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Sunday, July 1, 2018

'हवा का बदलता रुख' और कांग्रेस


हाल में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के धरने के वक्त विरोधी दलों की एकता के दो रूप एकसाथ देखने को मिले। एक तरफ ममता बनर्जी समेत चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने धरने का समर्थन किया, वहीं कांग्रेस पार्टी ने न केवल उसका विरोध किया, बल्कि सार्वजनिक रूप से अपनी राय को व्यक्त भी किया। इसके बाद फिर से यह सवाल हवा में है कि क्या विरोधी दलों की एकता इतने प्रभावशाली रूप में सम्भव होगी कि वह बीजेपी को अगले चुनाव में पराजित कर सके।

सवाल केवल एकता का नहीं नेतृत्व का भी है। इस एकता के दो ध्रुव नजर आने लगे हैं। एक ध्रुव है कांग्रेस और दूसरे ध्रुव पर ममता बनर्जी के साथ जुड़े कुछ क्षेत्रीय क्षत्रप। दोनों में सीधा टकराव नहीं है, पर अंतर्विरोध है, जो दिल्ली वाले प्रसंग में मुखर हुआ। इसके अलावा कर्नाटक सरकार की कार्यशैली को लेकर भी मीडिया में चिमगोइयाँ चल रहीं हैं। स्थानीय कांग्रेस नेताओं और जेडीएस के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के बीच मतभेद की बातें हवा में हैं। पर लगता है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कर्नाटक में किसी किस्म की छेड़खानी करने के पक्ष में नहीं है। उधर बिहार से संकेत मिल रहे हैं कि नीतीश कुमार और कांग्रेस पार्टी के बीच किसी स्तर पर संवाद चल रहा है।


पोस्ट-पेड या प्री-पेड एकता?

ज्यादा बड़ा सवाल है कि विरोधी दल चुनाव के पहले क्या किसी किस्म के औपचारिक गठबंधन में शामिल होंगे या यह एकता अनौपचारिक ही बनी रहेगी और अलग-अलग राज्यों में कच्चे-पक्के गठबंधन होंगे। लोकसभा के पिछले चुनाव के पहले ममता बनर्जी ने कहा था कि राजनीति में फिलहाल ‘पोस्ट-पेड’ का ज़माना है ‘प्री-पेड’ का नहीं। कुछ इसी तरह की बात हाल में सीताराम येचुरी ने कही है। विरोधी दलों के अंतर्विरोधों के बरक्स इस विचार को रखें, तो उसके कारण साफ नजर आते हैं। सहमतियों और असहमतियों के कारण इतने ज्यादा हैं कि कठोर सूत्रों से बँधी एकता की कोशिश करना एकता के विरोध में जाना होगा।

विरोधी दलों की एकता को दो नजरियों से देखा जाना चाहिए। एक नजरिया कांग्रेस का और दूसरा गैर-कांग्रेसी दलों का। कांग्रेस की दृष्टि इस एकता के केंद्र में रहने की है, जबकि क्षेत्रीय क्षत्रपों का नजरिया खुद को केंद्र में रखने का है। इस वजह से यह नहीं मान लेना चाहिए कि विरोधी-एकता सम्भव नहीं। फिलहाल इस एकता से दो बातें निकल कर आई हैं। एक, यह एकता मूलतः भाजपा-विरोधी है। लोकसभा के पिछले चुनाव में तीसरे मोर्चे की अवधारणा में एक अंतर्विरोध यह था कि कुछ लोग गैर-भाजपा मोर्चे के पक्ष में थे और कुछ गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेसमोर्चे के पक्ष में। अब जो एकता बन रही है, उसमें कांग्रेस स्वीकार्य है। सवाल नेतृत्व का है।

एकता के अंतर्विरोध

औपचारिक गठबंधन हो या न हो, पर इतना स्पष्ट है कि विरोधी दलों के साथ कांग्रेस पार्टी समन्वय करके चलेगी। हालांकि कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद संभालने के लिए तैयार हूँ, पर इससे विरोधी एकता में कोई टकराव पैदा होने वाला नहीं है। विरोधी दल सायास नेतृत्व का सवाल उठाने की कोशिश नहीं करेंगे। वे इसके लिए चुनाव परिणामों का इंतजार करेंगे। कांग्रेस केंद्र में हो या नहीं हो, पर इतना साफ है कि कांग्रेस की भूमिका इसमें सबसे बड़ी होगी। कांग्रेस के पास देश के सबसे ज्यादा हिस्सों में मौजूद संगठन है। बीजेपी का संगठन बड़ा हो सकता है, पर इतना व्यापक नहीं है।

यहाँ आकर सवाल खड़ा होता है कि कांग्रेस की दिशा क्या है? क्या वह दिल्ली की सत्ता फिर से अपने हाथों में लेने को तैयार है? क्या पार्टी का संगठन इतना मजबूत है कि वह चुनाव जीतने में सफल होगा? इस साल मार्च में हुआ कांग्रेस महासमिति का 84 वां अधिवेशन दो बातों से महत्वपूर्ण रहा। पार्टी में लम्बे अरसे बाद नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। इस अधिवेशन में राहुल गांधी की अध्यक्षता की पुष्टि हुई। अध्यक्ष पद की सर्वसम्मति से पुष्टि के अलावा अधिवेशन के अंतिम दिन राज्यों से आए प्रतिनिधियों और एआईसीसी के सदस्यों ने फैसला किया कि कांग्रेस कार्यसमिति के मनोनयन का पूरा अधिकार अध्यक्ष को सौंप दिया जाए।

फिर से खड़ी हुई कांग्रेस

इस महाधिवेशन के साथ कांग्रेस ने एक नए दौर की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। कांग्रेस महाधिवेशन में पारित राजनीतिक प्रस्ताव में फिर से खड़ी हुई कांग्रेस वाक्यांश ध्यान खींचता है। पार्टी की अगली कतार में नए नेताओं की शक्लें नजर आने लगीं हैं, पर कार्यसमिति का गठन अब भी नहीं हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर घटनाक्रम बदल रहा है। हाल में जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक बदलाव हुआ है। संसद का मॉनसून सत्र आने वाला है। उधर केंद्र सरकार कई तरह की घोषणाएं करने वाली है। ऐसे में पार्टी को अपना स्टैंड तय करने की जरूरत होगी। बेशक पार्टी की समितियाँ काम कर रहीं हैं, पर ज्यादातर समितियाँ पिछले नेतृत्व के समय की हैं। पार्टी को अब नए समय के हिसाब से नई रणनीतियों की जरूरत होगी। इसके लिए नई कार्यसमिति के गठन की जरूरत है। कांग्रेस ने कर्नाटक सरकार में शामिल होने का फैसला अनौपचारिक तरीके से किया था। कार्यसमिति होती तो उसमें इस विषय पर विचार होता। पार्टी ने इस देश पर सबसे लम्बे समय तक राज किया है। राष्ट्रीय सवालों पर उसका नजरिया माने रखता है।

पार्टी के लिए यह साल बहुत महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। कर्नाटक में तेजी से फैसला करके उसने अपनी वरीयताओं को स्पष्ट कर दिया है। अब उत्तर भारत के तीन राज्यों में होने वाले चुनावों में उसके नेतृत्व और संगठन दोनों की परीक्षा होगी। इन चुनावों में मिली किसी भी स्तर की सफलता पार्टी के आत्मविश्वास को बढ़ाने वाली होगी। इस आत्मविश्वास से राहुल गांधी का नेतृत्व मजबूत होगा। उसके आधार पर ही सीटों को लेकर होने वाले समझौतों में पार्टी की भूमिका बढ़ेगी। कांग्रेस को केवल 2019 के चुनाव के बारे में ही नहीं, उसके आगे के बारे में भी सोचना है।

कौन है कांग्रेस के साथ?

कहा जा रहा है कि केवल बिहार का राजद ही पूरी तरह कांग्रेस के साथ है, बाकी दल अपनी-अपनी गोटियाँ खेल रहे हैं। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश ,बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और केरल में स्थिर गठबंधनों की जरूरत है। उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा के साथ कांग्रेस के अच्छे रिश्ते हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ दूरियाँ बढ़ने के बाद अब नजदीकियाँ भी बढ़ रहीं हैं। तमिलनाडु में कांग्रेस और द्रमुक-गठबंधन टूट चुका है। वहाँ के राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं, इसलिए उनपर नजर रखनी होगी। जिन तीन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं, उनमें कांग्रेस का अपना जनाधार काफी अच्छा है। तीनों जगह उसे किसी बड़े गठबंधन की जरूरत नहीं है। केवल स्थानीय स्तर पर समन्वय की जरूरत है।
हाल में दिल्ली में ममता बनर्जी के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी को दिए गए समर्थन के पीछे इरादा कांग्रेस को यह संदेश देने का था कि बीजेपी को हराना है तो हमारी बातों पर ध्यान देना होगा। ममता बनर्जी के साथ गए तीन मुख्यमंत्रियों में केवल एचडी कुमारस्वामी का कांग्रेस के साथ गठबंधन है। बंगाल में ममता बनर्जी, केरल में पिनाराई विजयन और आंध्र में चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस के प्रतिस्पर्धी हैं। इतना ही नहीं, पिनाराई विजयन की पार्टी बंगाल में ममता बनर्जी की मुख्य प्रतिस्पर्धी है।

वस्तुतः दिल्ली में कांग्रेस की प्रतिस्पर्धी पार्टी का समर्थन करके ममता बनर्जी ने विरोधी-एकता के अंतर्विरोध को उभारा है, जो ठीक नहीं लगता। आप ने भी दो हफ्ते पहले कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने की कोशिश की थी। पर कांग्रेस ने अपना मुँह फेर लिया। दिल्ली में कांग्रेस और आप एक साथ आएंगे तो बीजेपी के लिए मुश्किल जरूर पैदा होगी, पर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं है। यह कांग्रेस के बढ़े हुए आत्मविश्वास की निशानी है।

तीन राज्यों के परिणामों का इंतजार

मोटे तौर पर कांग्रेस विरोधी-एकता के पक्ष में है, पर वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों का इंतजार करेगी। इन तीनों राज्यों में उसका बीजेपी से सीधा मुकाबला है। पार्टी की वरीयता विरोधी एकता के केंद्र में रहने की है, परिधि में रहने की नहीं। परिधि में वहीं रहेगी, जहाँ वह कमजोर है। यदि तीन राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को सफलता मिली तो उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा। यहाँ से वह ऐसे गठबंधन की रूपरेखा बना सकती है, जो उसके अनुरूप हो। उसे अपनी सुधरती स्थितियाँ भी नजर आ रहीं हैं। पार्टी के अंदरूनी सूत्र कहते हैं कि कुछ समय इंतजार कीजिए, हवा का रुख बदल रहा है।
राष्ट्रीय सहारा हस्तक्षेप में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-07-2018) को "अतिथि देवो भवः" (चर्चा अंक-3018) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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