कांग्रेस पार्टी के भीतर उत्साह का वातावरण है।
एक तरफ राहुल गांधी के पदारोहण की खबरें हैं तो दूसरी ओर गुजरात में सफलता की
उम्मीदें हैं। मीडिया की भाषा में राहुल गांधी ने ‘फ्रंटफुट’ पर खेलना शुरू कर दिया है। उनके भाषणों को पहले मुक़ाबले ज़्यादा कवरेज मिल
रही है। अब वे हँसमुख, तनावमुक्त और तेज-तर्रार नेता के रूप
में पेश हो रहे हैं। उनके रोचक ट्वीट आ रहे हैं। उनकी सोशल मीडिया प्रभारी दिव्य
स्पंदना के अनुसार कि ये ट्वीट राहुल खुद बनाते हैं।
राहुल के पदारोहण के 14 दिन बाद गुजरात और
हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणाम आएंगे। ये परिणाम कांग्रेस के पक्ष में गए तो खुशियाँ
डबल हो जाएंगी। और नहीं आए तो? कांग्रेस पार्टी हिमाचल में हारने को तैयार है, पर वह
गुजरात में सफलता चाहती है। सफलता माने स्पष्ट बहुमत। पर आंशिक सफलता भी मिली तो
कांग्रेस उसे सफलता मानेगी। कांग्रेस के लिए ही नहीं बीजेपी के नजरिए से भी गुजरात
महत्वपूर्ण है। वह आसानी से इसे हारना नहीं चाहेगी। पर निर्भर करता है कि गुजरात
के मतदाता ने किस बात का मन बनाया है। गुजरात के बाद कर्नाटक, मध्य प्रदेश,
राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे महत्वपूर्ण राज्य 2018 की लाइन में हैं। ये सभी चुनाव
2019 के लिए बैरोमीटर का काम करेंगे।
प्रभावित होगी राहुल
की इमेज
फिलहाल राहुल का छवि-रूपांतरण चर्चा में है। पिछले
तीन-चार वर्षों में राहुल गांधी खराब इमेज के शिकार हुए हैं। और इस वक्त मेक-ओवर
चल रहा है। उन्होंने कुछ देर से महसूस किया कि उनके टेक-ऑफ में कहीं बुनियादी गलती
हो गई है। बेशक उनकी
छवि बिगाड़ने में बीजेपी की मीडिया-मशीनरी का भी हाथ है, पर सब कुछ मोदी का
किया-धरा ही नहीं था। राहुल की रीति-नीति का भी उनके छवि-दोष में हाथ था।
सितम्बर 2012 में प्रतिष्ठित ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने ‘द राहुल प्रॉब्लम’ शीर्षक
आलेख में लिखा, उन्होंने नेता के तौर पर कोई योग्यता नहीं दिखाई है। वे मीडिया से
बात नहीं करते, संसद में भी अपनी आवाज़ नहीं उठाते हैं। उन्हें प्रधानमंत्री पद का
प्रत्याशी कैसे माना जाए? यह
बात आज से पाँच साल पहले लिखी गई थी। इस बीच राहुल की विफलता-सूची और लम्बी हुई
है। ये बातें उन्हें ‘पप्पू’ साबित करने से पहले की हैं।
बहरहाल अब राहुल की इमेज बेहतर बनाने के लिए गलतियों से बचने की
कोशिश की जा रही है। वे अब रैलियों में लम्बे भाषणों की जगह छोटी सभाओं का सहारा
ले रहे हैं। जनता के बीच जाते हैं। उनके साथ हँसते-मुस्कराते और नाचते-गाते भी
हैं। उनके समर्थक पत्रकारों ने लिखना शुरू किया है कि राहुल संजीदा और गम्भीर सवाल
उठाते रहे हैं। वे सीधे और सरल व्यक्ति हैं, जो तेज़-तर्रार, घाघ और चालाक नेता नरेंद्र मोदी की तुलना में
अनाड़ी और अपरिपक्व ‘पप्पू’ बन गए।
राहुल के सामने चुनौतियाँ
इधर नोटबंदी और जीएसटी को लागू करने के
तौर-तरीकों की वजह से मोदी सरकार आलोचना के घेरे में है। कुछ दिन पहले तक जो मीडिया
मोदी सरकार की वाह-वाह कर रहा था, वह भी अब हाय-हाय करने लगा है। राहुल के
पक्षधरों की राय यह है कि गुजरात के चुनावों पर इन बातों का असर पड़ेगा। और यह
बीजेपी के पराभव की शुरुआत होगी।
सवाल है कि क्या वास्तव में उल्टी बयार बहने
लगी है? क्या गुजरात में बीजेपी हार सकती है? क्या 2019 में
कांग्रेस की वापसी सम्भव है? बेशक ये सवाल पूछे जा सकते हैं, पर राहुल के कॉस्मेटिक
मेक-ओवर मात्र से इन सवालों के जवाब ‘हाँ’ नहीं हो जाएंगे। कांग्रेस,
बीजेपी और देश के लिए यह महत्वपूर्ण समय है। गुजरात में कांग्रेस जीते या न जीते,
पर देश में मजबूत विपक्ष की जरूरत है।
बीजेपी का एकतरफा
ताकतवर होना खतरनाक है। इस लिहाज से कांग्रेस का पराभव चिंता का विषय है। पर
कांग्रेस को भी यह तय करना है कि उसे किस प्रकार की राजनीति चाहिए। सोशल मीडिया के
चुटकुलों से काम पूरा होने वाला नहीं है। पिछले तीन साल में कांग्रेस ने संसद का
इस्तेमाल उस तरह नहीं किया जिससे लगे कि वह संजीदा पार्टी है। शोर और हंगामे में
उसकी भी भागीदारी रही है। राहुल गांधी के सामने कुछ बड़ी चुनौतियाँ इस प्रकार हैं:-
·
गुजरात समेत विधान सभाओं के चुनाव
·
संगठनात्मक बदलाव
·
पार्टी का क्षेत्रीय विस्तार
·
अपनी ही पार्टी के सीनियर नेताओं के साथ समन्वय
·
गैर-भाजपा महागठबंधन की कोशिश
·
पार्टी की वैचारिक स्पष्टता, खासतौर से आर्थिक सवालों पर
·
जनता से जुड़ाव, खास तौर से सोशल इंजीनियरी की बारीकियाँ
क्या होगा गुजरात में?
गुजरात चुनाव के पिछले
परिणामों, खासकर पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों के आधार पर विश्लेषण करें तो लगता
नहीं कि बीजेपी हारेगी। पिछले दो दशक से ज्यादा समय से गुजरात में बीजेपी को 48-49
फीसदी वोट मिलते रहे हैं और कांग्रेस को 38-39। कोई तीसरी बड़ी पार्टी गुजरात में
नहीं है। व्यक्तिगत प्रभाव क्षेत्र वाले कुछ नेता निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ते
रहे हैं। इनमें से एक या दो ही जीत पाते हैं, पर ये सभी प्रत्याशी करीब 6 फीसदी तक
वोट खींचते हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव
में बीजेपी को करीब 59.05 फीसदी वोट मिले और कांग्रेस को 32.86। कुल मिलाकर 182
में से 165 विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी को बढ़त मिली थी। पहली नजर में लगता है
कि गुजरात में बीजेपी को हराना लगभग असम्भव है। पिछले दिनों सीएसडीएस-लोकनीति के
सर्वेक्षणों से भी लगता है कि बीजेपी को विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिल जाना
चाहिए।
अतीत की राजनीति और
प्रदेश में बीजेपी की जबर्दस्त संगठनात्मक शक्ति और नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता
के बावजूद बीजेपी को नुकसान पहुँचाने वाले कारक भी राज्य में मौजूद हैं। गुजरात
व्यापारियों का प्रदेश है। नोटबंदी और जीएसटी के असर को देखना है तो गुजरात में
देखा जा सकता है। कांग्रेस ने गुजरात में एक तरफ जातीय रणनीति बनाई है और दूसरी
तरफ व्यापारियों की नाराजगी को भुनाने की कोशिश की है। बहरहाल कांग्रेस उनके नोटबंदी और जीएसटी विरोधी
दृष्टिकोण को भुनाने की कोशिश जरूर करेगी।
बीजेपी की लोकप्रियता
में गिरावट
हाल में बीजेपी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने
अहमदाबाद, राजकोट, और वडोदरा में व्यापारियों से बातचीत
की। इससे पहले पी चिदंबरम भी जीएसटी पर राजकोट के व्यापारियों से मिले थे। कांग्रेस
अब मनमोहन सिंह को भी गुजरात ले जा रही है। उसकी कोशिश है कि ऐसे व्यक्तियों को
आगे किया जाए जिनके साथ विशेषज्ञता भी जुड़ी हो।
बीजेपी बाहरी तौर पर कुछ भी कहे, पर गुजरात में
नोटबंदी और जीएसटी के असर का उसे भी अंदाज है। शहरी इलाकों में उसे इसकी कीमत
चुकानी पड़ सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव में शहरी इलाकों में कारोबारी लोगों का वोट
बीजेपी को मिला था। सूरत के हीरा उद्योग और अहमदाबाद के वस्त्र उद्योग से जुड़ी शहरी
सीटों पर बीजेपी ने भारी मतों से जीत हासिल की थी।
सीएसडीएस-लोकनीति के
सर्वेक्षणों के अनुसार हालांकि राज्य में बीजेपी की जीत नजर आती है, पर उनके अगस्त
के सर्वेक्षण के बाद अक्तूबर में हुए सर्वेक्षण से पता लगा कि बीजेपी की
लोकप्रियता कम हो रही है। अगस्त
के सर्वे में लगता था कि बीजेपी को राज्य में 60 फीसदी वोट मिलेंगे, वहीं अक्तूबर
के सर्वे में यह संख्या 47 फीसदी हो गई। 12 फीसदी की गिरावट बीजेपी के वोट में हुई
वहीं 12 फीसदी की वृद्धि कांग्रेस के वोट में हुई जिसका वोट 41 फीसदी हो गया।
दो महीने में यह बदलाव कांग्रेस के चुनाव
अभियान की देन है या 22 साल की एंटी इनकम्बैंसी के कारण है, अभी यह कहना मुश्किल
है। इस बीच केन्द्र सरकार ने जीएसटी में कई तरह की राहतें भी दी हैं। व्यापारी की
राय इस आधार पर बदली या नहीं, यह भी अनुमान का विषय है। और यह अनुमान लगा लेना भी
सही नहीं होगा कि व्यापारी केवल जीएसटी या नोटबंदी के कारण वोट देंगे। उनके पास
वोट देने के दूसरे कारण भी हो सकते हैं। यही बात हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकुर और जिग्नेश
मेवाणी के संदर्भ में कही जा सकती है। पाटीदार, ओबीसी और दलितों का कितना हिस्सा
कांग्रेस के साथ आएगा, उसे लेकर भी अनुमान ही अनुमान हैं। वस्तुतः वोट का
काफी आधार स्थानीय समीकरणों से बनता है।
बँटेंगे भाजपा-विरोधी वोट?
एक बड़ा सवाल यह है कि भाजपा-विरोधी वोटों को
बँटने से कांग्रेस कितना रोक पाएगी? सीधे मुकाबलों में एक-दो फीसदी वोट भी
महत्वपूर्ण होते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में 9 सीटों पर फैसला 1500 से भी कम
वोटों से हुआ था। राज्य में शंकर सिंह वाघेला भी एक महत्वपूर्ण शख्सियत हैं। वे जन
विकल्प मोर्चा नाम की पार्टी से अपने समर्थकों को मैदान में उतार रहे हैं। किसी तरह
से एनसीपी और कांग्रेस का गठबंधन हो गया। ऐसा तब हुआ, जब प्रफुल्ल पटेल ने घोषणा
कर दी कि हम 120 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे।
राज्य में जेडीयू दोफाड़ है। नीतीश कुमार की
पार्टी छह-सात सीटों पर लड़ेगी। शरद यादव के नेतृत्व वाली पार्टी कांग्रेस से कुछ सीटें
पाने की कोशिश कर रही है। राज्य के आदिवासी क्षेत्रों का वोट आमतौर पर कांग्रेस को
मिलता रहा है। उधर ओवेसी साहब भी मैदान में हैं, जो मुस्लिम वोटों को खींचने की
कोशिश करेंगे। फिलहाल राहुल के बहुप्रतीक्षित राज्याभिषेक का इंतजार है। उसके
परिणाम दूरगामी होंगे।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशितज़ोया हसन के इस लेख को भी पढ़ें
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