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Saturday, February 10, 2018

कांग्रेस को 'सिर्फ' गठबंधन का सहारा

खबरें मिल रहीं हैं कि इस साल के अंत में होने वाले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ लोकसभा चुनाव भी कराए जा सकते हैं। चालू बजट सत्र के पहले दिन अपने अभिभाषण में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इस बात का संकेत किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस बात का समर्थन किया। कांग्रेस सहित प्रमुख विरोधी दल इस बात के पक्ष में नजर नहीं आते हैं। कांग्रेस की कोशिश है कि अगले लोकसभा चुनाव के पहले समान विचारधारा वाले दलों की एकता कायम कर ली जाए, ताकि बीजेपी को हराया जा सके। पिछले साल राष्ट्रपति के चुनाव के पहले पार्टी ने इस एकता को कायम करने की कोशिश की थी। उसमें सफलता भी मिली, पर उसी दौर में बिहार का महागठबंधन टूटा और जेडीयू फिर से वापस एनडीए के साथ चली गई।
देश की राजनीति में सबसे लम्बे अरसे तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा है। गठबंधन की राजनीति उसकी दिलचस्पी का विषय तभी बनता है जब वह गले-गले तक डूबने लगती है। तीन मौकों पर उसने गठबंधन सरकारें बनाईं। दो मौकों पर उसने बाहर से गठबंधन सरकारों को समर्थन दिया। हर बार सहयोगी दलों को कांग्रेस से शिकायतें रहीं। जब उसने बाहर से समर्थन दिया तो बैमौके समर्थन वापस लेकर सरकारें गिराईं। सन 2004 में पहली बार यूपीए बना, तो 2008 में वामदलों के हाथ खींच लेने के कारण सरकार गिरते-गिरते बची। यूपीए-2 के दौर में उसे लगातार ममता बनर्जी, शरद पवार और करुणानिधि के दबाव में रहना पड़ा।

कौन बनेगा नेता?
गठबंधन-राजनीति कांग्रेस की वरीयता नहीं, मजबूरी है। गठबंधन-चातुर्य उसके जीन्स में नहीं है। इस बार कांग्रेस का एकमात्र सहारा यही एकता है। जनवरी के आखिरी हफ्ते में दिल्ली में शरद पवार के घर पर यह मुहिम फिर से शुरू हुई, जिसमें कांग्रेस के प्रतिनिधि गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा ने इस बात को रेखांकित किया कि इस गठबंधन का नेतृत्व सोनिया को दिया जाना चाहिए। इसके बाद सोनिया गांधी ने 17 पार्टयों की बैठक बुलाई, जिसका उद्देश्य भाजपा-विरोधी गठबंधन की सम्भावनाओं को तलाशना था। पर इसबार गठबंधन के पहले सवाल भी उठ रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा सवाल नेतृत्व को लेकर है। इसमें व्यक्तिगत नेतृत्व के अलावा समूहगत नेतृत्व भी शामिल है। कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ा संगठन है, पर क्या जीत दिलाने वाली अपील भी उसके पास है? 
सोनिया गांधी को यूपीए-1 और 2 का स्वाभाविक नेता माना गया था। क्या अब भी वे निर्विवाद नेता बनी रहेंगी? सरकार बनी तब क्या होगा? कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी को अध्यक्ष बना लिया है, पर वह उन्हें यूपीए के नेता के रूप में पेश नहीं कर रही है। ममता बनर्जी आमतौर पर सोनिया गांधी की बैठकों में हमेशा आती हैं, पर इन दिनों वे अपने किसी प्रतिनिधि को भेजने लगी हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों को सम्भावनाओं की कुछ किरणें दिखाई पड़ रहीं हैं। सोनिया गांधी के यूपीए का अध्यक्ष बने रहने तक किसी को आपत्ति नहीं होगी, पर यदि सरकार की सम्भावना बनी तो नेतृत्व का सवाल जरूर खड़ा होगा।
हाल में हुई बैठक के बाद तृणमूल नेता डेरिक ओ ब्रायन ने कहा, विपक्षी गठबंधन का नेता वह हो जो किसी राज्य का मुख्यमंत्री हो,  जिसके पास संसदीय कार्य और केंद्र सरकार के विभागों का अनुभव हो और जो अपनी पार्टी का निर्विवाद नेता हो। जाहिर है कि कांग्रेस का अध्यक्ष होने के बावजूद विपक्षी एकता के सूत्र राहुल गांधी के हाथ में नहीं हैं। शरद पवार की दिलचस्पी कहीं और है और उन्हें भी चुनौती देने वाले मौजूद हैं।
गुजरात-राजस्थान से उत्साह
कांग्रेस आज 2014 की स्थिति में भी नहीं है। पर गुजरात विधानसभा और हाल में राजस्थान के कुछ उप-चुनावों के परिणामों से वह उत्साहित है। गुरुवार को सोनिया गांधी ने पार्टी सांसदों की बैठक में कहा कि हम कर्नाटक विधानसभा का चुनाव जीतेंगे। इस साल के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव भी होने हैं। इनमें राजस्थान में भी कांग्रेस के जीतने की उम्मीदें है। इस महीने मध्य प्रदेश के कोलारस और मुंगावली दो क्षेत्रों में उप-चुनाव होने वाले हैं। पता चलेगा कि वहाँ हवा किस तरफ बह रही है।
कांग्रेस के लिए हालात भले ही बेहतर होने लगे हों, पर बगैर गठबंधन के वह चल नहीं सकेगी। सन 2014 की हार के बाद पार्टी ने औपचारिक रूप से कोई चिंतन-शिविर नहीं लगाया, पर किसी न किसी स्तर पर अंतर्मंथन हुआ होगा। पार्टी का अंतिम चिंतन-शिविर जनवरी 2013 में जयपुर में हुआ था, जिसमें चिंतन नहीं हुआ, केवल राहुल गांधी को पार्टी का उपाध्यक्ष घोषित किया गया। यानी बेटन बदलने की तैयारी की गई।
गठबंधन का महत्व
पिछले पाँच दशकों में कांग्रेस का वह चौथा चिंतन शिविर था। इसके पहले के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 के शिमला शिविर का फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में देखा जा सकता है। शिमला में कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीति पर चलने का फैसला किया था। उसके पहले पार्टी ने पचमढ़ी में तय किया था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए। शिमला में कांग्रेस को गठबंधन का महत्व समझ में आया।
कांग्रेस गठबंधन की आदी नहीं है। यूपीए में उसकी सबसे करीबी पार्टी एनसीपी है, जो उससे ही टूट कर बनी है। महाराष्ट्र के पिछले विधानसभा चुनाव में उसने कांग्रेस को धता बता दी थी। तृणमूल कांग्रेस दूसरी ऐसी पार्टी है, जो कांग्रेस से टूटकर बनी है। आंध्र में वाईएसआर कांग्रेस भी उससे ही टूटकर अलग हुई, जिसके बाद से आंध्र और तेलंगाना में कांग्रेस का आधार लगभग खत्म हो गया। कांग्रेस का अपना संगठन और अपनी विचारधारा इस वक्त संशय में है। केवल बीजेपी या मोदी का विरोध विचारधारा का विकल्प नहीं है। उसकी सबसे बड़ी चुनौती है मिडिल क्लास से विलगाव।
बिहार-उत्तर प्रदेश के अनुभव
कांग्रेस इस वक्त गठबंधन राजनीति की जिस रणनीति पर काम कर रही है, वह सन 2015 के बिहार चुनाव में गढ़ी गई थी। यह रणनीति जातीय-धार्मिक वोट-बैंकों पर आधारित है। पिछले साल पार्टी ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ इसी उम्मीद में गठबंधन किया था कि उसे सफलता मिलेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा एकसाथ नहीं आए हैं। क्या ये दोनों दल कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन में शामिल होंगे? इस सवाल का जवाब उत्तर प्रदेश में इस साल होने वाले राज्यसभा चुनावों में मिलेगा।
उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के 31 सदस्यों में से 9 का कार्यकाल आगामी 2 अप्रेल को खत्म हो रहा है। पिछले साल जुलाई में मायावती ने अपनी सीट छोड़ दी थी। वहाँ से 10 नए प्रतिनिधि चुनकर जाएंगे। जिन 9 की सदस्यता खत्म हो रही है, उनमें छह सपा के, एक-एक सदस्य भाजपा, बसपा और कांग्रेस के हैं। इनमें से 8 सीटों पर बीजेपी को जीत मिल जाएगी। सपा के पास विधानसभा में 47 सदस्य हैं, जो उसे एक सीट दिला देंगे। विपक्षी दल एकजुट हो जाएं तो वे दसवीं सीट जीत सकते हैं।
हाथ कंगन को आरसी क्या?
क्या सपा या बसपा दूसरे दल के सदस्य की विजय सुनिश्चित करने में मददगार होंगे? यह छोटी सी कसौटी है। इससे अनुमान लगाया जा सकेगा कि विपक्षी एकता की सम्भावनाएं कितनी हैं। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में उप-चुनाव भी होने वाले हैं। क्या इनमें विपक्ष एक प्रत्याशी खड़ा करेगा? आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की भूमिका बहुत बड़ी होगी। विपक्षी एकता की कोशिशों के उत्तर प्रदेश में सफल या विफल होने का राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा।
हाल में सोनिया गांधी ने 17 दलों की बैठक को संबोधित किया। इसमें बसपा के प्रतिनिधि की गैर-मौजूदगी पर विश्लेषकों का ध्यान गया है। उत्तर प्रदेश की 50 के आसपास सीटों की हार-जीत में बसपा की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। हाल में समाजवादी पार्टी ने संकेत दिया है कि 2019 के चुनाव में हम किसी के साथ गठबंधन नहीं बनाएंगे। सम्भव है इस सबात का कोई मतलब न हो, पर जल्द ही इन दलों को अपने फैसले जनता को सुनाने होंगे।
असमंजस केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं हैं। क्षेत्रीय क्षत्रपों के अपने हित भी हैं। वे अपने राज्य की राजनीति से ज्यादा प्रेरित और प्रभावित होते हैं। तमिलनाडु में डीएमके और अन्ना-डीएमके की प्रतिस्पर्धा है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी एक-दूसरे के शत्रु हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना ने बीजेपी से दूसरी बनाने का फैसला किया है। क्या वह कांग्रेस के करीब आएगी? नहीं आएगी तो क्या वह परोक्ष रूप से कोई लाभ पहुँचाएगी? सीपीएम के भीतर कांग्रेस को लेकर लगातार बहस चल रही है। केरल और बंगाल में वह कांग्रेस का विरोध करेगी, तो शेष देश में उनके सहयोग से कांग्रेस की राजनीति कैसे चलेगी?
भविष्य का डर
कांग्रेस आज विरोधी दलों के गठबंधन की वकालत इसलिए कर रही है, क्योंकि अगले लोकसभा चुनाव में भी एनडीए को जीत मिली तो राजनीति की शक्ल बदल जाएगी। सबसे बड़ा फर्क राज्यसभा में पड़ेगा, जिसके सहारे कांग्रेस ने आंशिक रूप से ही सही दबाव बना रखा था। कांग्रेस सांसद शशि थरूर का कहना है कि अगर सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार को संसद के दोनों सदनों में बहुमत हासिल हो गया, तो वह लोकतंत्र पर बड़ा हमला कर सकती है। इस बयान के पीछे कांग्रेस का भय बोल रहा है।

सन 2014 में नरेन्द्र मोदी की जीत के पीछे कारण नकारात्मक नहीं थे। लोगों को बदलाव की आशा थी। कहना मुश्किल है कि मोदी की लोकप्रियता की स्थिति अगले चुनाव तक क्या होगी, पर इतना साफ है कि यदि विपक्षी गठबंधन को जीतना है तो उसे नेतृत्व और विचारधारा के असमंजस को खत्म करके सामने आना होगा। सिद्धांततः यह बात आकर्षक लगती है कि बीजेपी तो 31 फीसदी वोट के सहारे जीतकर आई है। यदि 69 फीसदी वोट को एक साथ कर लिया जाए तो उसका पता भी नहीं लगेगा। पर क्या यह सम्भव है?

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