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Friday, April 27, 2018

निराशाराम!!!

एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में जोधपुर कोर्ट ने बाबा आसाराम को उम्र कैद की सज़ा सुनाई है। उनके साथियों को भी सजाएं हुईं हैं। आसाराम बापू का नाम उन बाबाओं में लिया जाता है, जिनका गहरा राजनीतिक रसूख रहा है। देश के बड़े-बड़े नेता उनके दरबार में मत्था टेकते रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने एक वीडियो जारी किया है, जिसमें नरेन्द्र मोदी के साथ आसाराम नजर आ रहे हैं। सच यह है कि बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेता भी उनके भक्त रहे हैं। भक्तों की बड़ी संख्या राजनीति को इस धंधे की तरफ खींचती है।  

संयोग है कि पिछले दो-तीन साल में एक के बाद अनेक कथित संतों का भंडाफोड़ हुआ है। बाबा रामपाल, आसाराम बापू और फिर गुरमीत राम रहीम की जेल-यात्रा ने भारत की बाबा-संस्कृति को लेकर बुनियादी सवाल खड़े किए हैं। क्या बात है, जो इन बाबाओं के पीछे इतनी बड़ी संख्या में भक्त खड़े हो जाते हैं? आसाराम बापू के संगठन का दावा है कि दुनियाभर में उनके चार करोड़ भक्त हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं कि बाबा पर लगे आरोप सही हैं। वे मानते हैं कि उन्हें फँसाया गया है।

बहरहाल वे इस मामले को अगली अदालत में ले जाएंगे। पर बाबा-संस्कृति से जुड़े सवालों के बारे में हमें सोचना चाहिए। वह क्या बात है, जो इतनी बड़ी संख्या में लोगों को बाबाओं की शरण में ले जाती है?  और फिर वह क्या बात है जो बाबाओं और संतों को भक्ति के बजाय सांसारिक ऐशो-आराम और अपराधों की ओर ले जाती है? उनके रुतबे-रसूख का आलम है कि राजनीतिक दल उनकी आरती उतारते हैं। उनके पीछे एक लम्बा वोट बैंक होता है।   

भक्तों की आस्था इन गुरुओं से इस हद तक जुड़ी होती है कि वे हिंसा पर उतर आते हैं। जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की थी, तकरीबन वैसी ही हिंसा उसके पहले मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस के बीच भिड़ंत में हुई थी। उसमें 24 लोग मरे थे।

क्या यह हमारी संत-परम्परा का दोष है?  क्या ये संत वैसे ही हैं, जैसे अतीत में होते थे? हमारी संत-परम्परा बहुत समृद्ध है। पर उन संतों और आज के संतों की तुलना नहीं की जा सकती। सच्चे संत ऐशो-आराम के तलबगार नहीं होते। पुराने संत झोंपड़ों में रहते थे और आज के संत महलों में रहते हैं, जो अक्सर जमीन पर कब्जा करके बनते हैं। आज आसाराम के साथ खड़े होने की हिम्मत कोई राजनेता नहीं कर रहा है। पर यह स्थिति आने में वक्त लगा है। उनके खिलाफ जब शुरू में मामले आए, तो लगा कि महत्वपूर्ण व्यक्तियों के खिलाफ लोग आरोप लगाते हैं, वैसा ही होगा। पर मामले बढ़ते गए। धीरे-धीरे राजनेताओं ने उनसे दूरियाँ बढ़ा लीं।

आसाराम का आर्थिक साम्राज्य काफी बड़ा है। करीब दस हजार करोड़ रुपये की सम्पदा उनके पास बताई जाती है। इस सम्पत्ति की जांच प्रवर्तन निदेशालय कर रहा है। इस जांच में आश्रम निर्माण के लिए गलत तरीके से जमीन हड़पने के मामले भी शामिल हैं। पत्रिकाएं, धार्मिक पुस्तकें, सीडी, साबुन, अगरबत्ती, आयुर्वेदिक औषधियों और अन्य धार्मिक सामग्रियों का बड़ा कारोबार है। तकरीबन यही कहानी बाबा राम-रहीम के डेरे की है।

बाबा की सज़ा से ज्यादा महत्वपूर्ण मसला यह भी है कि उनके साम्राज्य का संचालन कैसे होगा। संयोग से उनका बेटा नारायण साईं भी आपराधिक मामलों से घिरा है और लम्बे अर्से से जेल में है। लेकर परिवार के भीतर भी खींचतान है। बहरहाल इस वक्त उनकी सम्पत्ति की व्यवस्था बेटी भारती देख रही हैं। कई प्रकार के व्यवसायी उनसे जुड़े हैं। इस पूरे प्रकरण का आर्थिक-पहलू एक अलग विषय है। बाबा-संस्कृति के साथ एक नए प्रकार की कारोबारी-संस्कृति विकसित हुई है। इसके कारण बाबाओं के जीवन में विलासिता ने प्रवेश किया है। धीरेन्द्र ब्रह्मचारी और चंद्रास्वामी जैसे संतों के कारण संत-वृत्ति की राजनीतिक-प्रासंगिकता भी स्थापित हुई है।

इस हफ्ते जिस मामले में फैसला आया है, वह 2013 का है। पीड़ित लड़की का परिवार आसाराम का भक्त था। लड़की उनके आश्रम में पढ़ती थी। भक्ति का आलम यह था कि लड़की के पिता ने अपने खर्च से शाहजहांपुर में आश्रम बनवाया था। बाबा के खिलाफ यह पहला आपराधिक मामला नहीं था। वर्ष 2008 में उनके मोटेरा आश्रम में दो बच्‍चों की हत्या का मामला सामने आया था। यह मामला अहमदाबाद के सत्र न्यायालय में विचाराधीन है। बाबा के बेटे का मामला अलग है।

हमारे देश के कोने-कोने में संत-महात्मा रमते हैं। वे जन-साधारण के गुरु, संरक्षक और मार्ग-दर्शक सभी कुछ होते हैं। आसाराम साधारण परिवार से आते थे। उनका असली नाम असुमल हरपलानी था। उनका जन्म अप्रैल, 1941 में बिरानी गांव में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है। बंटवारे के बाद इनका परिवार भारतीय गुजरात में आ गया। पिता की मौत के बाद इन्होंने चाय की दुकान चलाई, अजमेर में तांगा चलाया। इसी दौरान वे अध्यात्मिक संगत में आ गए। घर से भागकर एक आश्रम में रहने लगे। बाद में घरवाले इन्हें वापस ले आए और शादी करा दी, जिससे इनके दो संतानें हुईं। नारायण साईं और भारती। लीलाशाह उनके आध्यात्मिक गुरु थे। उन्होंने इनका नाम आसाराम रखा। अहमदाबाद से करीब 10 किलोमीटर दूर साबरमती नदी के किनारे मुटेरा कस्बे में उन्होंने अपनी पहली कुटिया बनाई। वे लोगों का निःशुल्क इलाज करते थे। भजन-कीर्तन के बाद निःशुल्क भोजन देते थे। पैसा भी भक्त ही देते थे। सब ठीक चलने लगे। भक्तों की संख्या बढ़ती चली गई। इस वक्त दुनियाभर में इनके 400 आश्रम हैं। कई भक्त तो इन्हें साक्षात ईश्वर का प्रतिरूप मानते हैं।

भक्ति का कारोबार है, तो उसमें प्रतिद्वंद्विता भी है। हाल में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने लिस्ट जारी कर देश में 14 बाबाओं को फर्जी बताया है। इलाहाबाद में अखाड़ा परिषद की कार्यकारिणी की बैठक में जारी की गई लिस्ट में कई स्वयंभू बाबाओं के नाम हैं। सच यह है कि जबसे बाबा-वृत्ति ने कारोबार की शक्ल ली है, इनके बीच प्रतियोगिता भी चल रही है। दूसरी और धर्मस्थलों में यौन शोषण की खबरें हमारे यहाँ ही नहीं, दुनियाभर से आ रहीं हैं। अफसोस इस बात का है कि पाखंड की यह कहानी उस पनीली आधुनिकता के समांतर चल रही है, जिससे हम आज गुजर रहे हैं।

आधुनिक भारत में बाबा संस्कृति पर शोध कर रहीं मीरा नंदा ने लिखा है, ‘भारतीय मध्यवर्ग अपनी भौतिक सम्पदा में वृद्धि के अनुपात में ही ‘पूजा’ और ‘होम’ में भी उत्तरोत्तर वृद्धि करना आवश्यक और अनिवार्य समझता है। हर वाहन की ख़रीद के साथ पूजा होती है; ठीक वैसे ही जैसे ज़मीन के छोटे से टुकड़े पर भी किसी निर्माण से पहले ‘भूमि-पूजन’ अनिवार्य होता है। हर पूजा के साथ एक ज्योतिषाचार्य और एक वास्तुशास्त्री भी जुड़ा ही रहता है।’ हमारी विश्व-दृष्टि में ही खोट है। कुछ लोग इसे हिन्दुओं को बदनाम करने की साजिश मानते हैं। यह भी गलत है। 
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (28-04-2017) को "यह समुद्र नहीं, शारदा सागर है" (चर्चा अंक-2954) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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