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Sunday, April 8, 2018

मज़ाक तो न बने संसदीय-कर्म

लोकतांत्रिक गतिविधियों में दो सबसे महत्वपूर्ण कार्य हैं, जिनके कारण यह व्यवस्था सफल है। एक, चुनाव और दूसरे संसदीय कर्म। जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने और देश के सामने उपस्थित सवालों के जवाब खोजने में दोनों की जबर्दस्त भूमिका है। दुर्भाग्य से दोनों के सामने सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। चुनाव के दौरान सामाजिक-जीवन की विसंगतियाँ भड़काई जाने लगी हैं। लोकतंत्र की तमाम नकारात्मक भूमिकाएं उभर रहीं हैं। समाज को तोड़ने का काम चुनाव करने लगे हैं।
उधर संसदीय-कर्म को लेकर जो सवाल उभरे हैं, वे उससे भी ज्यादा निराश कर रहे हैं। संसदीय गतिरोधों के कारण जनता का विश्वास अपनी व्यवस्था पर से उठ रहा है। सामान्य नागरिक को समझ में नहीं आ रहा है कि इस सर्वोच्च लोकतांत्रिक मंच पर यह सब क्या होने लगा है? इस हफ्ते संसद के बजट सत्र का समापन बेहद निराशाजनक स्थितियों में हुआ है। पिछले 18 वर्षों का यह न्यूनतम उत्पादक सत्र था। इस सत्र के दौरान लोकसभा ने अपने मुकर्रर समय के 21 फीसदी और राज्यसभा ने 27 फीसदी समय में काम किया। बाकी वक्त बरबाद हो गया।
बजट सत्र के दो हिस्से होते हैं। बजट पेश होने के कुछ समय बाद सत्र कुछ समय के लिए स्थगित हो जाता है। उसके दूसरे हिस्से में बजट पर और दूसरे मसलों पर चर्चा होती है। इसबार बजट सत्र के पहले दौर में लोकसभा ने 89 फीसदी और राज्यसभा ने 96 फीसदी समय का इस्तेमाल किया। यानी कि दूसरे दौर में लोकसभा ने अपने समय के 4 फीसदी और राज्यसभा ने 9 फीसदी समय का इस्तेमाल किया। दूसरे दौर में लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास-प्रस्ताव के नोटिस भी दिए गए, पर व्यवधान के कारण उनपर विचार नहीं हो पाया।
यह सब पहली बार नहीं हुआ है और न संसदीय कर्म को लेकर पहली बार सवाल उठे हैं। पंद्रहवीं लोकसभा के अंतिम दिनों में भी संसदीय कार्यवाही असाधारण शोरगुल की शिकार हुई थी। सन 2013 में भी सरकार के खिलाफ अविश्वास-प्रस्ताव लाया गया था, जिसपर विचार नहीं हुआ। चौदहवीं लोकसभा में भी सरकार के खिलाफ अविश्वास-प्रस्ताव को विश्वास-मत में बदल दिया गया था, जिसमें सरकार जीत गई थी। राजनीतिक दलों की चुनावी रणनीति की वजह से भी ऐसे प्रस्ताव सामने आते हैं। दुर्भाग्य से न्यायपालिका को भी राजनीति के चपेटे में लेने की कोशिशें हैं। हमारा लोकतंत्र पराभव की और बढ़ रहा है।
यह भी सच है कि हमारे राजनीतिक-सामाजिक सुधारों में संसद की भूमिका रही है। पिछड़े सामाजिक वर्गों के अधिकारों से लेकर पंचायत राज तक और सूचना और भोजन के अधिकार से लेकर शिक्षा के अधिकार तक तमाम सुधारों में संसद की भूमिका रही है। सोलहवीं लोकसभा ने जीएसटी और बैंकिग सुधारों से जुड़े कानूनों को पास करके इस काम को बढ़ाया है, पर लम्बित पड़े विधेयकों की सूची भी लम्बी होती जा रही है। पंद्रहवीं लोकसभा ने शिक्षा का अधिकार दिया। खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण कानून बनाए और 'विसिल ब्लोवर' संरक्षण और लोकपाल विधेयक पास किए। पर, उस लोकसभा के आख़िरी सत्र में मिर्च के स्प्रे, चाकू के प्रदर्शन, सदस्यों के निलंबन और लगातार शोर-गुल ने संसदीय कर्म में गिरावट परिचय भी दिया।  
फरवरी 2014 में तेलंगाना मुद्दे पर हुई बहस का लोकसभा चैनल पर प्रसारण रोका गया। वह पहला मामला था, जब लोकसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण इस तरीके से बंद किया गया। इससे पहले सन 2010 में टूजी मामले पर और 2012 में कोयला घोटाले को लेकर पूरे सत्र धुले थे। गतिरोध भी संसदीय-कर्म है। अनेक अवसर ऐसे भी आते हैं, जब व्यवधान की सकारात्मक भूमिका होती है। संसद में विरोध दर्ज कराना भी लोकतांत्रिक गतिविधि है। सांसद सदन के फर्श पर खड़े होकर या बैठ कर पीठासीन अधिकारी के आस-पास नारे लगते हैं। पर इन सब बातों की भी सीमा होनी चाहिए।
इसबार संसद के बजट सत्र के उत्तरार्ध में वित्त विधेयक बगैर किसी चर्चा के 18 मिनट में पास हो गया। क्या हमने इसके निहितार्थ पर विचार किया? महत्वपूर्ण संसदीय कर्म को इतने सरसरी तरीके से निपटा दिया गया। अब इस मामले पर राजनीतिक रोटियाँ सिंक रहीं हैं। केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार ने कहा है कि सत्र के दूसरे भाग की बरबादी के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। इसके विरोध में बीजेपी के सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में 12 अप्रैल को उपवास पर बैठेंगे। एनडीए के सांसद 23 दिन का वेतन और अन्य भत्ते नहीं लेंगे। उधर कांग्रेस तथा दूसरे विरोधी दलों का कहना है कि सरकार ने कार्यवाही नहीं होने दी।
दुनियाभर की संसदीय परंपराओं ने ‘फिलिबस्टरिंग’ की अवधारणा विकसित की है। इसे सकारात्मक गतिरोध कह सकते हैं। बहस को लम्बा खींचा जाता है ताकि कोई फ़ैसला ही न हो सके, या प्रतिरोध ज़ोरदार ढंग से दर्ज हो वगैरह। हमारे यहाँ साल 2011 के दिसंबर महीने में लोकपाल विधेयक लोकसभा से पास होकर जब राज्यसभा में आया, तब उस पर लम्बी बहस चली। विधेयक में 187 संशोधन पेश हो गए। एक प्रकार से यह अनौपचारिक फिलिबस्टर था। विधेयक पास नहीं हो पाया। पर जब सरकार को समझ में आया कि इस विधेयक को पास होना चाहिए, तो फटाफट पास भी हो गया।   
सवाल है कि यह सब क्यों होता है? इसके लिए जिम्मेदार सरकार है या विपक्ष? या समूची राजनीति, जिसे संसदीय कर्म की मर्यादा को लेकर किसी प्रकार की चिंता नहीं है? सिद्धांततः सदन के संचालन की जिम्मेदारी सरकार की है। उसे सभी पक्षों के साथ बात करके इस बात पर सहमति बनानी चाहिए कि किन प्रश्नों पर, कितनी देर विचार होगा। संसद सभी राजनीतिक दलों को अपनी बात देश के सामने रखने का मौका देती है।
सरकार की ओर से कहा जाता है कि विरोधी दल गतिरोध पैदा करते हैं। पर सदन के संचालन के लिए पीठासीन अधिकारी के पास काफी अधिकार होते हैं। गतिरोध पैदा करने वाले सदस्यों को सदन से बाहर निकालने, यहाँ तक की उनकी सदस्यता निलंबित करने के अधिकार भी पीठासीन अधिकारी के पास हैं। हालात काबू से बाहर हो जाएं, तो इन अधिकारों का इस्तेमाल होना चाहिए। जनता तक गलत संदेश नहीं जाना चाहिए। राजनीति की भी मर्यादा है। उसे मजाक बनने से रोकें। सरकारी नीतियों पर सहमति और असहमति अपनी जगह है। लोकतांत्रिक मूल्यों और राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जिम्मेदारी सभी दलों की है।










1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-04-2017) को "छूना है मुझे चाँद को" (चर्चा अंक-2936) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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