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Wednesday, August 29, 2018

आक्रामक राहुल गांधी

राहुल गांधी ने हाल में जर्मनी और ब्रिटेन में कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिन्हें लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी ने उनके बयानों को देश-विरोधी बताया है, वहीं किसी ने राहुल के खिलाफ मुकदमा भी दायर किया है. मुजफ्फरपुर में इस केस को दायर करने वाले का आरोप है कि राहुल ने देश का अपमान किया है. राहुल गांधी ने भाजपा और आरएसएस की तुलना कट्टरपंथी इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड से की थी. इसके जवाब में बीजेपी की ओर से कहा गया कि उन्हें भारत की अभिकल्पना के साथ धोखा बंद करना चाहिए. राहुल गांधी ने जर्मनी के हैम्बर्ग में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण बेरोज़गारी बढ़ी और लोगों के अंदर पनपे ग़ुस्से के कारण मॉब-लिंचिंग की घटनाएं होने लगी हैं. उनका यह भी कहना था कि विश्व में कहीं भी लोगों को विकास की प्रक्रिया से दूर रखा जाता है तो आईएस जैसे गुटों को बढ़ावा मिलता है.

पिछले एक साल में राहुल गांधी ने बीजेपी पर आक्रामक प्रहार किए हैं. हाल में संसद में पेश किए गए अविश्वास प्रस्ताव पर उनके भाषण और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गले लगने से बीजेपी दबाव में आई है. यह आक्रामकता स्वाभाविक है और उन्हें सरकार की आलोचना करने और उसकी गलतियों को उजागर करने का पूरा अधिकार है. अलबत्ता दो सवाल उनके बयानों के साथ जुड़े हुए हैं. पहला, वे अपनी बातों को कहने के लिए संसद और भारतीय मंचों का उपयोग करने के बजाय विदेशी मंचों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? और दूसरे, इस प्रकार की बातों से क्या विदेश में भारत की नकारात्मक छवि बनती है? उन्होंने डोकलाम और भारत-पाक रिश्तों के संदर्भ में कुछ बातें कही हैं. कुछ दशक पहले तक भारतीय राजनीति में विदेश नीति पर सहमति रहती थी. हम उस परम्परा से हट रहे हैं. क्या यह सही राजनीति है और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?


बीजेपी और कांग्रेस के बीच राहुल गांधी के वक्तव्यों को लेकर वाक्युद्ध चल ही रहा है कि एक और रोचक खबर आई. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने राहुल गांधी और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी सहित विरोधी दलों के कई नेताओं को दिल्ली में प्रस्तावित कार्यक्रम 'भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण' में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित पर विचार कर रहा है. यह औपचारिक घोषणा नहीं है. अलबत्ता राहुल और येचुरी इस कार्यक्रम में बोले तो लोकतंत्र के लिए अच्छी बात होगी. यह कार्यक्रम 17 से 19 सितंबर तक चलेगा. इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग से समापन समारोह में हिस्सा लिया था, तब कांग्रेस कुछ असहज नजर आई थी.

सच यह है कि राष्ट्रीय रजनीति में बढ़ती कटुता के पीछे असली वजह चुनावी राजनीति है. भारतीय समाज की बहुलता और भावनात्मक मसलों की लम्बी कतार हमारे अंतर्विरोधों को बार-बार उधेड़ रही है. इसके लिए कोई एक दल जिम्मेदार नहीं है, बल्कि एक माने में समूची राजनीति इसके लिए दोषी है. लम्बे अरसे तक हम भावनात्मक विषयों को कालीन के नीचे दबाते रहे. पुरानी बातें घूम-घूमकर सामने आ रहीं हैं. राहुल गांधी के बयानों के बाद 1984 के सिख दंगों, 2002 के गुजरात दंगों, शाहबानों प्रसंग से लेकर बाबरी-प्रसंग तक फिर उठ रहे हैं.

राहुल गांधी भारतीय सवालों को विदेश में क्यों उठा रहे हैं? वे इस्लामिक स्टेट और मुस्लिम ब्रदरहुड के रूपकों का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? इसकी पहली वजह यह है कि पश्चिमी समाज ये रूपक आसानी से समझ में आते हैं. दूसरे इन वक्तव्यों की प्रतिध्वनि देश में सुनाई पड़ती है. राहुल गांधी 2019 के चुनाव के पहले देश और विदेश में बीजेपी के खिलाफ अपने हर हथियार का इस्तेमाल करेंगे. उन्हें कैसे रोका जा सकता है? वे जो भी कह रहे हैं, वे राजनीतिक बयान है और उनपर फैसला देश की जनता को करना है, जो 2019 में होगा.

वस्तुतः यह चुनाव की प्रस्तावना है. इसकी शुरूआत राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव के ठीक पहले अमेरिका यात्रा से की थी और लगता नहीं कि यह क्रम रुकेगा. कांग्रेस का तर्क यह भी है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने अपनी विदेश यात्राओं के दौरान अपनी पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों पर प्रहार किए थे. ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ. पर हरेक कारण के पीछे कोई और कारण है. नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस ने अपना राजनीतिक-मोर्चा भारत में ही नहीं, विदेश में भी खोला था. कहा जा सकता है कि सन 2005 में अमेरिका ने मोदी का वीजा अपनी तरफ से रद्द किया था. पर यह आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं. वस्तुतः 6 दिसम्बर 1992 से लेकर 2002 के गोधरा कांड और गुजरात दंगों की की एक श्रृंखला है. इनके पीछे राजनीतिक सत्ता प्राप्ति की मनोकामना है.

ऐसा नहीं कि हमारे पास रचनात्मक राजनीति के उदाहरण नहीं हैं. सन 1993 की बात याद आती है, जब मानवाधिकार आयोग में भारत विरोधी प्रस्ताव लाया गया था. उस प्रस्ताव पर चर्चा के लिए भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अटल बिहारी वाजपेयी को जिनेवा भेजा था. उन्हें क्या जरूरत थी विरोधी दल के नेता को भारत का प्रतिनिधित्व सौंपने की? वह भी कश्मीर जैसे संवेदनशील मसले पर?

उन दिनों जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो बार-बार कह रही थीं कि कश्मीर का मसला विभाजन के बाद बचा अधूरा काम है. इस पर नरसिंहराव ने कहा कि पाक-अधिकृत कश्मीर की भारत में वापसी ही अधूरा बचा काम है. वह समय था जब कश्मीर में हिंसा चरमोत्कर्ष पर थी. बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र भारतीय संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. संसद में क्या आज वैसी एकता है? नहीं है तो क्यों? आप भी सोचें.
inext में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (31-08-2018) को "अंग्रेजी के निवाले" (चर्चा अंक-3080) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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