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Thursday, February 15, 2018

क्या कांग्रेस के नेतृत्व में महागठबंधन बनेगा?

कांग्रेस पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव के सिलसिले में राष्ट्रीय स्तर पर विरोधी-दलों की एकता का प्रयास कर रही है। इस एकता के सूत्र उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति से भी जुड़े हैं। सन 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त बना महागठबंधन जुलाई 2017 में टूट गया, जब जेडीयू ने एनडीए में शामिल होने का निश्चय किया। उसके पहले उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, पर वहाँ बहुजन समाज पार्टी ने इस गठबंधन को स्वीकार नहीं किया। सवाल है कि क्या अब उत्तर प्रदेश में तीन बड़े दलों का गठबंधन बन सकता है? इस सवाल का जवाब देने के लिए दो मौके फौरन सामने आने वाले हैं।

कांग्रेस इस वक्त गठबंधन राजनीति की जिस रणनीति पर काम कर रही है, वह सन 2015 के बिहार चुनाव में गढ़ी गई थी। यह रणनीति जातीय-धार्मिक वोट-बैंकों पर आधारित है। पिछले साल पार्टी ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ इसी उम्मीद में गठबंधन किया था कि उसे सफलता मिलेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा एकसाथ नहीं आए हैं। क्या ये दोनों दल कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन में शामिल होंगे? इस सवाल का जवाब उत्तर प्रदेश में इस साल होने वाले राज्यसभा चुनावों में मिलेगा।



उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के 31 सदस्यों में से 9 का कार्यकाल आगामी 2 अप्रेल को खत्म हो रहा है। पिछले साल जुलाई में मायावती ने अपनी सीट छोड़ दी थी। वहाँ से 10 नए प्रतिनिधि चुनकर जाएंगे। जिन 9 की सदस्यता खत्म हो रही है, उनमें छह सपा के, एक-एक सदस्य भाजपा, बसपा और कांग्रेस के हैं। इनमें से 8 सीटों पर बीजेपी को जीत मिल जाएगी। सपा के पास विधानसभा में 47 सदस्य हैं, जो उसे एक सीट दिला देंगे। विपक्षी दल एकजुट हो जाएं तो वे दसवीं सीट जीत सकते हैं। क्या सपा या बसपा दूसरे दल के सदस्य की विजय सुनिश्चित करने में मददगार होंगे? यह छोटी सी कसौटी है। इससे अनुमान लगाया जा सकेगा कि विपक्षी एकता की सम्भावनाएं कितनी हैं।

उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में 11 मार्च को उप-चुनाव होने वाले हैं। पिछले साल इसी दिन बीजेपी ने विधानसभा चुनाव में भारी सफलता प्राप्त की थी। क्या इसबार इन चुनावों में विपक्ष एक प्रत्याशी खड़ा करेगा? संकेत हैं कि ऐसा नहीं होगा। सपा ने कहा है कि हम दोनों सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेंगे। शायद बसपा इस चुनाव में भाग भी नहीं लेगी। पहले खबरें थीं कि मायावती फूलपुर से संयुक्त विपक्ष की प्रत्याशी के रूप में सामने आ सकती हैं। बाद में बीएसपी के नेता लालजी वर्मा ने स्पष्ट किया कि हमारी पार्टी उप-चुनावों में हिस्सा नहीं लेती, पर मैं कह नहीं सकता कि इसबार हमारी रणनीति क्या होगी। इसी तरह 11 मार्च को बिहार की अररिया लोकसभा सीट पर भी उप-चुनाव है। इस मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में बीजेपी और आरजेडी के प्रतिनिधियों के बीच सीधा मुकाबला है। सन 2014 के चुनाव में मोदी लहर के बावजूद यहाँ से आरजेडी के मोहम्मद तस्लीमुद्दीन 1.45 लाख वोटों से जीते थे। तब यहाँ से जेडीयू का प्रत्याशी भी मैदान में था। इस बार नहीं है। लोकसभा की अररिया सीट के अलावा विधानसभा की जहानाबाद एवं भभुआ सीटों पर भी उप-चुनाव होगा। यह उपचुनाव अररिया के सांसद तस्लीमुद्दीन, जहानाबाद के राजद विधायक मुंद्रिका सिंह यादव और भभुआ के भाजपा विधायक आनंद भूषण पाण्डेय के निधन के कारण हो रहा है।

बसपा की रणनीति क्या होने वाली है, यह स्पष्ट नहीं है, पर संकेत यह भी है कि पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय गठबंधन से फिलहाल दूर है। हाल में सोनिया गांधी ने 17 विरोधी दलो की जो एकता-बैठक बुलाई थी, उसमें बसपा की भागीदारी नहीं थी। इतना ही नहीं बसपा ने कर्नाटक-विधानसभा चुनाव में जेडी(एस) के साथ गठबंधन का फैसला किया है। पार्टी गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस गठबंधन बनाने पर जोर दे रही है। उसने सीपीएम और सीपीआई को भी इसमें शामिल होने की सलाह दी है। सीपीएम के भीतर इस विषय पर विचार पहले से चल रहा है कि उसे कांग्रेस के साथ गठबंधन में शामिल नहीं होना चाहिए। बसपा ने अजित सिंह के रालोद को भी अपने साथ आने का निमंत्रण दिया है।

लोकसभा चुनाव के पहले बीजेपी के सहयोगी दलों की भूमिका भी साफ होने वाली है। महाराष्ट्र में इसबार शिवसेना उसके साथ नहीं है। उधर पंजाब में अकाली दल और आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम के साथ भी रिश्तों में खटास है। तेदेपा का कहना है कि केन्द्र सरकार 5 अप्रेल तक आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा नहीं देगी, तो हमारे सांसद इस्तीफा दे देंगे। केन्द्र का कहना है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिश है कि अब किसी राज्य को विशेष दर्जा न दिया जाए। देखना होगा कि इस सवाल पर तेदेपा क्या एनडीए से अलग होगी। फिलहाल बीजेपी के पास आंध्र में बाईएसआर कांग्रेस के साथ गठबंधन का विकल्प है।

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