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Tuesday, August 14, 2018

विरोधी-एकता के दुर्ग में दरार

राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में पड़े वोटों के आधार पर राजनीति शास्त्र के शोधछात्र राहुल वर्मा का 2019 के चुनाव में बनने वाले सम्भावित गठबंधनों का अनुमान
राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव ने एकबारगी विरोधी दलों के अंतर्विरोधों को उजागर किया है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत इतनी आसानी से हो जाएगी, इसका अनुमान पहले से नहीं था। पिछले चार साल से विरोधी दल बीजेपी को केवल राज्यसभा में ही परेशान करने में सफल थे। पिछले कुछ समय से बीजेपी की स्थिति राज्यसभा में बेहतर हुई है, पर इतनी बेहतर वह फिर भी नहीं थी कि उसका प्रत्याशी आसानी से चुनाव जीत जाता। पिछले महीने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए की जीत के बाद यह दूसरी जीत उसका आत्मविश्वास बढ़ाएगी।

कांग्रेस समेत विरोधी दलों की रणनीति अलग-अलग राज्यों में संयुक्त प्रत्याशी खड़े करने की है, ताकि बीजेपी-विरोधी वोट बँटने न पाएं। यह रणनीति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और एक हद तक महाराष्ट्र में अब भी कारगर है, पर उसके जिरह-बख्तरों की दरारें भी नजर आने लगी हैं। साफ है सत्तारूढ़ दल ने इस चुनाव को कुछ समय के लिए टालकर बीजू जनता दल और टीआरएस के साथ विचार-विमर्श पूरा कर लिया। यह विमर्श केवल राज्यसभा के उप-सभापति चुनाव तक सीमित नहीं है। अब यह 2019 के चुनाव तक जाएगा। कांग्रेस ने इस चुनाव को या तो महत्व नहीं दिया या उसे भरोसा था कि यह चुनाव इस सत्र में नहीं होगा। कांग्रेस के दो सांसदों का वोट न देना भी उसके असमंजस को बढ़ाने वाला है।



एकता का पूर्वाभ्यास


यह चुनाव वस्तुतः सत्तारूढ़ एनडीए और उसे चुनौती देने वाले कांग्रेस-नीत महा-गठबंधन की एकता का पूर्वाभ्यास साबित हुआ है। इसमें एनडीए की जीत के बाद ऐसी सम्भावनाएं भी बनने लगीं कि सरकार राज्यसभा से ट्रिपल तलाक बिल भी पास करा लेगी। बहरहाल ऐसा हुआ नहीं, पर सम्भावनाओं के कई दरवाजे खुल गए हैं। काफी बातें अब साल के अंत में होने वाले चार राज्यों के विधान सभा चुनावों पर निर्भर करेंगी। देखना यह भी है कि क्या कांग्रेस पार्टी मध्य प्रदेश और राजस्थान में बसपा को साथ लेकर चुनाव में उतरेगी या नहीं। अभी इस बात का इंतजार भी है कि इन राज्यों के चुनावों के साथ लोकसभा चुनाव होंगे या नहीं। सबसे बड़ा सवाल है कि 2019 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी फिर से चुनकर आ सकेगी या नहीं।

कांग्रेस ने खोया-पाया?

पिछले साल अगस्त के महीने में ही अहमद पटेल ने विपरीत परिस्थितियों में गुजरात से राज्यसभा की सीट जीती थी। पर अब कांग्रेस को मिली विफलता के अलग-अलग मतलब निकाले जा रहे हैं। सहयोगी दलों के साथ कांग्रेस के सम्पर्क की व्यवस्था कायम होने में कुछ समय लगेगा। कांग्रेस के सामने अब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों की चुनौती है। सवाल है कि क्या वहाँ महा-गठबंधन की कोई तस्वीर नजर आएगी?मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का कुछ हिस्सों में असर है। ये पार्टियाँ और कुछ नहीं तो वोट काटती हैं। ये पार्टियाँ कांग्रेस का साथ दें, तो बुंदेलखंड और पूर्वी मध्य प्रदेश की 53 सीटों पर बीजेपी के लिए मुकाबला मुश्किल हो जाएगा। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की बसपा के बातचीत चल रही है। कांग्रेस का यूपी में बसपा से सहयोग हो सकता है तो छत्तीसगढ़ में क्यों नहीं?

हार के बाद भी कांग्रेस-नीत विरोधी-एकता के लिए इस चुनाव के कुछ सकारात्मक निष्कर्ष हैं। विरोधी-एकता के कोर दलों की दृढ़ता इस चुनाव में भी व्यक्त हुई है। कांग्रेस, तृणमूल, वाम दलों, एनसीपी, राजद, सपा, बसपा, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस (एम) के सदस्यों ने बीके हरिप्रसाद के पक्ष में मतदान किया। हालांकि इस बीच एनसीपी के प्रत्याशी के उतरने की सम्भावना और बाद में कांग्रेस प्रत्याशी के उतरने की वजह से असमंजस का एक दौर भी रहा। पर अंततः इन पार्टियों ने कांग्रेस के नेतृत्व की अवधारणा को भी बनाए रखा है। दूसरे कुछ पार्टियों को लेकर कांग्रेस का संदेह दूर हुआ है। मसलन अद्रमुक, द्रमुक, तेदेपा, बीजेडी और टीआरएस को लेकर काफी समय तक संशय था। टीआरएस, बीजेडी और अद्रमुक को लेकर वह संशय अब नहीं रहना चाहिए। करुणानिधि के निधन के कारण ज्यादातर द्रमुक सांसद चेन्नई में हैं, फिर भी दो सांसदों ने हरिप्रसाद के पक्ष में वोट डालकर यह स्पष्ट कर दिया कि वह बीजेपी के खिलाफ है। तेदेपा को लेकर संशय फिर भी बना रहेगा, क्योंकि वह मूलतः कांग्रेस-विरोधी पार्टी है। चूंकि आंध्र में जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस अब बीजेपी के करीब जाती नजर आ रही है, इसलिए तेदेपा को मजबूरन कांग्रेस के करीब आना होगा।

बीजेपी का मिशन 2019

पिछले साल अमित शाह ने कहा था कि 2019 में हम 360 सीटें जीतकर आएंगे। सवाल है कि इसके पीछे कुछ दम भी है या यह हवाई उड़ान है? उत्तर प्रदेश में हुए गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के चुनावों में विरोधी दलों की एकता से यह साफ है कि बीजेपी के लिए मुकाबला काफी मुश्किल है। पार्टी को फिर से सत्ता में आने के लिए कम से कम स्पष्ट बहुमत हासिल करना होगा। यदि स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और दूसरे दलों की मदद से सरकार बनाने में उसे सफलता मिल भी गई तो मोदी के नेतृत्व को लेकर सवाल उठ सकते हैं।

बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की कुल संख्या लोकसभा में 338 है। देखना यह भी होगा कि चुनाव में एनडीए और यूपीए के सहयोगी दल कौन से होंगे। राज्यसभा के उप-सभापति के चुनाव में तस्वीर कुछ साफ हुई है। दक्षिण के राज्यों के गठबंधन महत्वपूर्ण होंगे, क्योंकि बीजेपी के लिए सम्भावनाएं दक्षिण में, बंगाल और उत्तर पूर्व के राज्यों में ही हैं। उड़ीसा में बीजद के साथ दोस्ती क्या रंग लाएगी, इसे भी देखना होगा।

वैसा चमत्कार कैसे होगा?

सन 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जिन सीटों पर चुनाव लड़ा था,उनमें से 90 फीसदी पर उसे जीत मिली। क्या वह अगले चुनाव में भी इस सफलता को दोहरा सकती है? उसने गुजरात की 26 में से 26, राजस्थान की सभी 25, दिल्ली की सभी 7, उत्तराखंड की 5, हिमाचल की 4 और गोवा की 2 सीटें जीतीं। इन 69 सीटों के अलावा यूपी की 80 में से 71, मध्य प्रदेश में 29 में से 27, छत्तीसगढ़ में 11 में 10, झारखंड में 14 में 12 सीटें उसे मिलीं। यानी 134 में से 120 सीटें उसे मिली थीं। कुल 203 में से 189 सीटों में उसे जीत हासिल हुई थी। सामान्य समझ कहती है कि विरोधी-एकता और एंटी-इनकम्बैंसी के कारण बीजेपी को इनमें से करीब 70 सीटोंसे हाथ धोना होगा।

उपरोक्त गणना के अलावा बीजेपी को पिछले चुनाव में कर्नाटक की 28 में से 17, असम की 14 में से 7 और हरियाणा की 10 में से 7 सीटें मिलीं थीं। इनमें उतार-चढ़ाव सम्भव है। इन 253 सीटों में से उसके पास 220 सीटें थीं। व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो ये सीटें भी बढ़ने के बजाय कम हो सकती हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, सपा और बसपा एक साथ हैं। बिहार में बीजेपी-लोजपा के अलावा जेडीयू भी एनडीए में है। इसका मतलब है कि पार्टी को जेडीयू के लिए सीटें छोड़नी होंगी। एनडीए को पिछले चुनाव में 40 में 28 सीटें मिलीं थीं। इनमें से 22 बीजेपी की थीं। जेडीयू की हैसियत बढ़ने से बीजेपी की ताकत पर असर पड़ेगा, भले ही एनडीए की ताकत बढ़े।

आंध्र में तेदेपा-बीजेपी गठबंधन को 25 में से 17 सीटें मिलीं थीं। महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को 48 में से 41 सीटें मिलीं। इनमें से 23 सीटें बीजेपी के पास हैं। वहाँ गठबंधन रहेगा या नहीं, अभी कहना मुश्किल है। जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-बीजेपी गठबंधन को सभी 6 (3 और 3) सीटें मिलीं। पंजाब में बीजेपी-अकाली गठबंधन को 13 में से 6 सीटें मिलीं। इनमें से दो सीटें बीजेपी की थीं।

बीजेपी को 2014 की स्थिति पर पहुँचने के लिए 60-70 सीटों की व्यवस्था उन क्षेत्रों से करनी होगी, जहाँ बीजेपी की पैठ नहीं है। ऐसे स्थान कौन से हैं? बंगाल, जहाँ 42 में से बीजेपी के पास दो सीटें हैं, ओडिशा जहाँ 20 में से एक है, तमिलनाडु जहाँ 39 में से एक है, तेलंगाना जहाँ 17 में से एक सीट उसके पास है और केरल जहाँ 20 में से एक भी सीट उसके पास नहीं है।बीजेपी को पूर्वोत्तर में सफलता मिलेगी, जहाँ असम को मिलाकर कुल 25 सीटें हैं। पार्टी यहाँ से 21 सीटों की उम्मीद कर रही है।

केजरीवाल की व्यथा

हालांकि दिल्ली में कुल जमा 7 सीटें हैं, पर उनका प्रतीकात्मक महत्व बहुत ज्यादा है। सन 2014 के चुनाव में बीजेपी का सातों सीटों पर जीतना और 2015 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का 67 सीटों पर जीतना इतिहास में दर्ज हो गया। पर अब यमुना में काफी पानी बह चुका है। कांग्रेस अब दिल्ली में अपनी स्थिति बेहतर बनाना चाहती है। पिछले कुछ समय से आम आदमी पार्टी की कोशिश थी कि कांग्रेस के साथ उसका समझौता हो जाए, पर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं है। यहाँ तक कि राज्यसभा-चुनाव में कांग्रेस ने बीके हरिप्रसाद के पक्ष में ‘आप’ से वोट भी नहीं माँगा। इस बात से उत्तेजित होकर ‘आप’ ने चुनाव का बहिष्कार किया और फिर अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की कि हम अगले आम चुनाव में विपक्ष के प्रस्तावित गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। उन्होंने यह भी कहा,‘गठबंधन की राजनीति से कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिए राजनीति का मतलब जनता और उसका विकास है।’बहरहाल वे अकेले पड़ गए हैं, और आगे की डगर काफी कठिन है।

नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-08-2018) को "स्वतन्त्रता का मन्त्र" (चर्चा अंक-3064) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    स्वतन्त्रतादिवस की पूर्वसंध्या पर
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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