबित करना है। यदि जनता को उनपर भरोसा नहीं है, तो दोष किसका है? क्या पार्टी के पास दूर-दृष्टि है? क्या पार्टी ने क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेताओं को बढ़ावा दिया है? क्या उसके पास आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने की योजना है? बेहतर हो कि अब जल्द से जल्द कांग्रेस महासमिति की बैठक फिर से बुलाई जाए और पार्टी अपनी पराजय के कारणों पर आत्ममंथन करे। पिछले चुनाव में उसकी परीक्षा हो चुकी है। अब अगली परीक्षा पाँच साल बाद है।
राष्ट्रवाद और देशभक्ति
कांग्रेस पार्टी को पाकिस्तान, कश्मीर, नक्सलपंथियों और कुल मिलाकर राष्ट्रवाद के बारे में अपनी धारणाओं पर पुनर्विचार करना होगा। सन 2012 में राहुल गांधी ने खुद पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का श्रेय इंदिरा गांधी को दिया था। एक तरफ कांग्रेसी नेता इंदिरा गांधी की तारीफ इस बात के लिए करते हैं कि उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए, वहीं दूसरी तरफ वे पुलवामा से लेकर बालाकोट के प्रसंग पर अंतर्विरोधी बातें करते हैं। राहुल गांधी के ट्वीट में तंज था या नहीं था, यह अलग बात है, पर उसके केन्द्र में भारतीय सेना थी। इसे आ बैल मुझे मार की श्रेणी में क्यों न रखा जाए?
एक बात साफ है कि पाकिस्तान के प्रति नरमी की नीति सामान्य नागरिक को पसंद नहीं है। पार्टी नेतृत्व चाहे तो अपने सामान्य कार्यकर्ता से पूछना चाहिए कि देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति के बारे में उसकी राय क्या है, जवाब मिल जाएगा। पाकिस्तान के बारे में सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ता की वही राय मिलेगी, जो सामान्य जनता की राय है। नवजोत सिंह सिद्धू और मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं की राय अपने शिखर नेताओं की राय पर आधारित होती है।
दूसरा सवाल कांग्रेस की हिंदू छवि को लेकर है। मई 2014 में लोकसभा चुनाव की  पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी ने आत्म-मंथन शुरू किया। जून में वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को हमें सुधारना होगा। फिर दिसम्बर में खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से कहा है कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप में देखी जा रही है। इसके बाद गुजरात विधानसभा के चुनाव के पहले राहुल गांधी ने मंदिरों की यात्रा शुरू की।  
सॉफ्ट हिंदुत्व
लोकसभा चुनाव के दौरान सॉफ्ट हिंदुत्व की कहानियाँ सुनाई पड़ रही थीं। पर कुल मिलाकर सब कुछ संशय से भरा था। हिंदू छवि को लेकर स्वतंत्रता के बाद से कांग्रेस के भीतर लगातार टकराव चलता रहा है, जिसकी शुरूआत पुरुषोत्तम दास टंडन और जवाहर लाल नेहरू के टकराव से हुई थी। हिंदू छवि की अवहेलना और मुस्लिम कट्टरपंथ के तुष्टीकरण की नीति को लेकर पार्टी के भीतर आज की बहस नहीं है।
हाल में रशीद किदवई ने अपने लेख में नब्बे के दशक में कांग्रेस के प्रवक्ता रहे वीएन गाडगिल के एक बयान को उधृत किया है। उन्होंने कहा, जैसे ही शाही इमाम कोई बात कहते हैं पार्टी ऐसे व्यवहार करती है गोया ईश्वर ने कुछ कह दिया है। क्या अल्पसंख्यक माने सिर्फ मुसलमान हैं? बौद्ध और सिख नहीं? जब कश्मीर में 36 सिख मारे गए एक भी कांग्रेसी ने शोक प्रकट नहीं किया। जम्मू-कश्मीर में एक भी बौद्ध राज्य सचिवालय में काम नहीं कर रहा है। राज्य लोकसेवा आयोग के माध्यम से चुने गए एकमात्र बौद्ध कर्मचारी को सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए धर्मांतरण करना पड़ा…कांग्रेस इस पर खामोश रही। ये बातें कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कही थीं। यह केवल उनके मन की बात नहीं रही होगी।

                                                                                              

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