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Sunday, November 5, 2017

स्वांग रचती सियासत


पिछले मंगलवार को संसद भवन में सरदार पटेल के जन्मदिवस के सिलसिले में हुए समारोह की तस्वीरें अगले रोज के अखबारों में छपीं। ऐसी तस्वीरें भी थीं, जिनमें राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के सामने से होकर गुजरते नजर आते हैं। कुछ तस्वीरों से लगता था कि मोदी की तरफ राहुल तरेर कर देख रहे हैं। यह तस्वीर तुरत सोशल मीडिया में वायरल हो गई। यह जनता की आम समझ से मेल खाने वाली तस्वीर थी। दुश्मनी, रंज़िश और मुकाबला हमारे जीवन में गहरा रचा-बसा है। मूँछें उमेठना, बाजुओं को फैलाना, ताल ठोकना और ललकारना हमें मजेदार लगता है।
जाने-अनजाने हमारी लोकतांत्रिक शब्दावली में युद्ध सबसे महत्वपूर्ण रूपक बनकर उभरा है। चुनाव के रूपक संग्राम, जंग और लड़ाई के हैं। नेताओं के बयानों को ब्रह्मास्त्र और सुदर्शन चक्र की संज्ञा दी जाती है। यह आधुनिक लोकतांत्रिक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं लगती, बल्कि महाभारत की सामंती लड़ाई जैसी लगती है। इस बात की हम कल्पना ही नहीं करते कि कभी सत्तापक्ष किसी मसले पर विपक्ष की तारीफ करेगा और विपक्ष किसी सरकारी नीति की प्रशंसा करेगा।

बहरहाल ये तस्वीरें जाने-अनजाने कुछ सोचने का मसाला दे गईं। पहली बात तो यह कि हम दृश्य जगत में आ गए हैं। दृश्य यानी विजुअल हमपर हावी हैं। पिछले दिनों फिल्म आई थी दृश्यम, जिसका नायक चौथी कक्षा फेल है, पर जीवन के अनुभवों में स्मार्ट है। उसका अनुभव वे तस्वीरें हैं, जो उसके दिमाग में बैठी हैं। वह डिटेक्टिव फिल्में देखकर स्मार्ट हुआ है। वह केबल ऑपरेटर का बिजनेस करता है और लगातार फिल्में, खासकर मर्डर मिस्ट्री वाली फिल्में, देखता रहता है। संयोग से हम वर्च्युअल रियलिटी यानी आभासी सत्य के दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जिसमें हमारा सत्य हमारे दिलो-दिमाग में बैठी तस्वीरों से तय हो रहा है। सोशल मीडिया ये तस्वीरें हमारे दिमाग में लगातार बैठाता जा रहा है। इनके सहारे में हमारे निश्चय और वरीयताएं दृढ़ से दृढ़तर होती जा रही है। इसके विपरीत वास्तविक जीवन में हमारे संशय बढ़ते जा रहे हैं।
आज आरोप लगता है कि मीडिया मोदी सरकार पर निछावर है। यही आरोप मनमोहन सरकार के जमाने में भी मीडिया पर लगता था। इसकी वजह मीडिया नहीं संगठित रूप से काम करने वाली पीआर एजेंसियाँ हैं। पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले जून 2013 में दो केंद्रीय मंत्रियों पवन बंसल  और अश्विनी कुमार पर कुछ आरोप लगे और उन्हें इस्तीफे देने पड़े।
उस वक्त मीडिया में खबरें थीं कि भ्रष्टाचार के आरोपों से सोनिया नाराज हैं। सोनिया गांधी ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था। किसी अदृश्य शक्ति ने पत्रकारों को ज्ञान दिया कि ये इस्तीफे सोनिया गांधी के दबाव में दिए गए हैं। नेताओं की छवि बनाना और बिगाड़ना स्पिन डॉक्टरों के हाथ में है। राहुल गांधी की पप्पू छवि बनी तो बनती चली गई। हाँ, एक वजह मीडिया के गेटकीपरों की उदासीनता भी है। इधर सोशल मीडिया के उदय के बाद से सारे दरवाजे टूट चुके हैं।
हाल में आरुषि हत्याकांड के मुकदमे का फैसला आया तो कहा गया कि मीडिया ट्रायल के कारण एक राय बनती चली गई कि इसमें घर वालों का हाथ है। यह राय बनती चली गई और सारी एजेंसियों ने उस राय को सच मान लिया। धारणाएं इतनी आसानी से बनने-बिगड़ने लगी हैं कि समझ में नहीं आता कि सच क्या है और झूठ क्या। ज्यादातर राजनीतिक मामलों में कोई अदृश्य ताकत राय बनाती है और वह राय फैलती जाती है।
वैश्विक अनुभव है कि स्पिन डॉक्टर अनौपचारिक तरीके से राय को फैलाते हैं। सारी दुनिया में शराब और तम्बाकू के कारोबार के फैलने के पीछे पब्लिक रिलेशंस मशीनरी की बड़ी भूमिका है। उसने सीधे प्रचार नहीं किया, बल्कि सामाजिक जीवन में, फिल्मों, साहित्य और दूसरे विज़ुअल मीडिया में उसे सम्मानजनक भूमिका में पहुँचा दिया। यह बात जीवन के हर क्षेत्र पर लागू होती है।
राजस्थान का लोक-नाट्य स्वांग हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में सांग हो जाता है। स्वांग का राजनीतिक अर्थ वोट की राजनीति के संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाता है। मेक-ओवर राहुल का हो या मोदी का जबतक राजनीतिक कर्म जनता के जीवन में बदलाव नहीं लाएगा, यह स्वांग ही रहेगा।
भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘दो बांके’ का अंत कुछ इस प्रकार होता है... इस पार वाला बांका अपने शागिर्दों से घिरा हुआ चल रहा था. शागिर्द कह रहे थे, ”उस्ताद इस वक्त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं. उस्ताद हम सब के सब अपनी-अपनी जान दे देते...!”
इतने में किसी ने बांके से कहा, “मुला स्वांग खूब भरयो।”
फिलहाल यह आभासी राजनीति भी स्वांग से कम नहीं लगती।


राहुल का मेक-ओवर

खबर है कि राहुल गांधी का मेक-ओवर हो गया है। वे अब जोरदार तरीके से सरकार के खिलाफ बयान देने लगे हैं। उनकी शब्दावली मजेदार हो गई है। कुल मिलाकर कहें तो वे लोकप्रिय हो गए हैं। कैसे कह सकते हैं आप? प्रमाण है ट्विटर। महज तीन महीनों में राहुल के ट्विटर हैंडल को फॉलो करने वालों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी हो गई है। जुलाई 2017 में राहुल के फॉलोवर 24.93 लाख थे, जो सितम्बर में बढ़कर 34 लाख हो गए। 2 नवम्बर को यह संख्या 41 लाख थी। उनके ट्वीट के रिट्वीट काफी बढ़ गए हैं।

राहुल की इस बढ़ती लोकप्रियता के जवाब में कहा जा रहा है कि यह सब तकनीक का कमाल है। उनके ज्यादातर फॉलोवर मध्य एशिया से हैं। यानी कि ट्विटरबॉट उन्हें रिट्वीट कर रहे हैं। बॉट एक प्रकार का सॉफ्टवेयर है जो ऑटोमेटिक काम करता है। बहरहाल लड़ाई इस बात की है कि आभासी दुनिया में कौन आगे है। इस मामले में राहुल अभी मोदी से काफी पीछे हैं, जिनके फॉलोवरों की संख्या 2 नवम्बर को 3 करोड़ 62 लाख थी। नरेन्द्र मोदी के व्यक्तिगत हैंडल के अलावा उनके प्रधानमंत्री के रूप में अलग हैंडल हैं। पर इतना नजर आ रहा है कि राहुल की छवि बेहतर बनाने की संगठित कोशिश की जा रही है।

इस साल मई में अभिनेता से नेता बनीं कर्नाटक से आईं रम्या उर्फ दिव्य स्पंदना ने पार्टी के सोशल मीडिया सेल की जिम्मेदारी संभाली है। करीब 50 युवाओं का कोर ग्रुप जिसमें कंटेंट राइटिंग, डेटा एनालिटिक्स, वीडियोग्राफर्स, अनुवादक और इलस्ट्रेटर शामिल हैं, दिन-रात यह काम कर रहे हैं। इस टीम में 85 फीसदी महिलाएं हैं। रम्या का कहना है कि हम लोगों से यह नहीं कह रहे हैं कि हमें वोट दें। हम सिर्फ लोगों को यह बता रहे हैं कि आइडिया ऑफ इंडिया का दूसरा पक्ष भी है आपको खुद निर्णय करनी चाहिए।

राजनीतिक प्रचार की लड़ाई में वॉट्सऐप ग्रुप एक बड़े हथियार के रूप में सामने आए हैं। एक ग्रुप में आया वीडियो देखते ही देखते तमाम ग्रुपों में प्रवेश कर जाता है। पिछले दिनों राहुल गांधी के गुजरात दौरे के समय सोशल मीडिया पर ‘विकास पागल हो गया’ कैंपेन चला और फिर मोदी सरकार की नीतियों पर बने ‘मीम’। राजनीति में आने के पहले रम्या कन्नड़, तेलुगू और तमिल फिल्मों में काम कर चुकी हैं। उनकी मां कर्नाटक में कांग्रेस की वरिष्ठ नेता हैं, और पिता बिजनेसमैन हैं। रम्या कर्नाटक की मंड्या सीट से लोकसभा सदस्य भी रह चुकी हैं।

राहुल के चुटीले और चटकीले ट्वीटों को देखते हुए सवाल उठा है कि क्या वे खुद ट्वीट कर रहे हैं? हाल में रम्या ने एक टीवी चैनल को बताया कि वे खुद ट्वीट करते हैं। हाल में राहुल ने अपने विरोधियों को जवाब देने के लिए ट्विटर पर पेट डॉग पिद्दी का एक वीडियो शेयर किया। इस वीडियो में राहुल गांधी की आवाज भी है, जिसमें वे अपने डॉगी को पुचकारते हुए नमस्ते करने के लिए कह रहे हैं।

राहुल में इस बदलाव की शुरुआत उनकी अमेरिका यात्रा से हुई। उसके बाद वे गुजरात के दौरे पर गए, जहाँ वे बजाय बड़ी रैलियों के जनता के छोटे समूहों के बीच गए। उनकी ऐसी तस्वीरें सामने आईं, जिनमें वे जनता के बीच ढपली लेकर नाचते नजर आते हैं। कांग्रेस पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप भी है। इस छवि को तोड़ने के लिए राहुल मंदिरों में मत्था टेकते हुए भी दिखाई पड़े हैं।

यह सब आभासी मीडिया के मार्फत है। वे जनता के कितना करीब गए हैं और कितना जा पाएंगे यह ज़मीन पर देखना होगा। और इसकी पहली झलक गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों में दिखाई पड़ेगी। इसके बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की बारी होगी। इस दौरान उम्मीद है कि वे पार्टी अध्यक्ष का पद भी सँभालेंगे।


‘पप्पू’ और ‘फेकू’ की जंग
सन 2014 के लोकसभा चुनाव के जमाने में जहाँ नरेन्द्र मोदी सोशल मीडिया पर धूम मचा रहे थे, राहुल गांधी ने सोशल मीडिया में दिलचस्पी नहीं दिखाई। यों भारतीय राजनीति में सोशल मीडिया के हस्तक्षेप की कहानी सन 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से शुरू होती है। आम आदमी पार्टी के उदय का काफी श्रेय सोशल मीडिया को जाता है। यह भी सच है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बीजेपी ने बाद में बनाया, सोशल मीडिया में वे प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी उससे पहले बन चुके थे।

यह लड़ाई 2013 में शुरू हो गई थी, जब 4 अप्रेल को राहुल गांधी के सीआईआई भाषण के बाद ट्विटर पर अचानक पप्पूसीआईआई के नाम से एक हैंडल तैयार हो गया। यह हैंडल तबसे ठंडा पड़ा है, पर तमाम दूसरे हैंडल तैयार हो गए हैं। इसके बाद 8 अप्रेल को नरेन्द्र मोदी की फिक्की वार्ता के बाद फेकूइंडिया जैसे कुछ हैंडल तैयार हो गए। इस हैंडल से पिछले साल तक ट्वीट होते रहे, पर एक साल से यह भी खामोश है। पर इन हैंडलों ने ‘पप्पू’ और ‘फेकू’ की जो जंग शुरू की थी, वह आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गई है।

ट्विटर से फेसबुक पर और फेसबुक से ब्लॉगों पर राजनीतिक घमासान चल रहा है और लगता है कि इससे कहीं ज्यादा गति से वह अभी चलेगा। बहरहाल 2014 के लोकसभा चुनाव ने भारतीय राजनीति के प्लेटफॉर्म पर सोशल मीडिया को मुकम्मल जगह दे दी है और तय है कि 2019 का चुनाव आते-आते इस मीडिया में इनोवेशन की बाढ़ आएगी। इस दौरान किसी नए मीडिया का उदय हो जाए, तो इसमें भी आश्चर्य नहीं होगा।

पिछले लोकसभा चुनाव के पहले की एक रपट थी कि देश के 160 लोकसभा क्षेत्रों में फेसबुक के इतनी बड़ी संख्या में यूज़र है कि यदि वे चाहें तो परिणामों पर असर डाल देंगे। पर उस वक्त लगता था सरकार उसे खिलौना ही मानती थी। कपिल सिब्बल ने सोशल मीडिया के दुष्परिणामों की ओर कई बार इशारा किया, जिससे लगता था सरकार उससे डरने लगी थी। जबकि यह संचार का ताकतवर ज़रिया है। कपिल सिब्बल का ट्विटर हैंडल सितम्बर 2013 में बना। ट्विटर पर लालू यादव, मुलायम सिंह, मायावती और ममता बनर्जी सबने आने में देरी लगाई।

राहुल गांधी आज जिस ट्विटर हैंडल का इस्तेमाल करते हैं वह अप्रैल 2015 में शुरू हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले कांग्रेसी नेताओं में शशि थरूर अपेक्षाकृत सक्रिय थे। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी गूगल प्लस पर 'हैंगआउट' करने वाले शुरूआती राजनेता हैं। अलबत्ता उनके पहले वित्तमंत्री पी चिदम्बरम ने 4 मार्च 2013 को गूगल प्लस पर अपने बजट को लेकर नागरिकों से वीडियो चैट किया था, पर उस पहल का असर खास नहीं हुआ।

स्वांग के सूत्रधार ‘स्पिन डॉक्टर’
पश्चिमी लोकतंत्र की बुनियाद पर जागरूक जनता और प्रभावशाली मीडिया की भूमिका भी है। वहाँ भी पिछले दो-तीन दशक से लोकतंत्र को लेकर बुनियादी सवाल उठाए जा रहे हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नियंत्रित करने का संगठित कारोबार वहाँ खड़ा होता जा रहा है। जेम्स हार्डिंग की किताब ‘अल्फा डॉग्स’ में ‘पोलिटिकल स्पिन’ के एक वैश्विक कारोबार का जिक्र किया गया है, जो कमोबेश उन सब देशों में पनपता जा रहा है, जहाँ चुनाव होते हैं।

धीरे-धीरे ऐसी कम्पनियाँ खड़ी हो रहीं हैं, जो न केवल चुनाव का संचालन करती हैं, बल्कि राजनेताओं को ऐसे गुर सिखाती हैं, जिनसे जनता को भरमाया जा सके। एक अरसे से हम प्रशांत किशोर का नाम सुन रहे हैं। वे मोदी से लेकर राहुल तक सबके सलाहकार रह चुके हैं। यानी वे विचारधारा के नहीं कारोबार के प्रचारक हैं। इस साल उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के सलाहकार के रूप में राजनीतिक रणनीतिकार स्‍टीव जार्डिंग को हायर किया। सन 2014 के चुनाव के पहले कांग्रेस ने भी एक विदेशी कम्पनी की सेवाएं ली थीं।

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार राजनीति में जनता के दिलो-दिमाग पर अपने संदेश को बैठाने के लिए संचार-साधनों को नियंत्रित या प्रभावित करने का नाम है पोलिटिकल स्पिन। क्रिकेट की स्पिन गेंदबाजी से कहीं ज्यादा मारक यह शैली आज दुनियाभर की लोकतांत्रिक प्रणालियों में प्रवेश कर गई है। पर यह शब्द भद्र या आदर्श राजनीति का नहीं है। इसे घटिया राजनीति में शुमार किया जाता है। बेशक आपको कहने का हक है कि राजनीति और आदर्श में रिश्ता होता तो नौबत यहाँ तक क्यों आती?

दुनिया की राजनीति पर ‘स्पिन डॉक्टरी’ हावी है और एक से एक ‘राजनीतिक स्पिनर’ निकलकर सामने आ रहे हैं। चूंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव की सबसे बड़ी भूमिका है, इसलिए चुनाव के संचालन में इन स्पिन विशेषज्ञ की हिस्सेदारी बढ़ रही है। जानकारी को फैलाने का वक्त और तथ्यों में की गई काट-छाँट में स्पिन डॉक्टर मददगार होते हैं। राजनेता अब अर्ध सत्य बोलते हैं। बात में कितना सच हो और कितना झूठ यह बात स्पिन डॉक्टर तय करते हैं।

पिछले साल अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में कई तरह के हदें पार हुईं। अमेरिकी लोकतंत्र हमारे लोकतंत्र के मुकाबले कहीं परिपक्व है। वहाँ की जनता हमारी जनता के मुकाबले कहीं जागरूक है, पर वहाँ की स्पिन डॉक्टरी चल रही है। इसकी वजह क्या है? क्या राजनेता को जनता के मन का पता नहीं? क्या वह जनता से दूर चला गया है? क्या उसकी दिलचस्पी केवल चुनाव जीतने तक सीमित रह गई है?

जन-सम्पर्क अपने आप में व्यापक विषय है। जनता की जानकारी बढ़ाने और उसे रास्ता दिखाने में उसकी भूमिका है, पर इसके दूसरे पहलू भी है। कुछ समय पहले हमने नीरा राडिया टेप की खबरें पढ़ीं थीं। वह मामला भी राजनीति और कारोबार के रिश्तों को लेकर था। राजनीति का कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा है। हम अपनी समस्याओं और उनके समाधानों को लेकर स्पष्ट-मत नहीं हैं। विडंबना है कि एक तरफ जानकारी के स्रोत-साधन बढ़ रहे हैं, वहीं हमें भरमाने वाली प्रवृत्तियाँ भी बढ़ रहीं हैं।

http://epaper.navodayatimes.in/1419219/The-Navodaya-Times-Main/Navodaya-Times-Main#page/9/1

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