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Saturday, February 23, 2019

पुलवामा और पनीली एकता का राजनीतिक-पाखंड


http://www.rashtriyasahara.com/epaperpdf//23022019//23022019-md-hst-4.pdf
लोकसभा के पिछले चुनाव में पाकिस्तान, कश्मीर और राम मंदिर मुद्दे नहीं थे। पर लगता है कि आने वाले चुनाव में राष्ट्रवाद, देशभक्ति, कश्मीर समस्या और पाकिस्तानी आतंकवाद बड़े मुद्दे बनकर उभरेंगे। पुलवामा कांड इस सिलसिले में महत्वपूर्ण ट्रिगर का काम करेगा। एक अरसे के बाद ऐसा लगा था कि देश में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच किसी एक बात पर मतैक्य है। दोनों को देशहित की चिंता है और दोनों चाहते हैं कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता की खातिर सरकार और विपक्ष एकसाथ रहे। पर यह एकता क्षणिक थी और देखते ही देखते गायब हो गई। अब मोदी से लेकर अमित शाह और राहुल गांधी, ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी तक पुलवामा हमले से ज्यादा उसके राजनीति नफे-नुकसान को लेकर बयान दे रहे हैं। इनमें निशाना जैशे-मोहम्मद या पाकिस्तान नहीं, प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दल है।  

पुलवामा हमले के बाद शनिवार 16 फरवरी को सरकार ने जो सर्वदलीय बैठक बुलाई थी उसमें अरसे बाद राजनीतिक दलों के रुख में सकारात्मकता नजर आई। बैठक गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बुलाई थी। इस बैठक के बाद कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद ने कहा, 'हम राष्ट्र और सुरक्षा बलों की एकता और सुरक्षा के लिए सरकार के साथ खड़े हैं। फिर चाहे वह कश्मीर हो या देश का कोई और हिस्सा। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस पार्टी सरकार को अपना पूरा समर्थन देती है।'

हिन्दुस्तान की आत्मा पर हमला

इस बैठक और बयान के पहले राहुल गांधी ने 15 फरवरी को प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, आतंकी हमले का मकसद देश को विभाजित करना है। यह हिंदुस्तान की आत्मा पर हमला है। हमारे दिल में चोट पहुंची है। पूरा का पूरा विपक्ष, देश और सरकार के साथ खड़ा है। करीब-करीब यही बात मनमोहन सिंह ने भी कही। पर्यवेक्षकों को इस एकता पर विस्मय था। जाहिर है कि हमले का सदमा बड़ा था, और देशभर में नाराजगी थी। यह एकता भी एक प्रकार का राजनीतिक फैसला था। राजनीतिक दलों को लगा कि जनता एकमत होकर जवाब देना चाहती है।


व्यावहारिक सच यह है कि ऐसी एकता के ऐसे मौके कभी-कभी आते हैं, और दो-तीन दिन के लिए ही आते हैं। शायद सर्वदलीय बैठक में भी दोनों पक्षों के राजनेताओं ने बेमन से एकता की बातें की थीं। सब जानते थे कि चुनाव सिर पर हैं और यह एकता हमारे पैरों में बेड़ी की तरह बँध जाएगी। ये बातें किसी काम में नहीं आएंगी।

सत्तारूढ़ बीजेपी ने राष्ट्रीय-हितों का मुकुट धारण करने में हमेशा पहल की है और इसबार भी उसने इसमें पहल की। उधर विरोधी दलों को भी शायद फौरन ही समझ में आ गया कि सरकार के साथ खड़े होने का मतलब है, इस मौके पर बने जनमत को बीजेपी के पक्ष में पूरी तरह जाने देना। राष्ट्रीय अखंडता का सारा जिम्मा बीजेपी के नेताओं ने ले लिया। इस राष्ट्र-प्रेम की एक झलक देश के दूसरे इलाकों में कश्मीरी नागरिकों तथा छात्रों की घेराबंदी के रूप में दिखाई पड़ीं। इन खबरों के पीछे अतिरंजना भी थी, पर ये पूरी तरह गलत भी नहीं थीं। और उन्हें घेरने वाली भीड़ भी वही थी। 

ममता का धमाका

सोमवार आते-आते पहला बड़ा धमाका ममता बनर्जी ने किया। उन्होंने कहा, चुनावों से ठीक पहले ही इस तरह का हमला क्यों हुआ?  खुफिया रिपोर्ट होने के बाद भी सीआरपीएफ के इतने बड़े काफिले को एक साथ क्यों भेजा गया? जवानों को एयरलिफ्ट क्यों नहीं किया गया? इसमें कितना पैसा खर्च हो जाता। इसके अलावा उन्होंने कहा कि सरकार को उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, जिन्होंने इस हमले को अंजाम दिया है, लेकिन अगर इस मौके पर बीजेपी-आरएसएस ने दंगे की कोशिश की तो देश माफ नहीं करेगा। इतना ही नहीं ममता ने अपना फोन टैप होने का आरोप भी लगाया।

गुरुवार 21 फरवरी आते-आते इस पनीली एकता की धज्जियाँ उड़ गईं। पहले कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधा, जवाब में रविशंकर प्रसाद ने कहा कि कांग्रेस प्रवक्ताओं और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के स्वर एक जैसे हैं। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा था कि हमले के वक्त मोदी जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में घड़ियालों के साथ एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। मोदी ने शहीदों का अपमान किया है। इसपर बीजेपी ने फौरन जवाबी प्रेस कांफ्रेंस की जिसमें रविशंकर प्रसाद ने कहा, कांग्रेस से क्या उम्मीद करें उन्होंने तो सर्जिकल स्ट्राइक के भी सबूत मांगे थे। आर्मी चीफ को निशाना बनाया था।

बीजेपी को तोहफा!

राहुल गांधी और ममता बनर्जी समेत समूचे विपक्ष को फौरन समझ में आ गया कि यह बीजेपी को तोहफे की तरह है। वह तो इस मौके का पूरा फायदा उठाएगी।  इस मौके पर सेना ने कोई कार्रवाई की तो वह भी बीजेपी के खाते में जाएगी, जैसाकि सितम्बर 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक के मौके पर हुआ था। पर पहल कांग्रेस के बजाय ममता बनर्जी ने की। नवम्बर 2016 में नोटबंदी के बाद सरकार के खिलाफ पहला मोर्चा उन्होंने ही खोला था। वे यह भी जानती थीं कि देर-सबेर कांग्रेस अपना सिर उठाएगी, इसलिए उसके पहले ही कुछ करना होगा।

विरोधी दलों की समझ से चुनाव के ठीक पहले हुआ पुलवामा हमला सीधे-सीधे सरकार के नाम तोहफा है। यह बीजेपी के पक्ष में माहौल बना देगा। इसे घुमाने की जरूरत है। जाहिर है कि इंटेलिजेंस फेल्यर और सीआरपी के सैनिकों को हवाई सुविधा न दिए जाने के सवाल उठाए गए। सन 1962, 65, 71 और 99 में देश में अभूतपूर्व राजनीतिक एकता नजर आई थी। तब उस एकता के कुछ अंक विरोधी दलों को भी मिलते थे, पर वैसी ही एकता अब कायम होने का मतलब है सारे प्रयासों पर पानी फिरना। उधर बीजेपी भी विरोधी दलों को देशद्रोही साबित करने पर उतारू है। कांग्रेस को भी समझ में आ गया कि पिछले दो साल से चल रहे उसके सारे प्रयास बेकार हो जाएंगे।   

यह कहना मुश्किल है कि कुछ देर के लिए बनी इस पनीली कौमी एकता को किसने तोड़ा। अलबत्ता 14 की शाम से ही वॉट्सएप और फेसबुक पर संदेश आ हे थे कि यह पहले जैसी कमजोर सरकार नहीं है। कुछ न कुछ करारा जवाब देगी। उधर अगले ही दिन यानी 15 को देश की पहली सेमी हाई स्पीड ट्रेन वंदे भारत एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाते हुए नरेन्द्र मोदी ने शहीद सैनिकों के परिवारों के प्रति संवेदनाएं व्यक्त करते हुए कहा कि इस मौके पर राजनीति न करें। उन्होंने कहा, हमारी आलोचना करने वालों से मैं अनुरोध करना चाहता हूं कि यह भावनात्मक पल है। ऐसे में राजनीतिक लाभ उठाने से दूर रहें। यह संदेश अपनी पार्टी के लोगों के लिए नहीं था, बल्कि विरोधियों के नाम था। बीजेपी के नेतृत्व समझ में आ चुका था कि इस परिस्थिति का राजनीतिक लाभ उठाना चाहिए।

हमला क्यों हुआ?

ममता बनर्जी ने सवाल किया कि चुनाव के ठीक पहले यह हमला क्यों हुआ? पता नहीं वे क्या कहना चाहती हैं, पर इस हमले के राजनीतिक निहितार्थों को कई कोणों से समझने की जरूरत है। पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान पर यदि वहाँ की सेना और कट्टरपंथियों का कब्जा है, तो भारत में कट्टरपंथी सरकार का आना उन्हें भाएगा। तभी वे अपने लिए बेहतर साधन-सुविधाएं हासिल कर सकते हैं। बजट की मोटी धनराशि पर कब्जा कर सकते हैं और जनता को कट्टरपंथी बातों से भरमाए रख सकते हैं।

दूसरे ऐसा भी लगता है कि पश्चिम एशिया में मार खाने के बाद इस्लामिक स्टेट और अल कायदा से जुड़े तत्वों का रुख अफगानिस्तान और कश्मीर की तरफ है। उनकी दूरगामी रणनीति पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक अपने प्रभाव को स्थापित करने की है। हमारी राजनीति लोकसभा चुनावों तक के बारे में ही सोचती है। जबकि उसे कश्मीर के बारे में आमराय बनानी चाहिए।

राजनीतिक विमर्श की दिशा

कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रीय सुरक्षा पर एक विजन डॉक्यूमेंट तैयार करने का फैसला भी किया है, जिसकी जिम्मेदारी लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा (सेनि) के अधीन बनी एक टास्क फोर्स को दी है। जनरल हुड्डा सन 2016 में उत्तरी कमान के प्रमुख थे। उनके नेतृत्व में ही सर्जिकल स्ट्राइक हुई थी। कांग्रेस शायद यह बताना चाहती है कि हम राष्ट्रीय सुरक्षा को महत्व देते हैं। शायद यह बीजेपी की आक्रामक रणनीति का जवाब है, पर यह रणनीति भी लोकसभा चुनाव की तैयारी से ज्यादा नहीं लगती। शायद हुड्डा के विजन डॉक्यूमेंट की एक झलक कांग्रेस के लोकसभा के लिए जारी होने वाले घोषणा पत्र में भी दिखाई देगी।  

पुलवामा हमले के बाद लगता है कि राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श की दिशा में कुछ बदलाव आएगा। पर यह विमर्श चुनाव के फायदे-नुकसान तक सीमित रहेगा। इसके पीछे कश्मीर समस्या के समाधान की मनोकामना नहीं होगी। लोकसभा चुनाव के साथ कश्मीर विधानसभा के चुनाव होने की सम्भावना भी है। कश्मीर पर सन 1994 में भारतीय संसद ने एक प्रस्ताव पास किया था। जरूरत इस बात की है देश के राजनीतिक दल मिलकर बैठें और कश्मीर पर आमराय बनाएं। टकराव की राजनीति देश के लिए घातक होगी। पर लगता नहीं कि राजनीतिक दल इस बात को ठीक से समझ पा रहे हैं।





1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-02-2019) को "समय-समय का फेर" (चर्चा अंक-3257) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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