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Monday, May 6, 2019

मिट्टी के लड्डू और पत्थर के रसगुल्ले यानी मोदी और उनके विरोधियों के रिश्ते


पिछले पाँच साल में ही नहीं, सन 2002 के बाद की उनकी सक्रिय राजनीति के 17 वर्षों में नरेन्द्र मोदी और उनके प्रतिस्पर्धियों के रिश्ते हमेशा कटुतापूर्ण रहे हैं। राजनीति में रिश्तों के दो धरातल होते हैं। एक प्रकट राजनीति में और दूसरा आपसी कार्य-व्यवहार में। प्रकट राजनीति में तो उनके रिश्तों की कड़वाहट जग-जाहिर है। यह बात ज्यादातर राजनेताओं पर, खासतौर से ताकतवर नेताओं पर लागू होती है। नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंह राव, अटल बिहारी और मनमोहन सिंह सबसे नाराज लोग भी थे। फिर भी उस दौर का कार्य-व्यवहार इतना कड़वा नहीं था। मोदी और उनके प्रतिस्पर्धियों के असामान्य रूप से कड़वे हैं। मोदी भी अपने प्रतिस्पर्धियों को किसी भी हद तक जाकर परास्त करने में यकीन करते हैं। यह भी सच है कि सन 2007 के बाद उनपर जिस स्तर के राजनीतिक हमले हुए हैं, वैसे शायद ही किसी दूसरे राजनेता पर हुए होंगे। शायद इन हमलों ने उन्हें इतना कड़वा बना दिया है।  
विवेचन का विषय हो सकता है कि मोदी का व्यक्तित्व ऐसा क्यों है?   और उनके विरोधी उनसे इस हद तक नाराज क्यों हैं? उनकी वैचारिक कट्टरता का क्या इसमें हाथ है या अस्तित्व-रक्षा की मजबूरी? यह बात उनके अपने दल के भीतर बैठे प्रतिस्पर्धियों पर भी लागू होती है। राजनेताओं के अपने ही दल में प्रतिस्पर्धी होते हैं, पर जिस स्तर पर मोदी ने अपने दुश्मन बनाए हैं, वह भी बेमिसाल है।

पत्थर की मिठाई
हाल में फिल्म कलाकार अक्षय कुमार ने टीवी इंटरव्यू में मोदी से पूछा, विपक्ष के नेताओं के साथ आपके कैसे रिश्ते हैं? इसपर मोदी ने कहा, विपक्षी दलों में भी मेरे बहुत अच्छे मित्र हैं। जब मैं सीएम भी नहीं था, किसी काम से मैं संसद में गया था। गुलाम नबी आजाद और मैं गप्पें मार रहे थे। मीडिया वालों ने पूछा आप आरएसएस वाले हो, गुलाम नबी से आपकी दोस्ती कैसे है? इस पर गुलाम नबी ने बहुत अच्छा जवाब दिया कि बाहर जो आप देखते हो ऐसा नहीं है। एक परिवार के रूप में जैसे सभी दलों के नेता जुड़े हुए हैं, उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।' उनके इस जवाब में यह बात भी शामिल थी कि ममता दीदी साल में आज भी मेरे लिए एक-दो कुर्ते भेजती हैं। साल में एक-दो बार मिठाई जरूर भेज देती हैं।
उनके इस वक्तव्य पर ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया असाधारण रूप से कटुता भरी थी। सन 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के बाद जैसी प्रतिक्रिया नीतीश कुमार की थी, वह भी इसी प्रकार की वितृष्णा को व्यक्त करती थी। उन्होंने मोदी को ‘सांप्रदायिक' व्यक्ति का खिताब देकर उनके साथ मंच साझा करने से इनकार कर दिया था। हालांकि उनकी वह नाराजगी भी इतिहास बन चुकी है, पर बात इतनी है कि मोदी के प्रतिस्पर्धी कड़वाहट के शिखर पर होते हैं। वजह मोदी का व्यक्तित्व है या विचारधारा या दोनों बातें?
आडवाणी की नाराजगी
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी कुछ साल पहले तक काफी सक्रिय थे। इसी सक्रियता में उन्होंने 2014 के चुनाव के पहले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने का विरोध किया था। इस विरोध का परिणाम यह हुआ कि उनका सूर्य समय से पहले अस्ताचल को चला गया। ऐसा उनके साथ ही नहीं हुआ। मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी जैसे वरिष्ठ नेताओं के साथ भी हुआ। लालकृष्ण आडवाणी हालांकि अपने मन की कटुता का इज़हार नहीं करते, पर 4 अप्रैल को उन्होंने अपने ब्लॉग में एक पोस्ट लिखकर इसे व्यक्त कर भी दिया। आडवाणी जी लम्बे अरसे तक ब्लॉग लेखन करते रहे, पर पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उन्होंने ब्लॉग लिखना बंद कर दिया।
उनकी अंतिम पोस्ट 23 अप्रैल, 2014 को लिखी गई थी। उस पोस्ट के पाँच साल बाद 4 अप्रैल, 2019 को लिखी गई यह पोस्ट केवल इस कटुता को व्यक्त नहीं करती है, बल्कि मोदी-सिद्धांत पर चोट करती है। पाँच सौ से अधिक शब्दों के अंग्रेज़ी में लिखे इस ब्लॉग की हेडलाइन है 'नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट' (यानी पहले देश, फिर पार्टी, आख़िर में ख़ुद)। इसमें आडवाणी जी ने इशारों-इशारों में एक बात कही है, भारतीय राष्ट्रवाद की हमारी अवधारणा में, हमने कभी भी उन्हें, 'राष्ट्र विरोधी' नहीं कहा, जो राजनीतिक रूप से हमसे असहमत थे।
हालांकि नरेन्द्र मोदी ने इस ब्लॉग पोस्ट को अपने ट्वीट से नत्थी करके कहा कि आडवाणी जी ने बीजेपी के विचारों का सार बताया है। पर इस पोस्ट के शब्दों (सेल्फ लास्ट और 'हमसे असहमत राष्ट्र विरोधी नहीं') पर गौर करें, तो उनके गहरे अर्थ हैं। आडवाणी ने यह बात केवल बीजेपी के स्थापना दिवस के संदर्भ में ही नहीं लिखी होगी। पिछले पाँच साल में उन्होंने कुछ नहीं लिखा। इस पोस्ट को लिखे भी एक महीना हो रहा है, दूसरी पोस्ट भी नहीं लिखी।
विरोधी दलों से रिश्ते
आंतरिक प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले नरेन्द्र मोदी के बाहरी प्रतिस्पर्धी मुखर हैं और उनपर हमले करने में उन्होंने कभी गुरेज नहीं किया। विरोधी दलों के साथ सत्ताधारियों की दोस्ती हो भी नहीं सकती, पर पिछले पाँच साल में यह कड़वाहट कई बार असाधारण रूप से सीमाएं पार कर गई। जून, 2014 में संसद के पहले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण और धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस के जवाब में मोदी ने कहा, हम पिछली सरकारों के अच्छे काम-काम को आगे बढ़ाएंगे। उन्होंने विपक्ष की ओर देखते हुए कहा कि हमें आपका समर्थन भी चाहिए। हमसे पहले की सरकारों ने भी अच्छा काम किया है। हम उसमें कुछ नया जोड़ने की कोशिश करेंगे। यानी यूपीए की कल्याणकारी योजनाएं जारी रहेंगी।
मोदी के इस भाषण की भावना जो भी रही हो, व्यवहार में पिछले पाँच साल में ऐसा कुछ नजर नहीं आया। सरकार और विरोधी दलों के बीच कड़वाहट के स्वाभाविक कारण लगातार बने रहे। बीजेपी को जो स्पष्ट बहुमत मिला था, उसे उनके विरोधियों ने स्वीकार नहीं किया। खासतौर से कांग्रेस, इतनी बड़ी पराजय को स्वीकार नहीं कर पाई। पहले साल कांग्रेस अपनी भारी पराजय के कारणों को ही समझने में लगी रही। उस साल संसद के वर्षा सत्र में खामोशी रही, पर नवम्बर आते-आते कांग्रेस ने भावी रणनीति बनानी शुरू कर दी। यह तय हुआ कि विरोधी दलों को साथ लेकर बीजेपी के खिलाफ लड़ाई शुरू करनी होगी।
आक्रामक गठबंधन राजनीति
जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती के सिलसिले में 17-18 नवम्बर को हुई एक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में इस विरोधी-एकता के सूत्र तैयार हुए। इस गोष्ठी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निमंत्रित नहीं किया गया। यह एक प्रकार से लड़ाई की प्रतीकात्मक शुरूआत थी। इसके कुछ महीने बाद राहुल गांधी एक लम्बे अज्ञातवास पर चले गए और जब लौटे तो कांग्रेस आक्रामक मुद्रा में थी, जिसकी परिणति संसद में 2015 के वर्षा-सत्र में दिखाई पड़ी। मध्य प्रदेश के व्यापम और विदेशमंत्री सुषमा स्वराज और ललित मोदी के सम्पर्कों को निशाना बनाकर कांग्रेस पार्टी ने वह सत्र चलने नहीं दिया। इस रणनीति के कारण भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन कराने की सरकारी कोशिशें पानी में चली गईं। यह भी लग रहा था कि जीएसटी विधेयक पास कराना सम्भव नहीं होगा।
नवम्बर 2015 में संसद के शीत सत्र के पहले दो दिन विशेष चर्चा के लिए रखे गए थे। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने भारतीय संविधान को स्वीकार किया था। उसकी याद में इस सत्र के पहले दो दिन विशेष चर्चा के लिए रखे गए थे। इस चर्चा में बड़ी अच्छी बातें हुईं और 27 की शाम नरेन्द्र मोदी के साथ सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की मुलाकात हुई। संसद में नरेन्द्र मोदी ने इस बात का संकेत दिया कि वे आमराय बनाकर काम करना पसंद करेंगे। उन्होंने देश की बहुल संस्कृति को भी बार-बार याद किया।
तानाशाही बनाम खानदानवाद
धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता या कि कांग्रेस लगातार आक्रामक होकर मोदी सरकार पर प्रहार करती रहेगी। फासीवाद, तानाशाही जैसे जुम्लों के जवाब में बीजेपी ने कांग्रेस विहीन भारत का नारा दिया और खानदानवाद पर हमले किए। सन 2016 में सितम्बर और नवम्बर की दो घटनाओं ने एक तरफ देशभर का ध्यान खींचा, वहीं मोदी सरकार और विरोधी दलों के बीच खाई बढ़ा दी। 29 सितम्बर को हुई सर्जिकल स्ट्राइक विवाद का विषय बनी। उसके बाद नोटबंदी ने एकबारगी विरोधी दलों को स्तब्ध कर दिया। दिसम्बर के महीने में तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने इस मौके का लाभ उठाते हुए नोटबंदी के खिलाफ अभियान छेड़ा, जो आज विरोधी दलों का सम्बल बना है।
सन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मोदी की परीक्षा की घड़ी थी। नोटबंदी के दुष्प्रभाव से सरकार किसी तरह बच गई। उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस का गठबंधन भी निष्प्रभावी रहा। पर इस घटनाक्रम से राजनीति में कड़वाहट और ज्यादा घुल गई। कांग्रेस ने नोटबंदी के खिलाफ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को खड़ा किया। इसपर नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह पर ‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के रूपक का इस्तेमाल किया। इसे ने ‘तल्ख और बेहूदा’ बताया। कड़वाहट एक और पायदान ऊपर आ गई। कांग्रेस पार्टी ने इसके बाद राफेल सौदे को निशाना बनाने का फैसला किया। नरेन्द्र मोदी ने अपने को कहीं जनता के हितों का रक्षक चौकीदार बताया, तो राहुल गांधी ने चौकीदार चोर है का नारा दे दिया। दोनों तरफ से सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है। लोकसभा चुनाव के चार दौर पूरे हो चुके हैं और यह कड़वाहट उफान पर है। फिलहाल इसमें किसी किस्म के उतार की सम्भावना नजर भी नहीं आ रही है, बल्कि दोनों पक्षों की बुनियाद कड़वाहट पर ही टिकी है। इस कड़वाहट का सबसे ताकतवर हथियार है मीडिया और फ़ेकन्यूज़। रिश्ते सुधरने की कोई उम्मीद नहीं।




2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-05-2019) को "पत्थर के रसगुल्ले" (चर्चा अंक-3328) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-05-2019) को "पत्थर के रसगुल्ले" (चर्चा अंक-3328) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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