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Tuesday, February 12, 2019

गुर्जर आंदोलन और आरक्षण का दर्शन


http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//12022019//12022019-md-hr-10.pdf
राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जर समुदाय के लोग फिर से आंदोलन की राह पर निकल पड़े हैं। राजस्थान सरकार असहाय नजर आ रही है। सांविधानिक सीमा के कारण वह कोई फैसला कर पाने की स्थिति में नहीं है। आरक्षण के बारे में अब नए सिरे से विचार करने का समय आ गया है। सन 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द करने के साथ स्पष्ट किया था कि आरक्षण के लिए नए आधारों को भी खोजा जाना चाहिए। अदालत की दृष्टि में केवल ऐतिहासिक आधार पर फैसले करने से समाज के अनेक पिछड़े वर्ग संरक्षण पाने से वंचित रह जाएंगे, जबकि हमें उन्हें भी पहचानना चाहिए।
अदालत ने ‘ट्रांस जेंडर’ जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाने का सुझाव देकर इस पूरे विचार को एक नई दिशा भी दी थी। कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकता। पिछले 13 वर्ष में गुर्जर आंदोलनों में 72 व्यक्तियों की मृत्यु हो चुकी है। मई 2008 में भरतपुर की हिंसा में 15 व्यक्तियों की एक स्थान पर ही मौत हुई थी। स्थिति पर नियंत्रण के लिए सेना बुलानी पड़ा। राजस्थान के गुर्जर स्वयं को अनुसूचित जनजाति वर्ग में रखना चाहते थे, जैसाकि जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में है। मीणा समुदाय ने गुर्जरों को इस आरक्षण में शामिल करने का विरोध किया, क्योंकि यदि गुर्जरों को शामिल किया गया तो उनका कोटा कम हो जाएगा। गुर्जर बाद में अति पिछड़ा वर्ग में आरक्षण के लिए तैयार हो गए। पर कानूनी कारणों से उन्हें केवल एक फीसदी आरक्षण मिल पाया है।
केंद्र सरकार ने जबसे आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए 10 फीसदी आरक्षण की घोषणा की है और उसके लिए संविधान संशोधन भी किया है, उनकी माँग फिर से खड़ी हो गई है। चुनाव करीब हैं। आंदोलन का असर चुनाव पर पड़ने की उम्मीद भी है, शायद इसी वजह से वह फिर से भड़कता नजर आ रहा है। गुर्जरों की आबादी राजस्थान में सात फीसदी है। उनके आंदोलन की शुरूआत अपने लिए पाँच फीसदी आरक्षण की माँग से हुई थी। आंदोलन की शुरूआत सन 2006 में भरतपुर और दौसा में महापंचायतों से हुई थी।

वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत की सरकारों ने अपने-अपने दौर में उन्हें पाँच फीसदी आरक्षण दिलाने की कोशिशें कीं, पर कुल आरक्षण के 50 फीसदी से ऊपर हो जाने की वजह से अदालत में चुनौती दी गई और वह रुक गया। राजस्थान में इस वक्त कुल आरक्षण 50 फीसदी है। इसमें 21 फीसदी ओबीसी, 16 फीसदी अनुसूचित जाति और 12 फीसदी अनुसूचित जनजाति का आरक्षण है। ओबीसी आरक्षण के अतिरिक्त 50 प्रतिशत की कानूनी सीमा में गुर्जरों को अति पिछड़ा श्रेणी के तहत एक प्रतिशत आरक्षण अलग से मिल रहा है। चूंकि कुल मिलाकर 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण हो नहीं सकता, इसलिए घूम-फिरकर बातें ठहर जाती हैं। तब से गुर्जर समुदाय को एक प्रतिशत आरक्षण का ही लाभ मिल पा रहा है।
गुर्जर नेता कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला पूछते हैं जब आर्थिक पिछड़े वर्ग के लिए दस फ़ीसदी आरक्षण देने में कोई अड़चन नहीं आई तो हमारे आरक्षण में पेचीदगी क्यों? गुर्जर नेता सचिन पायलट खुद सरकार में हैं, पर वे सांविधानिक सीमा पार करके इन्हें आरक्षण नहीं दिला पाएंगे। पाँच फीसदी आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जरों का ये पांचवां आंदोलन है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते हैं कि राज्य स्तर पर जो कुछ हो सकता था, किया गया है। इन मांगों का ताल्लुक केंद्र से है। संविधान में संशोधन के बगैर अब कुछ हो नहीं सकता। उन्होंने कहा कि जैसे अभी केंद्र ने दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया है, उसी तरह कोई रास्ता निकले तब इनकी मांगें पूरी हो सकती हैं।
केंद्र में दस फ़ीसदी आरक्षण की घोषणा के बाद से ही गुर्जर नेता आंदोलन की चेतावनी दे रहे थे। सवाल है कि केन्द्र ने जो दस फीसदी आरक्षण आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए घोषित किया है और जिसके लिए संविधान संशोधन भी किया गया है, वह न्यायिक समीक्षा की कसौटी पर भी खरा उतरेगा या नहीं? दूसरी और केंद्र के पास केवल गुर्जरों की माँग नहीं है। तकरीबन हरेक राज्य में किसी न किसी सामाजिक वर्ग ने आरक्षण की माँग कर रखी है।
हरियाणा के जाट आंदोलन ने यह सोचने का मौका दिया कि सामाजिक बदलाव के वैकल्पिक रास्ते क्या हो सकते हैं। ये सामाजिक आंदोलन स्थानीय राजनीतिक दलों और समूहों को जन्म दे रहे हैं। तमाम राजनीतिक दल ऐसे हैं जो किसी एक समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं। राजस्थान के राजपूतों ने भी इसकी माँग की। राजस्थान में पूर्ववर्ती अशोक गहलोत सरकार ने ओबीसी आयोग की रिपोर्ट के आधार पर कृषक राजपूत वर्ग को आरक्षण देने का निर्णय किया था। इस सिलसिले में कोई कदम आगे नहीं बढ़ा। फिर 2015 में गुजरात के पाटीदार आंदोलन ने देश में आरक्षण को लेकर एक नई बहस छेड़ी है।
सवाल है कि आर्थिक रूप से समर्थ समुदाय आरक्षण की माँग क्यों करते हैं? राजस्थान में गुज्जर, आंध्र में कापू और महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की माँगें  क्या कहती हैं? ये सभी जातियाँ प्रभावशाली हैं। उन्हें आरक्षण क्यों चाहिए? हरियाणा के जाट आंदोलन के समांतर आंध्र में कापू आंदोलन चल रहा है। वे भी ओबीसी के तहत आरक्षण चाहते हैं। कापू समुदाय तेलुगु देशम पार्टी के साथ हैं। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का कहना है कि मैं कापू समुदाय को आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध हूं। इसके लिए एक न्यायिक आयोग भी गठित किया जा चुका है।
हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की ज़िम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह मसला राजनैतिक दलों के पास है। जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक  रूप से पिछड़ा रहेगा? तमिलनाडु के बाहर के लोगों ने 80 के दशक में पहली बार वन्नियार का नाम सुना था। सन 1980 में गठित वन्नियार संघम ने उस साल चेन्नई में जबर्दस्त रैली की, जो इतनी जबर्दस्त थी कि उसपर काबू पाने के लिए फायरिंग की नौबत आ गई। यह रैली भी आरक्षण की माँग को लेकर थी। परम्परागत जातीय पदक्रम में वन्नियार दलितों के ठीक ऊपर माने जाते हैं, पर अब यह वर्ग काफी प्रभावशाली हो चुका है। तमिलनाडु के 29 में से 13 जिलों में इनका प्रभुत्व है। ग्रामीण इलाकों से रेड्डियार, नायडू और मुदलियार अपनी जमीन बेचकर जा रहे हैं। इस जमीन को सबसे ज्यादा वन्नियार खरीद रहे हैं।
देश के दूसरे राज्यों की सामाजिक संरचना का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो वहाँ भी हमें ऐसे बदलाव देखने को मिलेंगे। वन्नियार स्वाभिमान की तरह ये जातियाँ भी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान के साथ सामने आ रहीं हैं। इसके राजनीतिक निहितार्थ पर हमें गम्भीरता से विचार करना चाहिए।

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (13-02-2019) को "आलिंगन उपहार" (चर्चा अंक-3246) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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