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Friday, May 10, 2019

इंसाफ के मंदिर की पवित्रता का सवाल


उच्चतम स्तर पर देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को लेकर पिछले कुछ वर्षों में जो सवाल खड़े हो रहे हैं, उनके जवाब देने की घड़ी आ गई है. ये सवाल परेशान करने वाले जरूर हैं, पर शायद इनके बीच से ही हल निकलेंगे. इन सवालों पर राष्ट्रीय विमर्श और आमराय की जरूरत भी है. हाल के वर्षों में न्यायपालिका से जुड़ी जो घटनाएं हुईं हैं, वे विचलित करने वाली हैं. लम्बे अरसे से देश की न्याय-व्यवस्था को लेकर सवाल हैं. आरोप है कि कुछ परिवारों का इस सिस्टम पर एकाधिकार है. जजों और वकीलों की आपसी रिश्तेदारी है. सारी व्यवस्था उनके बीच और उनके कहने पर ही डोलती है.
पिछले साल जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने एक संवाददाता सम्मेलन में न्यायपालिका के भीतर के सवालों को उठाया था. यह एक अभूतपूर्व घटना थी. देश की न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग भी पिछले साल लाया गया. जज लोया की हत्या को लेकर गम्भीर सवाल खड़े हुए और अब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं. सवाल दो हैं. क्या यह सब अनायास हो रहा है या किसी के इशारे से यह सब हो रहा है? खासतौर से यौन उत्पीड़न का मामला उठने के बाद ऐसे सवाल ज्यादा मौजूं हो गए हैं. अब चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने खुद इस सवाल को उठाया है. इस मामले ने व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर जो सवाल उठाए हैं उनके जवाब मिलने चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक समिति ने चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोपों को निराधार पाया है. इसके बाद भी यह मामला खत्म नहीं हुआ है. इस मामले की शिकायत करने वाली महिला ने आंतरिक समिति के निष्कर्षों को 'अन्याय' बताया है. उन्होंने कहा, "मुझे जो डर था वही हुआ और देश के उच्चतम न्यायालय से इंसाफ़ की मेरी सभी उम्मीदें टूट गईं हैं." इस क्लीन चिट का काफी विरोध हो रहा है. सबसे बड़ी बात है कि सुप्रीम कोर्ट के बाहर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. अनेक महिला प्रदर्शनकारी हिरासत में ली गईं हैं. यह परिस्थिति न्याय-व्यवस्था की साख को कम करती है. सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को क्या बेहतर तरीके से सुलझा नहीं कर सकता था? सड़क पर प्रदर्शन क्या अदालत की साख को नहीं गिरा रहे हैं?
शिकायतकर्ता इस मामले पर आगे क्या करेंगी, कहना मुश्किल है, पर देखना होगा कि इस प्रकरण के पीछे अदालत के खिलाफ साजिश के अंदेशों की जाँच किस दिशा में जाएगी. अदालत ने उसकी जाँच के आदेश भी दिए हैं. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस एके पटनायक इस मामले की जाँच करेंगे. जाँच में सीबीआई, आईबी और दिल्ली पुलिस को मदद करने के निर्देश दिए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट के वकील उत्सव बैंस के दावा किया था कि सीजेआई के खिलाफ साजिश रची जा रही है. बैंस ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करके दावा किया था कि सीजेआई को यौन शोषण के मामले में फँसाकर उनके खिलाफ साजिश रची जा रही है.
क्या यह मामला वकीलों की आपसी प्रतिस्पर्धा का परिणाम है? गत 25 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिस तरीके से इस संस्था की छवि बनाई जा रही है, हम उससे नाराज हैं. इस संस्था को बदनाम करने के लिए सोचा-समझा हमला किया जा रहा है. कोर्ट ने यह भी कहा कि तीन से पांच प्रतिशत वकील ऐसे हैं, जो इस महान संस्था को बदनाम कर रहे हैं. न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी. अब देखना होगा कि न्यायालय में ‘फिक्सिंग' के दावों पर सुनवाई किस दिशा में जाएगी. ‘फिक्सिंग' के बारे में दाखिल हलफनामे में लगाए गए आरोप और कुछ नामों का उल्लेख है.
यौन उत्पीड़न के आरोप को लेकर आंतरिक समिति ने अपनी जाँच रिपोर्ट वरिष्ठता क्रम में नंबर दो जज, जस्टिस मिश्रा के अलावा एक कॉपी जस्टिस रंजन गोगोई को भी सौंपी है. शिकायतकर्ता महिला को रिपोर्ट की प्रति नहीं दी गई है. कोर्ट की ओर से जारी विज्ञप्ति में इंदिरा जयसिंह बनाम सुप्रीम कोर्ट (2003) 5 एससीसी 494 मामले का हवाला देते हुए कहा गया है कि आंतरिक प्रक्रिया के तहत गठित समिति की रिपोर्ट सार्वजनिक करना अनिवार्य नहीं है.
महिला का कहना है कि रिपोर्ट देखे बिना वे नहीं जान सकतीं कि उनके आरोपों को किस बुनियाद पर ख़ारिज किया गया है. जाँच के दौरान वे दो बार आंतरिक समिति के सामने उपस्थित हुईं, तीसरी बार उन्होंने जाने से इनकार कर दिया. उनका कहना था कि उन्हें अपने वकील को साथ ले जाने की अनुमति नहीं मिली. इसके पहले तीन सदस्यीय समिति को लिखे अपने पत्र में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने सुझाव दिया था कि इस मामले की सुनवाई फुल कोर्ट में होनी चाहिए.
जस्टिस चंद्रचूड़ ने समिति का दायरा बढ़ाने के लिए एक बाहरी सदस्य को भी शामिल करने की मांग की थी. इसके लिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की तीन रिटायर्ड महिला जजों के नाम भी सुझाए थे. हालांकि समिति में दो महिला जज थीं. आंतरिक समिति में जस्टिस बोबडे के अलावा जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थीं. सम्बद्ध महिला के परिवार के उत्पीड़न का मामला भी शामिल है. उसे न केवल सेवा से बर्खास्त किया गया, उसके पति और रिश्तेदारों को परेशान किया गया. केवल अदालत या उसके दफ्तर की ही बात नहीं है. दिल्ली पुलिस की भूमिका पर भी सवाल है. इन सभी मामलों पर विचार किया जाना चाहिए. दरअसल इससे जुड़े कई मामले हमारी पूरी व्यवस्था के दोषों को उजागर करते हैं. सुप्रीम कोर्ट पर अब इन सारी बातों पर व्यवस्था देने की जिम्मेदारी है.



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