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Saturday, January 5, 2019

कांग्रेस के इम्तिहान का साल



इस हफ्ते संसद में और संसद के बाहर राहुल गांधी के तीखे तेवरों को देखने से लगता है कि कांग्रेस पार्टी का आत्मविश्वास लौट रहा है। उसके समर्थकों और कार्यकर्ताओं के भीतर आशा का संचार हुआ है। इसे आत्मविश्वास कह सकते हैं या आत्मविश्वास प्रकट करने की रणनीति भी कह सकते हैं, क्योंकि पार्टी को वोटर के समर्थन के पहले पार्टी-कार्यकर्ता के विश्वास की जरूरत भी है। छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में सत्ता पर वापसी ने न केवल आत्मविश्वास बढ़ाया है, बल्कि संसाधनों का रास्ता भी खोला है। पर लोकसभा-चुनाव केवल सत्ता में वापसी के लिहाज से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति को परिभाषित करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सवाल है कि कांग्रेस के पास दीर्घकालीन राजनीति की कोई समझ है या केवल राजकुमार को सिंहासन पर बैठाने की मनोकामना लेकर वह आगे बढ़ रही है?
इस साल लोकसभा के अलावा आठ विधानसभाओं के चुनाव भी होने वाले हैं। इनमें आंध्र, जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में खासतौर से कांग्रेस की दिलचस्पी है। पार्टी चाहती है कि सन 2019 का वर्ष उसकी राजनीति को निर्णायक मोड़ दे। यह असम्भव भी नहीं है, तमाम किन्तु-परन्तुओं के बावजूद।

कर्नाटक से हुआ बदलाव    
कांग्रेस के लिए पिछले साल मई में कर्नाटक की पराजय को विजय में बदलने की रणनीति ने चमत्कारिक प्रभाव डाला है। यह चमत्कार उसके पहले नवम्बर-दिसम्बर 2017 के गुजरात चुनाव में सम्भव नहीं हो पाया। और यदि कर्नाटक में भी पार्टी विफल रहती, तो उत्तर के तीन राज्यों में वह उतने वेग से उतर ही नहीं पाती, जितने उत्साह से उतरी। इस रणनीति के चार पहलू हैं। 1.कांग्रेस की आंतरिक एकता, 2.बीजेपी की रणनीतिक-गलतियाँ, 3.सहयोगी दलों से समन्वय और 4.देश की वस्तुगत स्थितियाँ। चुनाव मैदान में उतरने के लिए पार्टी की रणनीति इन्हीं चार बातों पर केन्द्रित है।
दिसम्बर 2017 में राहुल गांधी के अध्यक्ष पद पर चुनाव के बाद इस साल मार्च में कांग्रेस महासमिति का 84 वां अधिवेशन हुआ, जिसमें लम्बे अरसे बाद हुए नेतृत्व परिवर्तन की पुष्टि की गई। पार्टी ने उस सही घड़ी का अनुमान लगा लिया ता, जब राहुल गांधी के हाथ में बेटन थमाना है। लड़खड़ाती पार्टी ने एक नए दौर की तरफ कदम बढ़ाए। भले ही राहुल गांधी अध्यक्ष बन गए हैं, पर पार्टी का नेतृत्व अब भी पूरी तरह नया नहीं हुआ है। यह बात हाल में तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के चयन की प्रक्रिया से साफ हो गई। अभी पुरानी पीढ़ी का वर्चस्व खत्म नहीं हुआ है।
इस बात को नहीं भुलाना चाहिए कि कर्नाटक का फैसला सोनिया गांधी के स्तर पर हुआ था। एचडी देवेगौडा से स्वयं सोनिया गांधी ने बात की थी। अगले तीन-चार महीनों के ज्यादातर बड़े फैसलों में उनकी भूमिका होगी और चुनाव-परिणाम आने के बाद बड़े फैसले करने पड़े, तो उनमें सोनिया गांधी और पार्टी के वरिष्ठों की भूमिका होगी। दूसरी तरफ यह भी लगता है कि पार्टी ने राहुल गांधी को स्वीकार कर लिया है।
कांग्रेस महासमिति के अधिवेशन में राहुल ने कहा, मैं स्वीकार करता हूँ कि कांग्रेस के नेतृत्व और पार्टी कार्यकर्ता के बीच एक दीवार है। मेरी पहली प्राथमिकता इस अवरोध को तोड़ने की होगी। यह अवरोध टूटेगा या नहीं, यह समय बताएगा। अलबत्ता राहुल गांधी की टीम टेक्नोलॉजी की मदद से कार्यकर्ता से जुड़ने का प्रयास कर रही है। उसने इसके लिए शक्ति नाम का एप तैयार किया है। यह सब अपनी जगह है और व्यावहारिक राजनीति अपनी जगह। व्यावहारिक राजनीति है गठबंधन बनाना और बीजेपी के खिलाफ माहौल तैयार करना।
‘चौकीदार चोर है’ का नारा
कांग्रेस महासमिति में दिए गए बयानों और पास किए गए प्रस्तावों पर नजर डालें तो नजर आता है कि पार्टी व्यक्तिगत रूप से नरेन्द्र मोदी पर हमलों को अपनी रणनीति बनाएगी। राफेल मामले को उठाने के बाद राहुल गांधी ने ‘चौकीदार चोर है’ नारा दिया है। महासमिति के अधिवेशन में सोनिया गांधी ने ‘अहंकार मुक्त भारत’ बनाने का आह्वान किया। संसद में राफेल मामले को उठाने के पीछे पार्टी की रणनीति मोदी के नेतृत्व पर लगातार हमले करने की है। लगातार एक ही बात को कहने से लगने लगता है कि कुछ न कुछ तो है। पर यह फौरी टैक्टिक्स है, दीर्घकालीन विचारधारा नहीं।
पार्टी का जोर मीडिया और प्रचार पर है। दिसम्बर के आखिरी दिन पार्टी ने 10 नए प्रवक्ताओं की नियुक्ति की। राज्यसभा सदस्य सैयद नसीर हुसैन, पवन खेड़ा, जयवीर शेरगिल, रागिनी नायक, गौरव वल्लभ, राजीव त्यागी, अखिलेश प्रताप सिंह, सुनील अहीर, हिना कवारे और श्रवण दोसाजु नए प्रवक्ता बनाए गए हैं। इनमें से कुछ लोग पहले भी मीडिया पैनलिस्ट के तौर पर पार्टी का पक्ष रखते रहे हैं, पर अब यह औपचारिक नियुक्ति है।
गठबंधन का गड़बड़झाला
इस साल मई में कर्नाटक के घटनाक्रम ने महागठबंधन की अवधारणा को औपचारिक शक्ल देने की शुरूआत की। पिछले दो साल से सहयोगी दलों के साथ लगातार विमर्श चल रहा है, फिर भी कहना मुश्किल है कि चुनाव के पहले राष्ट्रीय स्तर पर औपचारिक गठबंधन बनेगा। इसकी वजह क्षेत्रीय स्तर पर उपस्थित विसंगतियाँ हैं। यह गठबंधन किसी सकारात्मक विचारधारा पर केन्द्रित नहीं है। यह बीजेपी के खिलाफ है। इसमें ऐसे दल शामिल हैं, जिनके आपसी हित टकराते हैं। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में अकेले लड़कर जीत हासिल करने के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा है।
गठबंधन का सबसे बड़ा युद्ध-क्षेत्र उत्तर प्रदेश है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के साथ कांग्रेस एक अनौपचारिक गठबंधन है, पर सीटों की व्यावहारिक राजनीति औपचारिकता में आड़े आती है। कांग्रेस के लिए यदि ये पार्टियाँ अमेठी और रायबरेली छोड़ने के लिए तैयार हैं, तो इसका मतलब है कि जरूरत पड़ने पर ये साझा रणनीति बनाने को तैयार रहेंगी। इसके पीछे वह सोशल-इंजीनियरी है, जो उत्तर प्रदेश में विकसित हो चुकी है और जिसमें कांग्रेस काफी पीछे रह गई है। इतना नजर आता है कि पार्टी यूपी में सपा-बसपा से 'वाक् युद्ध' नहीं चाहती, क्योंकि उसका लाभ बीजेपी को मिलता है। शायद ऐसे ही निर्देश पार्टी के नेताओं को दिए गए हैं।
कांग्रेस के पराभव के सारे सूत्र उत्तर प्रदेश में छिपे हैं। सपा और बसपा कांग्रेस के सामाजिक और आर्थिक कार्यक्रमों की विफलता से निकली पार्टियाँ हैं। इन दोनों के अलावा बीजेपी ने भी कांग्रेसी जमीन पर ही अपनी बुनियाद खड़ी की है। जबतक कांग्रेस यूपी नहीं जीतेगी, उसे देश जीतने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। सन 2009 में ऐसा लग रहा था कि उसकी वापसी सम्भव है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश से 21 सीटें जीतीं थीं और उसे 18.25 फीसदी वोट मिले थे। पर 2014 में उसकी केवल दो सीटें ही रह गईं और वोट प्रतिशत घटकर 7.5 फीसदी रह गया। विफलता विचार और नेतृत्व दोनों के स्तर मिली। पार्टी 18-20 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है, पर इसके लिए सपा और बसपा तैयार नहीं होंगे। कांग्रेस के उतरने से मुकाबला तीन-तरफ़ा हो जाएगा। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी यह समस्या थी। कांग्रेस और एनसीपी के बीच महाराष्ट्र में सीटों के बँटवारे का सवाल उठेगा। बंगाल में वाममोर्चे के साथ जाएं या न जाएं, इसका सवाल होगा।
इधर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने फेडरल फ्रंट का मसला उठाकर महागठबंधन के मसले को पेचीदा बनाया है। ममता बनर्जी पिछले कुछ वर्षों से ज्यादा हार्ड बार्गेन कर रहीं हैं। कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी को वस्तुतः प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर ही दिया है। डीएमके के एमके स्टैलिन ने राहुल गांधी का नाम लेकर इसकी शुरुआत कर ही दी है। उधर ममता बनर्जी 19 जनवरी को कोलकाता में बीजेपी के विरोध में रैली का आयोजन कर रहीं हैं। यह भी विरोधी-एकता से जुड़ा आयोजन है। इसमें वामपंथी दल शामिल नहीं होंगे। हालांकि इसमें कांग्रेस का प्रतिनिधित्व होगा, पर खबरें हैं कि राहुल गांधी इसमें शामिल नहीं होंगे। ये अंतर्विरोध हैं और इनका व्यावहारिक रूप लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद समझ में आएगा। कांग्रेस फिलहाल नेतृत्व को लेकर बयानबाज़ी से बच रही है, क्योंकि उसका प्रभाव नकारात्मक होता है।
विचारधारा और कार्यक्रम
ज्यादा बड़ी बात यह है कि केवल बीजेपी की आलोचना और नकारात्मक बातों से काम नहीं चलेगा। कांग्रेस खुद किस विचार की जमीन पर खड़ी है और वह देश को क्या संदेश देना चाहती है? उत्तर के तीन राज्यों में कांग्रेस ने खेती से जुड़े संकट को निशाना बनाया था। इसके अलावा वह नौजवानों की बेरोजगारी और छोटे व्यापारियों और लघु उद्यमियों की परेशानियों को लक्ष्य करेगी। इसमें जीएसटी और नोटबंदी शामिल हैं। कमोबेश इन तीनों राज्यों की रणनीति लोकसभा चुनाव में भी रहेगी। पर क्या खेती की समस्या का समाधान वह कर्ज-माफी के सहारे करेगी? देश के औद्योगीकरण और आर्थिक-विकास का क्या कार्यक्रम उसके पास है?
सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर उसका बीजेपी से खासतौर पर मुकाबला है। इन चुनावों में राहुल गांधी की कैलाश-यात्रा और मंदिरों में दर्शन के लिए जाना चर्चा का विषय बना था। शायद यह जारी रहेगा। इस सिलसिले में केरल के सबरीमाला प्रसंग का जिक्र करना महत्वपूर्ण होगा। वामपंथी सरकार के खिलाफ बीजेपी ने केरल में मोर्चा खोल रखा है। इस बात से कांग्रेस का चिंतित होना स्वाभाविक है। हाल में शशि थरूर ने कहा है कि जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई ओपन कोर्ट में करने को तैयार है तब ऐसे में दो महिलाओं का मंदिर में जाना गैर-जरूरी और उकसाने वाला काम है।
उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस महिला सशक्तिकरण की समर्थक है लेकिन यह आस्था का विषय है। सबरीमाला प्रकरण राज्य में बीजेपी के प्रवेश का रास्ता खोल रहा है। इसकी संवेदनशीलता को समझने में कांग्रेस ने देरी कर दी है। दूसरा मसला अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का है। पर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का हिन्दुओं की आस्था से टकराव नहीं है। पार्टी इस अंतर्विरोध को किस तरह सुलझाएगी, यह देखना होगा। फिलहाल पार्टी की हिन्दुत्व-विरोधी छवि हिन्दू-विरोधी बन गई है।
पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस की घोषणापत्र समिति उन मुद्दों पर विचार कर रही है, जिन्हें पार्टी के घोषणापत्र में जगह दी जाएगी। करीब 20 विषयों पर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। पार्टी ने पिछले अक्तूबर में एक वैबसाइट लांच की है, जिसमें घोषणापत्र के लिए इनपुट माँगे गए हैं। इसके अलावा कार्यकर्ताओं से सीधे बात भी की जा रही है। ये सब बातें समय लेती हैं। इनका लाभ मिलने में समय भी लगता है, पर इनका असर दूरगामी होता है। क्या पार्टी के पास दूर-दृष्टि है? उससे भी बड़ा सवाल है कि क्या पार्टी क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेताओं को बढ़ावा देगी? क्या उसके पास आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने की योजना है? पार्टी महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ी है और 2019 का चुनाव उसकी परीक्षा लेगा।







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