मई
की महीना वैश्विक और हिन्दी-पत्रकारिता की दो तारीखों के लिए याद किया जाता है. हर
साल 3 मई को दुनिया ‘प्रेस-फ्रीडम
डे’ मनाती है. और 30 मई को हम ‘हिन्दी पत्रकारिता दिवस’ मनाते हैं. मौका है कि
हम अपने बारे में बात करें. वैश्विक-पत्रकारिता विसंगतियों से गुज़र रही है. संचार-तकनीक
में क्रांतिकारी बदलाव आया है. सोशल मीडिया ने सबको अपनी बात कहने का मौका दिया
है. वहीं ‘फेक-न्यूज़’ ने मीडिया के नकारात्मक पहलू को उजागर किया
है. हाल में टाइम्स ऑफ इंडिया एमडी विनीत जैन ने ‘फेक-न्यूज़’ को लेकर कई ट्वीट किए.
‘फेक-न्यूज़’ पर चर्चा चल ही रही थी कि किसी ने टाइम्स
ऑफ इंडिया की एक खबर की हैडलाइन को नकारात्मक अर्थों में बदल कर सोशल मीडिया पर
चला दिया. विनीत जैन ने इस छेड़छाड़ के मास्टर-माइंड को खोज निकालने की घोषणा की
है. शायद वे सफल हो जाएं, पर इससे ‘फेक-न्यूज़’ का खतरा खत्म नहीं होगा. पिछले चार सौ साल
में पत्रकारिता और लोकतंत्र का साथ-साथ विकास हुआ है. दोनों एक-दूसरे पूरक हैं.
बीसवीं सदी के शुरूआती वर्षों ने औपनिवेशिक जंजीरों को
काटकर एक नई स्वतंत्र दुनिया की रचना की है. इस दुनिया में एक कोने पर भारत जैसे
नव-स्वतंत्र देश हैं, जिन्होंने पश्चिमी लोकतांत्रिक शैली को अपनाया है, जिसमें
सूचना और अभिव्यक्ति की आजादी की केन्द्रीय भूमिका है. दूसरी तरफ चीन जैसा विशाल
देश है, जो सूचना और अभिव्यक्ति के साम्यवादी फॉर्मूलों पर वह दृढ़ है, जो सौ साल
पहले बोल्शेविक क्रांति के बाद गढ़े गए थे. उसकी विसंगति यह है कि उसने
आर्थिक-विकास का पूँजीवादी रास्ता अपनाया है.
पश्चिमी-पत्रकारिता में भी विसंगतियाँ हैं. इराक़ और
अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिकी कार्रवाई के दौरान ‘एम्बैडेड जर्नलिज्म’ की शुरुआत हुई, जिसका दोष ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ और ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ जैसे अखबारों पर भी आया. अमेरिकी विचारक नोम चॉम्स्की के अनुसार
अख़बार व्यवस्था
के पक्ष में जनता की सहमति तैयार कर रहे हैं. सूचना और अभिव्यक्ति पर कॉरपोरेट-पूँजी
का दबाव है. राज-सत्ता पर कब्जा करने के औजार के रूप में सूचना का इस्तेमाल हो रहा
है.
दुनिया
के सामने सवाल है सूचना की पवित्रता को कायम रखने के लिए क्या किया जाए? सामान्य नागरिक स्तब्ध
है. उसे समझ में नहीं आता कि सच क्या है?
सांस्कृतिक-सामाजिक और साम्प्रदायिक
भावनाओं के भँवर उसे घेर रहे हैं. यदि सूचना ‘फेक’ है, तो उसके आधार पर नागरिक अपना वोट कैसे
तय करेंगे? सत्ता के मैनेजरों के पास सूचना की
चाभी आ गई, तो वे सारी दुनिया को जैसा चाहेंगे, हाँकेंगे. पर ऐसा होगा नहीं. जनता
भी सोचती-विचारती है.
कुछ
दिन पहले पत्रकारों की अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ की रिपोर्ट ने भारतीय पत्रकारिता को लेकर
दुनिया का ध्यान खींचा है. यह संस्था हर साल दुनिया के 180 देशों में पत्रकारिता की आजादी का सूचकांक जारी
करती है. इस सूचकांक में भारत का स्थान पिछले कुछ वर्षों में गिरा है. इस साल वह 138वें
स्थान पर है. भूटान (94), कुवैत (105), नेपाल (106), अफ़ग़ानिस्तान (118), मालदीव
(120) और श्रीलंका (131) जैसे देश भारत से ऊपर हैं. पाकिस्तानी ठीक नीचे 118वीं
सीढ़ी पर है. अमेरिका 45वीं सीढ़ी पर है। इसके पिछले साल वह 43वें स्थान पर था.
इसमें
सबसे नीचे के देश हैं वियतनाम (175), चीन (176), सीरिया(177) और उत्तरी
कोरिया(180)। मान लेते हैं कि चीन और उत्तरी कोरिया के अख़बार स्वतंत्र नहीं हैं,
पर सूरीनाम (21), समोआ(22), घाना(23) और लात्विया(24) के अख़बार क्या ब्रिटेन (40)
और अमेरिका (45) के अखबारों से ज्यादा स्वतंत्र हैं? इन देशों में आंतरिक-टकराव कम है. अमेरिका में
डोनाल्ड-ट्रंप की राजनीति को उसी नज़रिए से देखा जाता है जैसे भारत के मोदी की राष्ट्रवादी
राजनीति को देखा जाता है.
अभिव्यक्ति
की आजादी के राजनीतिक निहितार्थ हैं. अमेरिकी मीडिया ट्रंप का आलोचक है. ट्रंप उसे
‘जनता का शत्रु’ मानते हैं. वैसे ही जैसे रूसी तानाशाह जोसफ
स्टालिन अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर लेखकों और कलाकारों को ‘जनता का शत्रु’ कहते थे. भारत के संदर्भ में इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हिन्दू
राष्ट्रवादी हर उस विचार को ‘राष्ट्रविरोधी’ कह रहे हैं, जिससे वे असहमत हैं, पर मुख्यधारा का मीडिया सरकारी लाइन का समर्थक है. पिछले
साल गौरी लंकेश समेत कम से कम तीन पत्रकारों की उनके पत्रकारीय कर्म के कारण हत्या
की गई.
पिछले
तीन-चार दिन से रायटर्स की एक रिपोर्ट चर्चा का विषय बनी है. यह कहती है कि कुछ भारतीय
पत्रकारों की शिकायत है कि बीजेपी या मोदी की आलोचना करने पर उन्हें धमकाया जाता
है और बहिष्कार किया जाता है. राजू गोपालकृष्णन की इस रिपोर्ट में प्रणय रॉय, सागरिका घोष, सिद्धार्थ वरदराजन, रवीश कुमार और हरीश खरे वगैरह के विचार
दर्ज हैं. ये पत्रकार मोदी-विरोधी माने जाते हैं. सोशल मीडिया में इनके विरोधियों
की तादाद काफी बड़ी है, पर इनके समर्थक भी हैं. इनके पास अपना मीडिया भी है.
भारतीय
न्यायपालिका ने हमेशा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में फैसले सुनाए हैं. इसलिए
कोई धारणा केवल राजनीति के आधार पर नहीं बनाई जानी चाहिए. संविधानिक-संस्थाओं की
भूमिका पर भी ध्यान देना चाहिए. मीडिया में मोदी-समर्थकों और मोदी-विरोधियों की
विभाजक रेखा साफ है. ‘नीर-क्षीर’ विवेचन करने वाली प्रवृत्तियाँ कमजोर हैं,
पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि गौरी लंकेश की हत्या होने पर देश ने प्रतिवाद किया
था.
दिक्कत
हमारी राजनीति में है, जिसकी छाया पत्रकारिता पर भी पड़ती है. देशी-विदेशी
पत्रकारों का ध्रुवीकरण सन 2014 में बीजेपी की सरकार आने के पहले से है. ब्रिटिश
साप्ताहिक ‘इकोनॉमिस्ट’ ने साफ-साफ मोदी को हराने की अपील की थी. ‘गार्डियन’ ने
लेखकों और अकादमीशियनों के लेख छाप कर मोदी की जीत को हर कीमत पर रोकने की अपील की
थी. ऐसी अपीलों के जवाब में मोदी-समर्थक अपीलें भी हुईं. संस्कृति-समाज की प्रतिच्छाया
मीडिया पर पड़ रही है. जरूरत उसकी साख बचाने की है. ऐसे दौर में, जब तथ्यों की
पड़ताल जरूरी होती जा रही है, मीडिया-हाउसों को विचार-मंथन करना चाहिए. उन्हें ऐसे
दिशा-निर्देश बनाने चाहिए, जो रास्ता दिखाएं. सामाजिक-टकराव के दौर में साख बनाए
रखने के लिए हमें सोचना चाहिए.
inext में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-05-2018) को "ये क्या कर दिया" (चर्चा अंक-2960) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आज कि पत्रकारिता राजनीती तन्त्र से घिरी है वो स्वतंत्र होकर काम नही कर पा रही है.
ReplyDeleteआज कि पत्रकारिता रूपये कमाने का साधन माना जाता है न कि सही व पक्ष रहित खबर देने का जरिया.
स्वागत हैं आपका खैर