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Wednesday, February 6, 2019

सीबीआई और पुलिस का राजनीतिकरण

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सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता के पुलिस-कमिश्नर राजीव कुमार की गिरफ्तारी रोकने के बावजूद सीबीआई की पूछताछ से उन्हें बरी नहीं किया है. यह पूछताछ होगी. इस मामले में किसी की जीत या हार नहीं हुई है. टकराव फौरी तौर पर टल गया है, पर उसके बुनियादी कारण अपनी जगह कायम हैं. राजनीतिक मसलों में सीबीआई के इस्तेमाल का आरोप देश में पहली बार नहीं लगा है, और लगता नहीं कि केन्द्र की कोई भी सरकार इसे बंधन-मुक्त करेगी. उधर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद राज्य सरकारें पुलिस-सुधार को तैयार नहीं हैं. वे पुलिस का इस्तेमाल अपने तरीके से करना चाहती हैं. राजनीतिकरण इधर भी है और उधर भी.
राजीव कुमार के घर पर छापामारी के समय और तौर-तरीके के कारण विवाद खड़ा हुआ है. सीबीआई जानना चाहती है कि विशेष जाँच दल के प्रमुख के रूप में उन्होंने सारदा घोटाले की क्या जाँच की और उनके पास कौन से दस्तावेज हैं. इस जानकारी को हासिल करने कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए और उसमें अड़ंगे लगाना गलत है, पर देखना होगा कि सीबीआई का तरीका क्या न्याय संगत था? क्या उसने वे सारी प्रक्रियाएं पूरी कर ली थीं, जो इस स्तर के अफसर से पूछताछ के लिए होनी चाहिए? इन बातों पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला पूरी सुनवाई के बाद ही आएगा.
केन्द्र और ममता बनर्जी दोनों इस मामले का राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं. बीजेपी बंगाल में प्रवेश करके ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटें हासिल करने की कोशिश में है, वहीं ममता बनर्जी खुद को बीजेपी-विरोधी मुहिम की नेता के रूप में स्थापित कर रहीं हैं. हाल में उनकी सरकार ने बीजेपी को बंगाल में रथ-यात्राएं निकालने से रोका है. बीजेपी बंगाल के ग्रामीण इलाकों में प्रवेश कर रही है. तृणमूल-विरोधी सीपीएम के कार्यकर्ता बीजेपी में शामिल होते जा रहे हैं.
संघीय-व्यवस्था में केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच इस प्रकार का विवाद अशोभनीय है. देश की जिन कुछ महत्वपूर्ण संस्थाओं को जनता की जानकारी के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया है, उनमें सीबीआई भी है. इसके पीछे राष्ट्रीय सुरक्षा और मामलों की संवेदनशीलता को मुख्य कारण बताया जाता है, पर जैसे ही इस संस्था को स्वायत्त बनाने और सरकारी नियंत्रण से बाहर रखने की बात होती है, सभी सरकारें हाथ खींच लेती हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने मई 2013 में जब इस संस्था को पिंजरे में कैद तोता कहा था, तब यूपीए सरकार थी. जिस वक्त लोकपाल विधेयक पर संसद में बहस चल रही थी, तब भी सीबीआई की स्वायत्तता के सवाल उठे थे. विडंबना है कि संसद से कानून पास होने के पाँच साल बाद भी देश में लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो पाई है. सवाल है कि क्या सीबीआई ने अचानक छापा मारा? सीबीआई ने 18 अगस्त, 2017 को पश्चिम बंगाल के डीजीपी को पत्र लिखकर कुछ पुलिस अधिकारियों के नामों की सूचना दी थी, जिनसे चिटफंड घोटाले के सिलसिले में एजेंसी पूछताछ करना चाहती थी.
इस पत्र के जवाब में डीजीपी की तरफ से एक डीआईजी ने लिखा कि राज्य की जिस विशेष जाँच टीम ने इस मामले की जाँच की थी, उसके और सीबीआई के अफसरों की बैठक करा देते हैं. बंगाल पुलिस बैठक कराने पर जोर दे रही थी, जबकि सीबीआई पूछताछ चाहती थी. एजेंसी ने राजीव कुमार को पहली बार 18 अक्तूबर, 2017 को समन किया था. उसके बाद चार बार और बुलावा भेजा गया.
ये सारे समन दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के तहत भेजे गए थे. अंतिम समन 8 दिसम्बर, 2018 को गया था. राजीव कुमार ने पहले समन के बाद 27 अक्तूबर, 2017 को अपने पत्र में सीबीआई के तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा को लिखा, यदि प्रारम्भिक पत्राचार के बजाय पुलिस कमिश्नर पद पर बैठे अधिकारी को धारा 160 के तहत समन भेजा जाएगा, तो फिर भानुमती का पिटारा खुल जाएगा...
क्या इस मामले में कोई भानुमती का पिटारा भी है? सीबीआई का आरोप है कि राज्य की पुलिस ने कुछ जरूरी कागजात गायब कर दिए हैं. सुप्रीम कोर्ट को यह भी देखना होगा कि सीबीआई ने अचानक जो छापा मारा वह उसके क्षेत्राधिकार में सम्भव था या नहीं. पिछले साल अक्तूबर में आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अपने राज्य में सीबीआई को छापा मारने या जांच करने की सामान्य सहमति वापस ले ली. फिर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इसकी गतिविधियों पर रोक लगा दी. क्या इस रोक का सम्बन्ध सारदा मामले से था?  जनवरी में छत्तीसगढ़ की नव-निर्वाचित सरकार ने भी ऐसी सामान्य सहमति वापस ली थी.
सारदा ग्रुप से जुड़े वित्तीय घोटाले की खबरें सन 2013 में सामने आ गईं थीं, सीबीआई को इस मामले की जाँच सुप्रीम कोर्ट ने मई 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन के ठीक पहले सौंप दी थी. इस घोटाले के साथ कुछ राजनीतिक नेताओं के नाम भी जुड़े हैं. एक आरोप यह भी है कि सारदा ग्रुप के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर सुदीप्तो सेन ने ममता बनर्जी की कुछ पेंटिंग 1.86 करोड़ रुपये में खरीदीं. बाद में सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके सार्वजनिक पुस्तकालयों को निर्देश दिया कि वे सारदा ग्रुप द्वारा प्रकाशित अखबारों को खरीदें.
जिन राजनेताओं पर इस मामले की आँच आती है उनमें दूसरे कई नामों के अलावा असम के हिमंत बिस्व सरमा और पूर्व केन्द्रीय रेलमंत्री मुकुल रॉय के नाम भी हैं, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. मुकुल रॉय से पूछताछ सन 2015 में हुई थी, तब वे तृणमूल कांग्रेस में थे. वे बीजेपी में सन 2017 में आए हैं. हिमंत बिस्व सरमा के घर पर सीबीआई ने पहले छापे मारे थे, पर चार्जशीट में उनका नाम नहीं है. इस मामले पर राजनीति का रंग चढ़ जाने के बाद सही और गलत का फैसला करना बहुत मुश्किल हो गया है. 


2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (07-02-2019) को "प्रणय सप्ताह का आरम्भ" (चर्चा अंक-3240) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    पाश्चात्य प्रणय सप्ताह की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. लंबे समय से,निहित स्वार्थों के कारण इन संस्थानो की कार्यशैली में पर्याप्त विकार आ गये हैं .उनकी शुचिता पर यह आघात घातक सिद्ध हो सकता है .

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