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Monday, January 7, 2019

राफेल से जुड़े वाजिब सवाल



दुनिया में रक्षा-उपकरणों का सबसे बड़ा आयातक भारत है. हमारी साठ फीसदी से ज्यादा रक्षा-सामग्री विदेशी है. स्वदेशी रक्षा-उद्योग के पिछड़ने की जिम्मेदारी राजनीति पर भी है. सार्वजनिक रक्षा-उद्योगों ने निजी क्षेत्र को दबाकर रखा. सरकारी नीतियों ने इस इजारेदारी को बढ़ावा दिया. सन 1962 में चीनी हमले के बाद से देश का रक्षा-व्यय बढ़ा और आयात भी. नौसेना ने स्वदेशी तकनीक का रास्ता पकड़ा, पर वायुसेना ने विदेशी विमानों को पसंद किया. इस वजह से एचएफ-24 मरुत विमान का कार्यक्रम फेल हुआ. हम इंजन के विकास पर निवेश नहीं कर पाए.  
राजनीतिक शोर नहीं होता, तो शायद हम राफेल पर भी बात नहीं करते. चुनाव करीब हैं, इसलिए यह शोर है. अरुण जेटली ने कहा है कि कांग्रेस उस घोटाले को गढ़ रही है, जो हुआ ही नहीं. शायद कांग्रेस को लगता है कि जितना मामले को उछालेंगे, लोगों को लगेगा कि कुछ न कुछ बात जरूर है. जरूरी है कि इसकी राजनीति से बाहर निकलकर इसे समझा जाए.

वायुसेना ने सन 2001 में 126 विमानों की जरूरत बताई थी. लम्बे समय तक दुनिया के छह नामी विमानों के परीक्षण हुए. अंततः 31 जनवरी 2012 को सरकार ने घोषणा की दासो राफेल सबसे उपयुक्त है. पर 5 फरवरी 2014 को रक्षामंत्री एके एंटनी ने कहा कि इस वित्त वर्ष में सरकार के पास इतना पैसा नहीं बचा कि समझौता कर सकें. मामले पर नजर रखने वाले पत्रकार जानते थे कि समझौता नहीं होगा.  
जिस सौदे की तैयारी 13 साल से चल रही थी, उसके लिए साधनों की व्यवस्था क्यों नहीं थी? पर बात कुछ और थी. एंटनी ने बताया कि विमान की लाइफ साइकिल कॉस्ट की गणना-प्रक्रिया पर पुनर्विचार किया जा रहा है. यानी कि कीमत को लेकर भी असहमति थी. सौदे के तहत 16 तैयारशुदा विमान फ्रांस से आने थे और 108 लाइसेंस के तहत एचएएल में बनाए जाने थे. घोषणा के बावजूद समझौता नहीं हुआ. कीमत ही नहीं, एचएएल का मसला भी था.
एचएएल को विमान बनाने में फ्रांस के मुकाबले ढाई गुना समय ज्यादा लगता. जिस विमान को फ्रांस में दासो 100 मानव दिन में बनाता, उसे एचएएल 257 मानव दिवस में बनाता. समय ज्यादा लगता तो कीमत भी बढ़ती. एचएएल की गुणवत्ता की जिम्मेदारी लेने को भी फ्रांसीसी कम्पनी तैयार नहीं थी. क्यों नहीं थी? इन बातों की गहराई पर जाने की जरूरत होगी. पर इतना समझिए कि एचएएल की कहानी तभी खत्म थी.
संसद में दो दिन हुई चर्चा में राहुल गांधी ने कहा कि सरकार बताए कि एक विमान की कीमत 560 करोड़ रुपये के बजाय 1600 करोड़ रुपये क्यों दी गई? उन्होंने एक ट्वीट में तीन सवाल पूछे. 126 के बजाय 36 विमान क्यों? एचएएल का ठेका रद्द करके एए (अनिल अम्बानी) को 30,000 करोड़ रुपये का ठेका क्यों दिया गया? मसले का की पॉइंट है एचएएल के बजाय अम्बानी की फर्म को ऑफसेट ठेका मिलना.
क्या यह सच है? एचएएल ऑफसेट की लाइन में नहीं था और न अम्बानी को विमान बनाने का लाइसेंस मिला है. दोनों का मुकाबला था ही नहीं. अम्बानी को मिला ठेका 30,000 करोड़ का हो नहीं सकता. पूरा सौदा 58,000 करोड़ का है, तो उसका 50 फीसदी 29,000 करोड़ रुपया हुआ. फ्रांसीसी कम्पनी को इतनी रकम भारत में सामान खरीदने पर खर्च करनी है. क्या पूरा ऑफसेट अम्बानी के नाम है?
दासों के ऑफसेट समझौतों को लेकर कई जानकारियाँ मीडिया में हैं. 40-50 से लेकर 70-80 तक कम्पनियों के साथ ऑफसेट समझौते हुए हैं. इनमें टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स लिमिटेड, महिन्द्रा एरोस्ट्रक्चर, भारत फोर्ज, लक्ष्मी मशीन वर्क्स, त्रिवेणी टर्बाइन, ग्लास्ट्रॉनिक्स, लार्सन एंड टूब्रो के साथ दासो रिलायंस जॉइंट वेंचर का नाम भी है. रिलायंस को ठेका मिलने में सरकार की भूमिका पर सवाल हो सकता है, पर जो रकम बताई जा रही है, वह कल्पना से परे है.  
विमान की कीमत को भी समझें. एक कीमत बुनियादी विमान की होती है, दूसरी उसमें लगने वाले एवियॉनिक्स, इलेक्ट्रॉनिक वॉरफेयर सूट, एईएसए रेडार, बीवीआर मिसाइल, सेंसरों और दूसरे उपकरणों की होती है. तीसरा पहलू होता है 40 साल का रख-रखाव. चौथा होता है विदेशी मुद्रा, जिसकी कीमत लगातार बढ़ रही है. कांग्रेस का कहना है कि हम 126 विमान खरीद रहे थे, जबकि सरकार ने 36 विमान खरीदे. सच है कि 108 विमानों का निर्माण लाइसेंस पर भारत में होना था. पर वह समझौता नहीं हुआ. क्यों नहीं हुआ, इसका स्पष्टीकरण सरकार को देना चाहिए, पर ऐसा नहीं है कि 108 विमान बट्टे खाते में गए.
सन 2015 में सौदे में आए बदलाव के बाद 115 विमानों के निर्माण के लिए फिर से वैश्विक टेंडर जारी हुए हैं. दुनिया की छह विमान कम्पनियों ने प्रस्ताव दिए हैं. नई स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप नीति के तहत ये विमान भारतीय कम्पनियों की भागीदारी में बनेंगे. इनमें तकनीकी हस्तांतरण भी होगा. इनका निर्यात भी किया जा सकेगा. राफेल का निर्यात नहीं होता.
विमान की कीमत, उनकी संख्या और खरीद की प्रक्रिया तथा समझौते में किए गए बदलावों की जाँच करने की संस्थागत व्यवस्था देश में है. इसी नहीं किसी भी सौदे का लेखा-जोखा रखा जाता है. सौदा कितना भी गोपनीय हो, सरकार के किसी न किसी अंग के पास उसकी जानकारी होती है. गोपनीयता की भी संस्थागत व्यवस्था होती है. खरीद का लेखा-जोखा रखने की जिम्मेदारी सीएजी की है. संवेदनशील सूचनाओं को मास्क करके देश के सामने रखा जाता है. यह सूचना जल्द से जल्द देश के सामने रखी जानी चाहिए.  
संसद के शीत सत्र में सीएजी-रिपोर्ट आने की आशा थी. पर सुन रहे हैं चुनाव तक शायद यह सम्भव नहीं होगा. दूसरी संस्थागत पड़ताल सुप्रीम कोर्ट में सम्भव है. पिछले महीने 14 दिसम्बर को अदालत ने खरीद की निर्णय-प्रक्रिया, मूल्य-निर्धारण और ऑफसेट-पार्टनर तीनों मसलों पर फैसला सुनाया. फैसले की शब्दावली पर संशय हैं, जिनका निवारण अदालत ही करेगी, सर्दियों की छुट्टी के बाद. लगता नहीं कि कांग्रेस को अदालती स्पष्टीकरण का इंतजार है.

3 comments:

  1. Wow, very nice and imformative post sir aise hi aap hamare liye article post karte rahiye thanks.

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  2. bahut acchhi sir,mai is post ke talash me tha thanks

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (08-01-2019) को "कुछ अर्ज़ियाँ" (चर्चा अंक-3210) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    नववर्ष-2019 की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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