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Saturday, June 15, 2019

बंगाल में हिंसा माने राजनीति, राजनीति माने हिंसा!


पश्चिम बंगाल के चुनावों में हिंसा पहले भी होती रही है, पर इसबार चुनाव के बाद भी हिंसा जारी है। चुनाव परिणाम आने के बाद कम से कम 15 लोगों की मौत की पुष्ट खबरें हैं। ज्यादातर राजनीतिक मौतें हैं। इस हिंसा के कारणों का विश्लेषण करना सरल काम नहीं है, पर इस राज्य की पिछले सात-दशक के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो यह स्पष्ट है कि इस राज्य में हिंसा का नाम राजनीति और राजनीति के मायने हिंसा हैं। सन 2011 में जब अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को जबर्दस्त जीत दिलाकर जब ममता बनर्जी सत्ता के घोड़े पर सवार हुईं थीं, तब उनका ध्येय-वाक्य था पोरीबोर्तन। आज उनके विरोधी इस ध्येय-वाक्य से लैस होकर उनके घर के दरवाजे पर खड़े हैं। बंगाल की हिंसा के पीछे एक बड़ा कारण है यहाँ के निवासियों की निराशा। सत्ताधारियों की विफलता।
देश में आधुनिक राजनीतिक-प्रशासनिक और शैक्षिक संस्थाओं का सबसे पहले जन्म बंगाल में हुआ। पर साठ और सत्तर के दशक में इसी बंगाल में नक्सलबाड़ी ने देश का ध्यान खींचा था। उसके केन्द्र में हिंसा थी। बंगाल की वर्तमान हिंसा की जड़ों में उस वामपंथी हिंसा की क्रिया-प्रतिक्रियाएं ही हैं।
ममता की हिंसा
ममता बनर्जी स्वयं हिंसा के इस पुष्पक विमान पर सवार होकर आईं थीं। उन्होंने सीपीएम की हिंसा पर काबू पाने में सफलता प्राप्त की थी। उसका आगाज़ सिंगुर के आंदोलन में हुआ था। सीपीएम ने राज्य की बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में राज्य के औद्योगीकरण का जो रास्ता खोजा था, ममता बनर्जी ने उसके छिद्रों के सहारे सत्ता के गलियारों में प्रवेश कर लिया था। आज उनके विरोधी उनके ही औजारों को हाथ में लिए खड़े हैं। सिंगुर में ही उनका राजनीतिक आधार कमजोर होता नजर आ रहा है। हाल में उन्होंने पार्टी की एक आंतरिक बैठक में कहा कि लोकसभा चुनाव में सिंगुर की हार शर्मनाक है। हमने सिंगुर को खो दिया। सिंगुर, हुगली लोकसभा सीट का हिस्सा है। वहाँ इसबार बीजेपी की लॉकेट चटर्जी ने जीत दर्ज की है।

बंगाल भाजपा के वरिष्ठ नेता मुकुल राय कभी ममता बनर्जी के दाएं हाथ का काम करते थे। उन्होंने हाल में कहा कि सिंगुर आंदोलन तृणमूल की सबसे बड़ी भूल थी। इस आंदोलन के कारण उद्योग जगत में बंगाल की नकारात्मक छवि बन गई। अब इस बात को सिंगुर की मिट्टी ने भी स्वीकार कर लिया है। सिंगुर में न आज खेती हो रही है और न कारखाना ही लग पाया है। सिंगुर के लोगों ने तृणमूल की आंदोलनकारी नीति को खारिज कर दिया है।
सवाल है कि क्या भाजपा भी बंगाल में लाठी-डंडे के जोर पर राजनीति करेगी? भविष्य में क्या होगा, पता नहीं, पर इस वक्त तृणमूल का जवाब उसी भाषा में देने की ताकत केवल बीजेपी के पास ही नजर आती है। उधर ममता बनर्जी ने राजनीति की जो परिभाषा तय कर रखी है, वे उसे बदलने को तैयार ही नहीं हैं। सरकार ने पूँजी निवेश की आकर्षक योजनाएं बनाईं हैं, पर जगह-जगह हफ्ता वसूली वाले गिरोह सक्रिय हैं, जिन्हें प्रशासनिक वरद-हस्त प्राप्त है। बहरहाल ममता की परीक्षा विधानसभा के आगामी चुनाव में होगी, जो दो साल बाद होने वाले हैं। वर्तमान हिंसा उन चुनावों की पूर्व-पीठिका जैसी लगती है।
पंचायत चुनाव में हिंसा
पिछले साल मई में जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था, पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हो रहे थे। मीडिया पर कर्नाटक छाया था, बंगाल पर राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान नहीं था, जबकि वहाँ लोकतंत्र के नाम पर हिंसा का तांडव चल रहा था। पुरुलिया जिले में बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या का मामला सामने आने पर इसकी वीभत्सता का एहसास हुआ। 20 साल के त्रिलोचन महतो की लाश घर के पास ही नायलन की रस्सी ने लटकती मिली। महतो ने जो टी-शर्ट पहनी थी, उसपर एक पोस्टर चिपका मिला जिसपर लिखा था, बीजेपी के लिए काम करने वालों का यही अंजाम होगा।
पंचायत चुनाव के दौरान भारी खून-खराबा हुआ। 60,000 से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के बावजूद उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, पूर्वी मिदनापुर, बर्दवान, नदिया, मुर्शिदाबाद और दक्षिणी दिनाजपुर जिलों में हिंसक झड़पें हुई, इनमें कम से कम एक दर्जन लोगों के मरने की खबरें आईं। इस चुनाव की खासियत थी मतदान से पहले ही तृणमूल कांग्रेस के एक तिहाई प्रत्याशियों का निर्विरोध चुनाव। 58 हजार 692 सीटों में 20,076 पर टीएमसी ने बगैर चुनाव लड़े ही कब्जा कर लिया। पिछले 40 साल में पंचायत चुनाव में निर्विरोध चुने जाने का यह सबसे बड़ा रिकॉर्ड था।
राज्य में पंचायत चुनाव में निर्विरोध सदस्यों का खेल 1978 से चला आ रहा है। तब से लेकर 2017 तक के निर्विरोध चुने गए उम्मीदवारों की संख्या 23,185 के आसपास रही है। पर नई बात यह थी कि 1978 से 2017 तक जितने उम्मीदवार निर्विरोध चुने गए, करीब उतने अकेले पिछले साल चुने गए। बंगाल में साठ के दशक से वामपंथी राजनीति के उभार के बाद से ग्रामीण इलाकों में जबर्दस्त हिंसा का बोलबाला है। सन 1977 के बाद से 2011 तक 34 साल तक बंगाल पर वाममोर्चे का निर्बाध शासन रहा। इस दौरान गाँव-गाँव में सीपीएम की शाखाएं स्थापित हो गईं और राजनीति की जड़ें बहुत गहराई से प्रवेश कर गईं। वामपंथी विचार-दृष्टि के कारण औद्योगिक घराने राज्य छोड़कर भागने लगे। जो बंगाल भारत में औद्योगिक क्रांति का वाहक था, वह नए उद्योगों के लिए तरसने लगा।
सीपीएम का पराभव
बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने सन 2011 में वैकल्पिक राजनीति के रूप में प्रवेश किया था। तृणमूल का नारा था ‘परिवर्तन।’ बहरहाल राज्य में सत्ता परिवर्तन तो हुआ, पर सामाजिक जीवन में बड़ा परिवर्तन नजर नहीं आया। तृणमूल कांग्रेस की हिंसक गतिविधियों के निशाने पर पहले तो  सीपीएम और कांग्रेस थीं। बीजेपी से तो अब मुकाबला हुआ है। ग्रामीण इलाकों में सीपीएम की पकड़ काफी मजबूत है। अब ये कार्यकर्ता बीजेपी में शामिल होते जा रहे हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, वर्ष 2016 में बंगाल में राजनीतिक झड़पों की 91 घटनाएं हुईं, जिनमें 205 लोग हिंसा के शिकार हुए। इससे पहले 2015 में 131 घटनाएं दर्ज की गई थीं, जिनमें 184 लोग इसके शिकार हुए थे। सन 1997 में वाममोर्चा सरकार के गृहमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विधानसभा मे जानकारी दी थी कि वर्ष 1977 से 1996 तक पश्चिम बंगाल में 28,000 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गए थे।
बंगाल की इस हिंसा पर शोध कर रहे सुजात भद्र के अनुसार , शोध करते हुए मैंने जाना कि भारत में सबसे ज्यादा राजनीतिक हिंसा की घटनाएं अगर कहीं हुई हैं, तो वह बंगाल है। इस हिंसा के पीछे तीन बड़ी वजहें मानी जा रही हैं- बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व और नई राजनीतिक शक्तियों का प्रवेश। इसमें साम्प्रदायिकता का एक तत्व और जुड़ गया है। रोजगार के अवसर नहीं होने के कारण बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टियों से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों के ठेके मिल सकें। हफ़्ता-वसूली भी उनकी कमाई का जरिया है। यानी राज्याश्रय में अपराधों की छूट।
औद्योगिक पटरा
बंगाल की इस हिंसा के पीछे कोई विचारधारा नहीं है। यहाँ की वामपंथी सरकारें तमाम सैद्धांतिक बातें करती रहीं, पर उन्होंने नौजवानों को रोजगार दिलाने के रास्ते नहीं खोजे। और जब उनकी सरकार ने इस दिशा में सोचना शुरू किया, ममता बनर्जी तकरीबन वैसी ही राजनीति लेकर सामने आईं, जैसी वामपंथी सरकारें चला रहीं थीं। जिन किशोरों के माध्यम से यह हिंसा हो रही है, उन्हें उकसाने के लिए जिन बातों का सहारा लिया जा रहा है, वह और भी खतरनाक है। इस राजनीतिक हिंसा ने समाज को साम्प्रदायिक खानों में बाँट दिया है।
सन 1977 में वाम मोर्चा सरकार बनाने के पहले सीपीएम बंगाल में संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों का नेतृत्व कर चुकी थी। 1967 से 1970 के बीच माकपा ने जिस तेज भूमि-सुधार की योजना बनाई उसे केन्द्र सरकार ने सफल नहीं होने दिया और दोनों बार संयुक्त मोर्चा सरकारें बर्खास्त कीं। सीपीएम पर दोहरा दबाव था। एक ओर इसी पार्टी से टूटे लोगों ने सीपीआई(माले) बनाई थी, जिसका दबाव था कि भूमि पर कब्जा तेजी से हो। वहीं संसदीय राजनीति का दबाव था कि यह काम धीमे और शांतिपूर्ण तरीके से हो। मार्च 1970 में दूसरी सरकार की बर्खास्तगी के बाद सात साल तक माकपा ने गाँवों में संगठित काम किया। इसका लाभ उसे 1977 के चुनाव में मिला, पर बंगाल का औद्योगिक विकास निगेटिव हो चुका था।
वामपंथी अंतर्विरोध
वाम मोर्चा के राजनैतिक अंतर्विरोध बढ़ते गए। सीपीएमएल के साथ उसके सबसे अच्छे कार्यकर्ता चले गए। वे अब विरोधी थे इसलिए उनका दमन भी करना पड़ा। पार्टी संगठन गाँव-गाँव में फैल गया। उसने एक नई संस्कृति को जन्म दिया। जो हमारे साथ हैं वे दोस्त। और जो हमारे साथ नहीं वे दुश्मन हैं। प्रशासन को पार्टी प्रशासन के अधीन कर दिया गया। दरोगा, मुंशी, अध्यापक और डॉक्टर सबने पार्टी की शरण ली। नहीं ली तो दुश्मनी मोल ली। यहीं से ममता बनर्जी के उद्भव की कथा शुरू हुई।
सन 2006 के चुनाव में वाम मोर्चा को जबर्दस्त जीत मिली। इसके बाद प्रदेश के औद्योगीकरण और आधुनिकीकरण का कार्यक्रम शुरू हुआ। आईटी सेक्टर को हड़तालों से बचाने के लिए उसे ट्रेड यूनियनों से बाहर रखा गया। बंगाल के औद्योगिक विकास को रोकने में जिस पार्टी का हाथ था, वही अब ज़बरन औद्योगीकरण का फॉर्मूला लेकर आई थी। सबसे पहले नंदीग्राम में राज्य-प्रायोजित हिंसा का खूनी रूप देखने को मिला। उसके बाद सिंगुर में टाटा की नैनो का कारखाना वापस गया। जंगल महल में माओवादियों के साथ माकपा कार्यकर्ताओं के टकराव ने ऐसी शक्ल ले ली कि वहाँ चुनाव-बूथ बनाना मुश्किल हो गया। उसी इलाके में 2011 में 85 फीसदी तक मतदान हुआ। माकपा के प्रति गुस्से का धधकता ज्वालामुखी बुरी तरह फूट पड़ा।
पत्रकार शेखर गुप्ता ने 2011 के चुनाव के दौरान बंगाल के इलाकों का दौरा करने के बाद लिखा कि वहाँ के गाँवों में भूख जैसी चीज़ दिखाई नहीं पड़ती। कोई भिखारी नहीं। हैंड पम्प एकदम चौकस चलते हैं। प्राइमरी स्कूल की बिल्डिंग चौकस, अस्पताल चौकस, सड़कें ठीक-ठाक, सब लोग ठीक से कपड़े पहने, एक भी व्यक्ति नंगे पैर नहीं। फिर लोग नाराज़ क्यों हैं?
जल्दी ही बात साफ हो गई। जिस इलाके में पानी नहीं था वहाँ पानी पहुँच गया। टंकी पर पार्टी का लाल झंडा लग गया। जो हमारे साथ हैं उन्हें मिलेगा पानी। माकपा कार्यकर्ताओं ने पूरे बंगाल में अपने और पराए की संस्कृति को जन्म दिया। बदलाव यों ही नहीं आया। ममता बनर्जी ने कहा, यह आज़ादी की लड़ाई है। 2011 के चुनाव के पहले बंगाल के गाँवों में कई जगह खूनी मुठभेड़ें हुईं। अंततः तृणमूल कांग्रेस ने सीपीएम के वर्चस्व को तोड़ा। पर उसने कोई नई व्यवस्था कायम नहीं की। बंदूक संस्कृति फिर भी जारी रही। उसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं।

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